समाजकानून और नीति कैसे हमारी न्यायायिक व्यवस्था महिलाओं को दंडित कर रही है!

कैसे हमारी न्यायायिक व्यवस्था महिलाओं को दंडित कर रही है!

शोध से पता चलता है कि जब कोई पुरुष महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों का ‘प्राथमिक शिकायतकर्ता’ होता है, तो मामला दर्ज होने में लगभग 48 दिन लगते हैं। वहीं जब शिकायतकर्ता खुद एक महिला होती है, तो यह संख्या बढ़कर 170 दिन हो जाते हैं।

सारे कानून और अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग सरकारों के बावजूद, हमारे देश में आज भी महिलाओं के खिलाफ हिंसा में कमी नहीं हुई है। आज भी हाल ये है कि महिलाओं को देर रात अकेले बाहर जाने में मुश्किल होती है। यह आम धारणा है कि कानून सभी के लिए समान है। लेकिन तथ्यों और सामाजिक और कानूनी कारणों को जांचने पर यह समझ आता है कि इसमें लैंगिक समानता की भारी कमी है। क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम और न्यायायिक प्रक्रिया में न सिर्फ यह जांचने की जरूरत है कि महिलाएं किस तरह के अपराध के लिए रिपोर्ट दर्ज कर रही हैं, बल्कि यह भी जानने की कोशिश की जानी चाहिए कि न्याय मिलने में वे कौन सी बाधाएं हैं जिसका वे सामना करती हैं। साथ ही यह भी जरूरी है कि हम यह पता लगाए कि क्या वाकई न्यायायिक व्यवस्था महिलाओं के लिए आसान है।  

लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स और राजनीति विज्ञान ने यह जानने और समझने के लिए एक व्यापक शोध किया जिसमें हरियाणा पुलिस की जनवरी 2015 से नवंबर 2018 तक की फाइलें शामिल की गई। इनमें 4,18,190 मामलों पर अध्ययन किया गया। इन 4,18,190 अपराध रिपोर्टों में से, 2,51,804 या 60.2 फीसद को अदालत की फाइलों में मिला दिया गया। यह एक ऐसा आंकड़ा था जो उन पुलिस फाइलों को सटीक रूप से दिखाता है जो अंत में न्यायपालिका को भेजी गई थीं। इस अध्ययन में महिलाओं के खिलाफ अपराध और महिलाओं के शिकायतों को अलग-अलग श्रेणी में रखा गया। न्याय तक पहुंचने के लिए पुरुषों और महिलाओं के प्रयासों की तुलना करते समय, अलग-अलग पूर्वाग्रह चिंता का कारण बन सकते हैं। जैसे, अपराध की श्रेणियों में चोरी के भीतर, महिलाओं और पुरुषों की तुलना में अलग-अलग उप-प्रकार देखी गई। जहां महिलाओं के लिए बैग-स्नैचिंग की रिपोर्ट का विकल्प है, वहीं पुरुषों के लिए मोटरसाइकिल की चोरी का विकल्प है।

जब कोई पुरुष महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों का ‘प्राथमिक शिकायतकर्ता’ होता है, तो मामला दर्ज होने में लगभग 48 दिन लगते हैं। वहीं जब शिकायतकर्ता खुद एक महिला होती है, तो यह संख्या बढ़कर 170 दिन हो जाते हैं।

महिलाओं और पुरुषों के एफआईआर और अपराध में अंतर

महिलाएं सामाजिक कारणों से अकसर अपराधों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने में ही हिचकिचाती हैं, जो न्याय की प्रक्रिया में पहली सीढ़ी है। इस अध्ययन में पाया गया कि महिलाओं ने 38,828 शिकायतें या कुल एफआईआर का 9 फीसद दर्ज किया। हमारे देश में एक महिला कहां रहती है, कितनी शिक्षित है, परिवार में कितने लोग हैं, घर से पुलिस चौंकी कितना दूर है या उसकी सामाजिक और राजनीतिक स्थिति क्या है, इन कारकों पर भी महिलाओं के शिकायत दर्ज करने की प्रवृत्ति निर्भर करती है। इस अध्ययन के अनुसार जहां पुरुष शिकायतकर्ताओं के लिए, दंड संहिता के अनुसार सभी शिकायतों में सबसे ज्यादा चोरी, लापरवाही से गाड़ी चलाने, चोरी और सार्वजनिक नशा/बूटलेगिंग से संबंधित थे।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

वहीं महिलाओं के लिए, धारा 498-ए या पति/पत्नी (या ससुराल वालों) द्वारा किया गया घरेलू हिंसा/दहेज संबंधी दुर्व्यवहार उनके 15 फीसद पंजीकरणों में मौजूद था। महिलाओं के खिलाफ अन्य हिंसा में दंड संहिता के अंतर्गत अपहरण (मसलन, किसी महिला को ‘शादी’ के लिए मजबूर करने के लिए उसका अपहरण करना), अश्लील कृत्य/गाने, एक महिला के खिलाफ आपराधिक बल, बलात्कार, महिला की विनम्रता का अपमान करना, पीछा करना, निर्वस्त्र करने का इरादा, यौन उत्पीड़न, और अप्राकृतिक सेक्स शामिल था।

महिलाएं सामाजिक कारणों से अकसर अपराधों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने में ही हिचकिचाती हैं, जो न्याय की प्रक्रिया में पहली सीढ़ी है। इस अध्ययन में पाया गया कि महिलाओं ने 38,828 शिकायतें या कुल एफआईआर का 9 फीसद दर्ज किया।

जेंडर के वजह से सहना पड़ता है भेदभाव   

आंकड़ों से पता चलता है कि अपराध किसी पुलिस  स्टेशन से औसतन 5.5 किलोमीटर दूर होता है। वहीं शिकायतकर्ता द्वारा पहचाने जाने पर, मामलों में दो संदिग्ध होने की संभावना होती है। महिलाओं द्वारा दर्ज किए गए अपराधों और महिलाओं के खिलाफ हिंसा (वीएडब्ल्यू) में एक या एक से ज्यादा महिला संदिग्ध होने की संभावना अधिक होती है। जैसे, दहेज के मामले में सास भी शामिल हो सकती है।

यह अध्ययन बताता है कि हालांकि अधिकारी हमेशा पीड़िता की उम्र दर्ज नहीं करते हैं। लेकिन नॉन मिसिंग डेटा से पता चलता है कि शिकायतकर्ता औसतन 30 वर्ष के होते हैं। वीएडब्ल्यू में अधिक दंड संहिता (धाराओं की संख्या) होने की संभावना है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा के सर्वाइवरों को, पंजीकरण की आशा में पुलिस स्टेशन पर लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता है। महिलाओं के मामले कभी-कभी नीचे पद के अधिकारियों को; जैसे कांस्टेबलों को भी सौंपा जाता है।

‘महिला पुलिस स्टेशनों’ के तेजी से विस्तार से होने वाले प्रभाव पर एक अध्ययन किया गया। इसके अनुसार यह पाया गया कि महिला पुलिस स्टेशनों के खुलने से, महिलाओं के खिलाफ रिपोर्ट किए गए अपराध में 22 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

महिलाओं की शिकायत में कितना अहम है महिला थाना

सरकार के नियमों के अनुसार हर पुलिस स्टेशन पर 3 महिला सब- इंस्पेक्टर और 10 महिला कांस्टेबल होनी चाहिए ताकि वुमन हेल्प डेस्क 24 घंटे सुचारु रूप से चलता रहे। लेकिन आंकड़ों के मुताबिक भारत के पुलिस बल में 12 फीसद से भी कम महिलाएं हैं। राजस्थान के पुलिस स्टेशनों के मासिक शिकायत डेटा का उपयोग करके एक विश्लेषण किया गया। इनमें साल 2006 और 2007 में राजस्थान के दस जिलों के 152 पुलिस स्टेशनों से पुलिस रिपोर्ट इकट्टा की गई। इस अध्ययन में ‘महिला पुलिस स्टेशनों’ के तेजी से विस्तार से होने वाले प्रभाव को शामिल किया गया। इसके अनुसार यह पाया गया कि महिला पुलिस स्टेशनों के खुलने से, महिलाओं के खिलाफ रिपोर्ट किए गए अपराध में 22 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह महिला अपहरण और घरेलू हिंसा की रिपोर्टों में वृद्धि के कारण देखा गया।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

यहां यह भी पाया गया कि सर्वाइवर सामान्य पुलिस स्टेशनों में अपराधों की रिपोर्ट से दूर रहे और प्रभावित क्षेत्रों में सहायता सेवाओं का सेल्फ रिपॉर्टड इस्तेमाल बढ़ गया। इनमें यह पता लगाने की कोशिश की गई कि अपराध की रिपोर्ट किए गए थाने के प्रकार यानि सामान्य या महिला पुलिस स्टेशन के आधार पर क्या अंतर हो रहा है। यह पाया गया कि औसतन, एक पुलिस स्टेशन प्रति माह 17 एफआईआर दर्ज करता है, जिनमें से 1.4 जेन्डर बेस्ड वायलेंस (जीबीवी) के लिए हैं। वहीं, शहरी पुलिस स्टेशन में औसतन ग्रामीण इलाकों में 1 केस की तुलना में, 2 जीबीवी एफआईआर दर्ज हुए। महिला थाना में मासिक औसतन 8.87 एफआईआर और गैर-महिला थाना में 1.1 केस दर्ज हुए।

लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स और राजनीति विज्ञान के शोध अनुसार घटना और पंजीकरण के बीच महिलाओं के मामलों में, पुरुषों की तुलना में औसतन एक महीने से अधिक का अंतराल होता है। वहीं ऐसे मामले जो अंत तक अदालत तक पहुंचते हैं, उनमें महिलाओं का महज 5 प्रतिशत है जबकि पुरुष शिकायतकर्ता के मामलों के लिए यह 17.9 फीसद है।

अपराध के बाद उसकी शिकायत दर्ज करने में लगता समय  

आम तौर पर कोई भी व्यक्ति अपराध के तुरंत बाद ही अपनी शिकायत दर्ज करता या करवाना चाहता है। लेकिन कई बार महिलाओं के खिलाफ हिंसा में यह संभव नहीं होता। घटना के बाद महिलाएं शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक रूप में पीड़ित हो सकती हैं। ऐसे में उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह निश्चित समय के भीतर ही शिकायत दर्ज करने में समर्थ होंगी। बलात्कार जैसे मामलों में यह महत्वपूर्ण जरूर बन जाता है। लेकिन, यह जिम्मेदारी महज महिलाओं की नहीं है। इसमें परिवार, समाज और सिस्टम उतना ही जिम्मेदार है। लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स और राजनीति विज्ञान के शोध अनुसार घटना और पंजीकरण के बीच महिलाओं के मामलों में, पुरुषों की तुलना में औसतन एक महीने से अधिक का अंतराल होता है, जो अपराध की घटना और जब राज्य मामले का संज्ञान लेता है, के बीच महत्वपूर्ण देरी बताता है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

यह शोध बताती है कि हो सकता है कि कोई शिकायतकर्ता मामला दर्ज कराने के लिए थाने गई हो। लेकिन उसे मामला वापस लेने के लिए कहा गया हो, या उसे बाद की तारीख में लौटने के लिए मजबूर किया गया हो सकता है। वहीं ऐसे मामले जो अंत तक अदालत तक पहुंचते हैं, उनमें महिलाओं का महज 5 प्रतिशत है जबकि पुरुष शिकायतकर्ता के मामलों के लिए यह 17.9 फीसद है। शोध से पता चलता है कि जब कोई पुरुष महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों का ‘प्राथमिक शिकायतकर्ता’ होता है, तो मामला दर्ज होने में लगभग 48 दिन लगते हैं। वहीं जब शिकायतकर्ता खुद एक महिला होती है, तो यह संख्या बढ़कर 170 दिन हो जाते हैं। हालांकि, पंजीकरण के बाद ऐसे मामलों में जांच में कोई महत्वपूर्ण देरी नहीं हुई। लेकिन कानून के नजर में सबसे अहम और पहला जरूरी काम एफआईआर दर्ज कराना ही है। गैर-वीएडब्ल्यू के लिए भी, अपराध घटित होने और पुलिस अधिकारियों द्वारा मामले की जांच शुरू करने के दिनों की संख्या, पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए लगभग एक सप्ताह अधिक है।  

यह बहुस्तरीय भेदभाव सिर्फ पुलिस स्टेशन तक सीमित नहीं है। यह न्यायायिक प्रक्रिया के हर चरण में दिखाई देता है। अदालतों में पुरुषों के दायर मामले औसतन 346 दिनों तक चलते हैं। वहीं महिलाओं के दायर मामले 392 दिनों तक चलते हैं।

कोर्ट पहुंचने के बाद क्या महिलाओं को मिलता है न्याय

यह बहुस्तरीय भेदभाव सिर्फ पुलिस स्टेशन तक सीमित नहीं है। यह न्यायायिक प्रक्रिया के हर चरण में दिखाई देता है। अदालतों में पुरुषों के दायर मामले औसतन 346 दिनों तक चलते हैं। वहीं महिलाओं के दायर मामले 392 दिनों तक चलते हैं। इसके अलावा, पुरुषों के दर्ज किए गए ‘महिलाओं के खिलाफ हिंसा’ के मामलों में महिलाओं के दर्ज किए गए मामलों की तुलना में सजा की दर अधिक होती है। हालांकि यह सुझाव दिया जाता है कि महिलाओं को उनके कानूनी अधिकारों की जानकारी होने और उन्हें अपराधों की रिपोर्ट करने से न्याय तक पहुंच को सुनिश्चित किया जा सकता है।

लेकिन असल में केवल महिलाओं को कानूनी ज्ञान देने से और उन्हें अपराधों की रिपोर्ट करने के लिए प्रोत्साहित करने से, अपनेआप न्याय की गारंटी नहीं होती। महिलाओं को न्याय की प्रक्रिया में अनेकों स्तर पर लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इसमें पुलिस चौंकी में शिकायत से लेकर, उनकी जागरूकता, परिवार वालों का साथ, महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थिति, पुलिस का व्यवहार और अदालती कार्यवाही तक शामिल है। महिलाओं के लिए न्याय का मुद्दा सिर्फ न्याय का ही नहीं, महिला सशक्तिकरण और उनके स्वायत्तता और एजेंसी से जुड़ा हुआ है।

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