जब भी मैं खुश होती हूं या मुझे अपना मूड बेहतर करना होता है तो मैं डांस का सहारा लेती हूं। बचपन से ही मैंने डांस को अपनी खुशी का ज़रिया बनाया है। जब मैं तीसरी कक्षा में थी तब से मैंने स्कूल में डांस कार्यक्रमों में भाग लेना शुरू कर दिया था। डांस के सभी शो जो टीवी पर प्रसारित होते थे उन सभी को मैं बहुत गंभीरता से देखकर कलाकारों के स्टेप्स कॉपी करके सीखने का प्रयास करती थी। जब भी मुझे मौका मिलता मैं गानों का चैनल लगाकर उसमें स्टेप्स को फॉलो करती रहती। ऐसा नहीं है कि मेरी कला सबसे अच्छी है मुझे पता है कि बहुत प्रयास करने की आवश्यकता हैं, लेकिन फिर भी मुझे इसे करने में एक अपार खुशी की अनुभूति होती है।
नृत्य के प्रति मेरा प्यार और छोटी-छोटी उपलब्धियां
मैं जब तीसरी कक्षा में थी तब मेरे स्कूल में 15 अगस्त के कार्यक्रम में मैंने पहली बार ग्रुप डांस प्रोग्राम में हिस्सा लिया था। इस प्रदर्शन के लिए पूरे ग्रुप को वार्षिक महोत्सव के दौरान पेंसिल किट मिली थी। मुझे आज भी याद है कि उसे पाने के बाद मैं हर किसी को वो किट ऐसे दिखा रही थी कि पता नहीं मुझे क्या ही मिल गया हो। इसके बाद कक्षा चार में नवरात्रि के लिए गरबा प्रोग्राम करवाए गए थे। उस समय स्कूल में चार हाउस होते थे। मैं ब्लू हाउस में थी तो मुझे नीली साड़ी चाहिए थी, जो कि मेरी मम्मी के पास नहीं थी। मुझे डर लग रहा था कि कही मैंने जो इतनी तैयारी की वो बेकार न चली जाए। मम्मी ने अपनी दोस्त से साड़ी मांगी तब जाकर मैंने प्रोग्राम में हिस्सा लिया।
स्कूल के अलावा हमारी कॉलोनी में भी नवरात्रि का कार्यक्रम होता था। मैंने दो साल उसमें हिस्सा लिया। उसमें मैंने ग्रुप के साथ और एकल प्रदर्शन भी किया। नौंवे दिन सारी टीमों में से एक को चुन उसे इनाम दिया जाता था। मेरी टीम को एक बार इनाम मिला था जिसमें सभी लड़कियों को टिफिन दिए गए थे। इसके बाद फिर हम मध्यप्रदेश से राजस्थान के अलवर आ गए थे। वहां स्कूल में साल में एक बार ही कोई कार्यक्रम होता था। जिसमें मैंने फिर से ग्रुप डांस में हिस्सा लिया। वहां हम सिर्फ एक साल ही रहे थे।
बाद में शहर से गाँव आने के बाद अब मैंने जहां सातवीं से बाहरवीं तक की पढ़ाई की वहां स्कूल में कोई प्रोग्राम नहीं होता था। जिसका मुझे दुख होता था क्योंकि अभी तो बस वहीं तो एक जरिया था जिससे मैं कला का प्रदर्शन करती थी। स्कूल में तो नहीं लेकिन घर पर तो मेरा गाने चलाकर स्टेप्स कॉपी करना चलता ही रहता है। तीन साल बाद स्कूल में विदाई पार्टी हुई और मैं फेयरवेल पार्टी में ग्रुप को लीड किया। मेरी खुशी उस समय एक अलग स्तर पर थी क्योंकि मुझे ये पहली बार मौका मिला था कि मैं स्टेज पर सबसे आगे खड़ी होकर डांस कर रही थी।
सबसे आगे खड़े होकर डांस करना मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि रही है। मेरे लिए ये बहुत बड़ी बात थी। मैंने उस प्रदर्शन के लिए बहुत ज्यादा मेहनत की थी। पूरे दिन बस डांस स्टेप्स याद कर उनको बेहतर बनाने में लगी रहती थी। अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोड़ना चाहती थी। मैं घर आकर अपनी दीदी, अपनी मम्मी को बैठाकर अपनी डांस की तैयारी दिखाती। उन दस दिनों का मेरा बस ये ही काम था जिससे घरवाले भी परेशान हो गए थे। पार्टी में सभी अध्यापकों ने मेरे डांस की बहुत सराहना की। सभी ने मेरे हाथों के मूवमेंट की खासकर तारीफ़ की।
डांस हमेशा से मेरी खुशी का कारण रहा है। इसके अलावा पढ़ाई में तो मैं एक एवरेज स्टूडेंट रही हूं। माता-पिता ने मुझ पर पढ़ाई के लिए कभी दबाव नहीं डाला। पापा तो मेरे लिए जब मैं चौथी क्लास में थी तब खुद लहंगा लाए थे ताकि मैं नवरात्रि के कार्यक्रम में भाग ले सकूं। मेरे डांस के प्रति ज़ज्बे को देख आस-पड़ोस के लोग कहते थे कि इसे डांस स्कूल में भेज दो ताकि ये और बेहतर सीख सकें। माता-पिता भी एक बार सोचते लेकिन फिर ज्यादा गौर नहीं करते थे। मुझे हर बार मेरी कला प्रदर्शन पर इनाम नहीं मिला लेकिन फिर भी हतोत्साहित नहीं होती थी। मेरी छोटी-छोटी उपलब्धियों से में खुश होती हूं और जब भी कोई सफलता मिलती है तो मैं इसी कला का सहारा लेकर जश्न मनाती हूं।
नारीवादी सोच से आत्मनिर्भरता और अब कला को है निखारना
डांस हमेशा मेरी जिंदगी का वो हिस्सा रहा है जिसे मैंने अपनी खुशी के तौर पर महसूस किया है। तमाम तनावों में डांस मेरी ताकत बना रहा है। मैंने बचपन से ही भेदभाव वाला माहौल देखा है। मैं अपने घर की दूसरी बेटी थी। मुझे ना जाने कितनी बार बताया गया कि तू जब पैदा हुई थी तो सब रोए थे, सब बहुत दुखी थे। मेरे बाद जब मेरा भाई हुआ तो उसके चारों ओर सबकी दुनिया घूमने लगी। घर में लैंगिक भेदभाव का माहौल देखकर खुद ही असमानता का कारण समझ आने लगा। जैसे-जैसे समझ आती गई मैंने अपने घर में देखा की मेरी माँ के हिस्से सिर्फ घर के काम, बच्चों को तैयार करना, घरेलू हिंसा है। वहीं मेरे पिता के हिस्से नौकरी करना, ऑर्डर देना, घरेलू व भावनात्मक हिंसा करना था। ऑफिस से घर आकर माँ पर काम का गुस्सा उतारना, उनका अपमान करना था। जिस औरत ने आपके परिवार को संभाला उसे यह अहसास दिलाना बहुत निंदनीय है।
हमेशा मेरी नानी, मामी, ताई और अन्य महिला रिश्तेदारों का मुझे सिखाना कि तुम लड़की हो तो आराम से हंसो, सलवार-कमीज पहनो, घर का सारा काम सीखो क्योंकि आगे जाकर ये तुम्हारे काम आएगा। मेरे भाई कि हिस्से आजादी थी। इस सब बातों से मेरे अंदर समानता और नारीवादी सोच ने अपने-आप ही जन्म लिया था। मेरी अक्सर इस बात पर माँ से लड़ाई हो जाती कि मुझे अगर खाना बनाना सिखा रही हो तो भाई को भी सिखाओ। जब मैं खाना खाने आती तो कहती कि तुम छोटी प्लेट में खाना ले लो, तेरा भाई थाली में खालेगा। मैं तुरंत लड़ना शुरू कर देती कि वो भी तो छोटी में खा सकता है। समानता के अधिकार की विचारधारा ने मेरे अंदर तब जन्म लिया था जब मुझे इसका मतलब भी नहीं पता था। इन बातों को सुनकर और देखकर बहुत गुस्सा आता था। इसी सोच की वजह से शायद मैं आज आत्मनिर्भर बन पाई हूं। इसमें मुझे परिवार का सहयोग भी मिला है। मुझे अपने पसंदीदा विषय चुनने की पूरी आजादी थी।
गांवों में सरकारी नौकरी को ज्यादा अहमियत दी जाती है। लेकिन मुझे सबसे अलग कुछ करना था। इसीलिए मैंने जनसंचार और पत्रकारिता का चयन किया। मैंने रोहतक (हरियाणा) से जनसंचार और पत्रकारिता में पोस्ट ग्रेजुएट की है। वर्तमान में मैं एक प्रकाशन संस्थान के साथ कार्य कर रही हूं। मुझमें आत्मविश्वास की कमी हमेशा से रही है। मेरी कला प्रदर्शन के अलावा में स्टेज पर जाकर एक शब्द नहीं बोल पाती थी। लेकिन अब मुझे स्वयं में हर दिन एक अलग-सा बदलाव महसूस हो रहा है। पहले वाली दब्बू लड़की अब निडर बनती जा रही है। अपनी शर्तों पर जीने के रास्ते पर मैं रोज थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ रही हूं। कभी-कभी सोचती हूँ कि मुझे मेरी कला के ऊपर काम कर इसे प्रोफेशन नहीं बनाया। लेकिन अब जब मैं स्वयं के लिए सब कुछ कर रही हूं तो मेरी खुशी का जरिया जो कि डांस है उसे ज़रूर निखारना चाहूंगी।
नोटः लेख में शामिल सारी तस्वीरें मंजू ने उपलब्ध कराई है।
Very inspirational journey , go ahead . All or your dreams come true soon.