समाज के ब्राहमणवादी पारंपरिक दृष्टिकोण में महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति माना जाता था। यदि किसी महिला के साथ कोई यौन हिंसा की जाती थी, तो यह किसी दूसरे (सर्वाइवर महिला के पति) की संपत्ति को ‘अपवित्र’ करना माना जाता था। यही महिला के साथ यौन हिंसा की हजारों घटनाओं का मूल कारण है जो दर्ज नहीं हो पाती है। इस कारण बलात्कार के प्रति ऐसा दृष्टिकोण अपने साथ अनगिनत सामाजिक कलंक लेकर आता है, क्योंकि एक महिला का मूल्य उसकी ‘यौनिक पवित्रता’ से मापा जाता है। दशकों से नारीवादी विचार और सक्रियता ने सभी क्षेत्रों में बलात्कार और सर्वाइवर की परिभाषा को बदलने और व्यापक बनाने की दिशा में काम किया है और अपराध की उन रूढ़िवादी अवधारणाओं को चुनौती दी है जिनकी शुरुआत ‘बलात्कार’ या यौन हिंसा की पारंपरिक पितृसत्तात्मक परिभाषा में हुई है।
साल 2012 दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले के बाद देश में व्यापक सार्वजनिक आक्रोश फ़ैल गया था और न्यायमूर्ति वर्मा समिति की स्थापना की गई, जिसकी रिपोर्ट ने भारत में यौन हिंसा से संबंधित कानूनों में बदलाव किए थे। लेकिन, कानून में इतने बदलाव के बावजूद भी न्याय पाना आसान नहीं हुआ है। दिल्ली सामूहिक बलात्कार घटना के बाद, देश में बलात्कार सम्बंधित क़ानून में बदलाव और महिलाओं की सुरक्षा के लिए विरोध प्रदर्शन हुए। इस मामले की सुनवाई एक फास्ट-ट्रैक अदालत में की गई, जिसमें आरोपियों को मौत की सजा देने और आखिरकार उन्हें मौत की सजा देने से पहले सुनवाई को सात साल तक ‘तेजी से’ चलाया गया। मीडिया को दिए एक बयान में दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले की महिला की मां ने दुख जताते हुए कहा था कि जब भी कोई घटना होती है तो फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाई जाती है, सख्त कानून बनाए जाते हैं, लेकिन उससे क्या प्रयोजन पूरा होता है? उस अदालत में एक मामला सात साल तक खिंचता है, अगर कोई कानून अपनी महिलाओं को न्याय दिलाने में विफल रहता है तो उसका कोई मतलब नहीं है।
कोलकाता के हालिया मामले में एक महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या मामले पर टिप्पणी करते हुए, आशा देवी का मानना है कि 2012 के बाद से प्रणालीगत स्तर पर कुछ भी नहीं बदला है और हम अभी भी वहीं हैं, जहां हम एक देश के रूप में थे। हम अपनी आधी आबादी, महिलाओं की सुरक्षा में कमी के साथ वहीं खड़े हैं। कोलकाता के आर.जी. कर अस्पताल में एक महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या को काफी समय बीत चुका है। इस घटना के बाद देशभर में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया। #WeWantJustice के नारे सड़कों पर छा गए।
इसके बाद सबूत मिटाने की कोशिशें, पुलिस की क्रूरता और अक्षमता की घटनाएं और केंद्र और राज्य सरकारों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया था। लेकिन, इन सबके बीच एक सवाल जो उभर कर आता है वो यह कि आखिर कब तक गंभीर अपराधों के लिए सुनवाई खिंचेगी? महिलाओं से सम्बंधित अपराधों की जल्द सुनवाई के लिए फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट्स बनायीं जाती हैं लेकिन उन फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट्स में भी मामला सालों-साल खिंच जाता है। आखिर क्यों इतने कठोर नियम और सजा होने के कारण भी महिलाओं के खिलाफ अपराध न तो कम हो रहे हैं और न ही उन मामलों में निर्णय जल्द आ रहा है?
क्या कहते हैं आंकड़ें ?
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, भारत में तीन में से एक महिला को अपनी ज़िंदगी में यौन या शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा है, जिनमें से 86 प्रतिशत ने कभी कोई मदद नहीं मांगी और 77 प्रतिशत ने कभी किसी को नहीं बताया कि क्या हुआ। इनमें से लगभग 80 प्रतिशत अपराध सर्वाइवर के किसी परिचित व्यक्ति द्वारा किए गए थे। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की एक रिपोर्ट बताती है कि साल 2012 से 2016 के बीच दर्ज किए गए बलात्कार के 85 प्रतिशत मामले लंबित रह गए। इसके अतिरिक्त, साल 2016 के अंत तक सुनवाई के लिए लंबित मामलों का बैकलॉग 133,000 था। भारतीय बाल संरक्षण कोष के किए गए एक नए शोध के अनुसार यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉस्को) अधिनियम, 2012 के तहत 2.43 लाख से अधिक मामले अभी भी अकेले पश्चिम बंगाल में 48,600 बलात्कार और पॉस्को अधिनियम के मामलों के साथ लंबित हैं।
क्या महज कानून बनाना काफी है
सामान्य तौर पर, महिलाओं के खिलाफ अपराध के लिए सजा की दर दहेज की मांग, हमले, अपहरण के साथ-साथ बलात्कार के कारण होने वाली मौतें – अधिकांश अन्य अपराधों की तुलना में कम हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे कहते हैं कि सरकार सौ कानून बना सकती है और फिर भी यह विफल हो जाएंगे क्योंकि कोई प्रवर्तन नहीं है। इसे एक महामारी के रूप में लेने और पुलिस मशीनरी, अभियोजकों और न्यायिक प्रणाली में पूरी तरह से बदलाव करके इसके अनुसार इसे ठीक करने की आवश्यकता है। यहां तक कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) द्वारा इस साल जुलाई में आपराधिक प्रक्रिया संहिता को प्रतिस्थापित करने वाले संशोधनों के बावजूद जहां आपराधिक मुकदमे के फैसले अधिकतम 45 दिनों के भीतर दिए जाने की आवश्यकता होती है, इन लंबित मामलों को निपटाने में सालों लगेंगे। 2022 के एनसीआरबी आंकड़ों के अनुसार, बलात्कार के 198,285 मामलों में से केवल 5,067 मामलों में सजा हुई। ब्रिटेन और कनाडा जैसे देशों में बलात्कार के लिए सजा की दर भारत की 2.55 प्रतिशत से अधिक है।
सबूतों की कमी और पुलिस द्वारा गलत व्यवहार
2012 में तमिलनाडु के चेंगलपट्टू जिले में हुए बलात्कार और हत्या के एक मामले में, मामले के चार आरोपियों को पुलिस जांच में खामियों के कारण बरी कर दिया गया था। ये भी पता चला कि पुलिस ने सबूतों की गलत पहचान की थी। इसके चलते अभियोजन पक्ष ने आरोपियों को संदेह का लाभ देने का तर्क दिया, जिसके कारण उन्हें बरी कर दिया गया। आर.जी. कर अस्पताल के मामले की ओर से पेश होने के दौरान सबूतों को संभालने के संबंध में पुलिस भ्रष्टाचार का भी खुलासा हुआ। इसी तरह का हाल आरुषि तलवार हत्याकांड मामले में हुआ था। पुलिस समय पर सबूतों को जुटाने में विफल हो गयी थी। आरुषि मामले में मूल समस्या यह हुई थी कि स्थानीय पुलिस ने ढंग से कोई जांच ही नहीं की थी।
साथ ही पुलिस ने मीडिया में आकर अपना एक वर्डिक्ट सुना दिया कि आरुषि के पिता ने ही हत्या की है, जिस कारण आरुषि तलवार का मामला लंबा खींचा। मुंबई स्थित वकील अंजनी कुमार सिंह इस बारे में कहते हैं कि जब बलात्कार का अपराध गंभीर, क्रूर या जघन्य होता है, तो ऐसे मामलों के शीघ्र तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचने की प्रबल संभावना होती है। चूंकि संघर्ष करने वाला पक्ष या सर्वाइवर पक्ष सतर्क और चुस्त हैं इसलिए पुलिस और अभियोजन पक्ष भी सबसे ज़िम्मेदार तरीके से कार्य करता है। इसके अलावा, ऐसे कई मामलों पर मीडिया का ज़ोरदार ध्यान जाता है और इसके नतीजन भारी सार्वजनिक आक्रोश भी होता है।
देश में सजा का दर कम
बलात्कार के मामलों में सजा दर कम होने का मुख्य कारण कर्मचारियों की कमी, भ्रष्टाचार, और सबूतों का अभाव है। 2012-2016 के दौरान, दर्ज मामलों में से एक तिहाई फाइलें पुलिस के पास लंबित थीं। पुलिस पर प्रभावशाली लोगों के दबाव में मामले दबाने के आरोप भी लगते हैं। महाराष्ट्र के पूर्व पुलिस अधिकारी वप्पाला बालचंद्रन ने बताया कि कैसे स्थानीय राजनेता जांच रोकने के लिए पुलिस तबादलों की धमकी देते हैं। इन समस्याओं का खामियाज़ा सर्वाइवर को भुगतना पड़ता है। एक मामले में, जमानत पर छूटे आरोपी ने फिर से किशोरी का अपहरण कर उसका शोषण किया। विशेषज्ञों का मानना है कि पुलिस को संवेदनशील बनाना और कानून का पालन सुनिश्चित करना आवश्यक है। सहमति से जुड़े मामलों में कठोरता से निपटने से बलात्कार के मामलों में कमी आ सकती है।
कानूनों और नीति का कार्यान्वयन में कमी
देश में कानूनों को और अधिक सख्त बनाने के लिए संशोधन करना व्यर्थ है यदि इसकी व्याख्या मामलों की सुनवाई के दौरान सुरक्षा प्रदान करने में विफल रहती है। हमारे देश की कानूनी प्रक्रिया अपनेआप में काफी लंबी है जो अधिकांश सर्वाइवर को लड़ाई लड़ने से रोकती है और इस प्रकार ज्यादातर मामलों में आरोपी आखिरकार रिहा हो जाते हैं। साथ ही यह प्रक्रिया सर्वाइवर महिला के लिए दर्दनाक है, जिसे ऐसे समाज का सामना करना पड़ता है जो बलात्कार को केवल सर्वाइवर के लिए सामाजिक कलंक मानता है, न कि आरोपी के लिए, जिसके कारण अधिकांश सर्वाइवर इसकी रिपोर्ट करने के बजाय इस बारे में चुप रहते हैं। कानूनी उपायों के बावजूद, भारत ने अपनी महिलाओं को बार-बार विफल किया है।
अदालतों का रूढ़िवादी नजरिया
साल 2017 में जिंदल विश्वविद्यालय बलात्कार मामले में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक महिला की चेस्टिटी (पवित्रता) को अपराध से जोड़ने की पारंपरिक पितृसत्तात्मक धारणा का नेतृत्व किया। मामले पर अदालत की टिप्पणियां सर्वाइवर को शर्मसार करने और स्त्री द्वेष, सर्वाइवर की यौन प्रवृत्ति पर सवाल उठाने और आरोपी को जमानत देने से जुड़ी थीं। ऐसे ही कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अपने एक मामले में टिप्पणी दी थी कि कृत्य के बाद वह थक गई और सो गई थी। यह एक भारतीय महिला के लिए अशोभनीय है; यह तरीका नहीं है। हमारी महिलाएं तब प्रतिक्रिया करती हैं जब उनको तबाह कर दिया जाता है।” बलात्कार के मुकदमों के लिए मेडिकल परीक्षण, रास्ते में आने वाली नौकरशाही और प्रशासन, आरोपियों के बरी होने की दर, सर्वाइवर को कलंकित करने, संवेदनशील दृष्टिकोण की कमी, सुरक्षित बुनियादी ढांचे और मीडिया की गैरजिम्मेदाराना कव्रिज घटनाओं से बेपरवाह कानूनों में लगातार सुधार के तहत अभी भी बहुत सुधार की मांग की जा रही है।