इंटरसेक्शनलजेंडर कैसे पितृसत्ता तय करती है नाच का पेशा किनके लिए है ‘सम्मानजनक’

कैसे पितृसत्ता तय करती है नाच का पेशा किनके लिए है ‘सम्मानजनक’

अब विडंबना यह है हमारे समाज में ‘इज़्ज़त’ जितनी कमाई नहीं जाती, उससे ज़्यादा ‘विरासत’ में पाई जाती है जाति, वर्ग, जेंडर आदि के आधार पर। इसके फ़ायदे भी हैं, और उतने ही नुक़सान भी। फ़ायदा ये, कि जब आप धनी, उच्च वर्ग या तथाकथित उच्च जाति में पैदा होते हैं तो आपके पास ‘सम्मानीय नृत्य’ सीखने के अवसर होते हैं।

आइए, साथ मिलकर याद करते हैं कि हमने पहली बार ‘नचनिया’ शब्द कब, कहां, किसके द्वारा और किसके लिए इस्तेमाल होते हुए देखा था। मैं गौर करूं तो याद आता है कि तब मैं काफ़ी छोटी थी, जब रोड पर चलती किसी औरत के चेहरे का मेकअप और कपड़ों को देखकर किसी ने कहा था, “कैसी नचनिया की तरह तैयार होकर घूम रही है!” उस महिला का मेकअप गहरा था और कपड़े छोटे। मुझे लगा कि शायद इस शब्द का लेना-देना पहनावे और गहरे मेकअप से होगा।

थोड़ी बड़ी हुई, तो पता चला कि शायद ‘नचनिया’ शब्द तो उनके लिए बना है जो पेशेवर तरीके से नाचते हैं। फिर धीरे-धीरे इसमें और भी अर्थ जुड़े। मालूम पड़ा कि नचनिया केवल औरतें या ट्रांस-व्यक्ति ही हो सकते हैं। पुरुष यदि जीविका कमाने के लिए नाचे, तो हिन्दी में उनके लिए ऐसा कोई शब्द नहीं है। गौरतलब है कि इस शब्द से कई और बातें भी जुड़ी थी, जैसे, किसी औपचारिक पद के अभाव में, जब रोज़गार के लिए नाचने वालों को ‘नाचने-वाला’ या ‘नाचने-वाली’ कहा जाता है, तो इन पदों के भीतर छिपे लोगों को समाज की तरफ़ से अलग-अलग माप में सम्मान, वैद्यता और मंज़ूरी मिलती है।यह सम्मान, वैद्यता और मंज़ूरी, व्यक्ति के जेंडर के अलावा उसकी दूसरी सामाजिक पहचान, जैसे वर्ग, जाति पर भी निर्भर करती है। इस पूरी गैरबराबरी की कहानी में एक मुख्य किस्सा पेशों की असमानता का भी है।

लेकिन जहां इस सामाजिक समस्या की जानकारी अपेक्षाकृत फिर भी ज़्यादा लोगों को है, ऊपर कही गईं बातों पर सोचने की हमें ज़रूरत है। इस आर्टिकल के ज़रिये हम जानेंहे कि ‘नचनिया’ अगर एक पेशा है, तो इसका इस्तेमाल समाज के एक खास श्रेणी के व्यक्तियों के लिए किसी ‘गाली’ की तरह क्यों किया जाता है? इस पेशे से जुड़े लोगों को क्या इस शब्द को अपने-आप से जोड़ने में कोई शर्म महसूस होती है? अगर होती है, तो क्यों? नचनिया होने में शर्म कैसी? यह लेख जेंडर, जाति, वर्ग, धर्म, पेशा, यौनिकता और अन्य पहचानों और नचनिया शब्द के बीच के जुड़ाव को गैरबराबरी के संदर्भ में महसूस करने की एक कोशिश है। नाचना-गाना प्राचीन समय से मनोरंजन के स्रोत माने जाते हैं। नाच और गाने दोंनो की ही अलग-अलग विधाएं होती हैं। मनोरंजन सभी विधाओं से होता है, बस उद्देश्य और इच्छा अनुसार हम उनकी श्रेणी बदल लेते हैं।

अगर आपका नाच धार्मिक-सांस्कृतिक-देशभक्ति की जड़ों से उपजे तो उसकी गिनती अचानक ‘कला’ की श्रेणी में होने लग जाती है। लोग उसे कामुकता की ठीक विपरीत निगाहों से देखने लग जाते हैं। वह ‘नाच’ ‘नृत्य’ में बदल जाता है। ठीक वैसे ही, अगर आप नृत्यकला में ‘गुरु’ का स्थान हासिल कर लें या आपकी कला पितृसत्तात्मक परिभाषा के अनुसार सम्मानजनक आर्थिक प्रतिफल लाने में कामयाब हो जाए, तो फिर उसकी गणना ‘कामयाबी’ में होने लगती है।

इनमें से कुछ श्रेणियों का संबंध यौन प्रलोभन या काम रस से होता है, ठीक वैसे ही जैसे औरों का रौद्र, वीर, या शृंगार रस से होता है। लेकिन फिर भी अभद्रता या अश्लीलता के भाव केवल कामुक श्रेणी के नाच-गानों से ही जोड़े जाते हैं। उनसे भी ज़्यादा उन्हें गाने या नाचने वालों से। हमारा पितृसत्तात्मक समाज लोगों का, ख़ासतौर पर औरतों का ‘कामुकीकारण’ करने में हमारा समाज अकालीन समय से माहिर है। इस अश्लीलता का प्रभाव इतना तीव्र है और इसे जोड़े जाने का भय इतना अधिक, कि न सिर्फ़ इस ख़ास श्रेणी के गाने या नाच, बल्कि किसी भी प्रकार के नाच-गानों में रुचि रखने से, उन्हें अपना पेशा बनाने या अपने लोगों का बनने देने से हम डरने लगे। गायकी या नृत्य के अनिश्चित, संदिग्ध और परिवर्तनशील आर्थिक भविष्य के अलावा, इसके पीछे हमारा सबसा बड़ा डर शायद यही है – इस पेशे से जुड़े लोगों के शरीर का कामुकीकारण।

किसी भी काम को पेशा हम पैसों और आजीविका के लिए ही बनाते हैं। काम जब अपनी पसंद का हो, तो उससे पैसे कमाने में और भी आनंद आता है। लेकिन क्या सभी नाचने वाले अपनी पसंद/ मर्ज़ी से नाच रहे हैं? क्या उन सभी को जिन्हें नाचना पसंद है, नाचने की इजाज़त है? नाचने को अपना पेशा बनाने की छूट है? शायद नहीं है। टीवी या फ़िल्मों में हमने अक्सर देखा है कैसे नाच के पेशे और सेक्सवर्क के बीच की रेखा धुंधली कर दी जाती है। हम मान लेते हैं कि यदि कोई महिला अपनी आजीविका कमाने के लिए नाच रही है, तो पैसों के लिए ‘कुछ भी’ करने में उसकी पूरी सहमति शामिल होगी। ख़ैर सहमति-असमति की समझ एक अलग समस्या है, लेकिन हमें यक़ीन पूरा होता है कि हर ‘नचनिया/नाचने वाली’ सेक्सवर्क ही होती है। जिन पेशेवरों की यह हक़ीक़त है भी तो भी इससे उन्हें अलग नज़रिये से देखे जाने का अधिकार समाज को किसने दिया? पेशा चाहे जो भी हो, मैला कैसे हो सकता है? कौन सा पेशा मैला, कौन सा पवित्र, इसका निश्चय कौन करता है? 

ऊंचे वर्ग के पुरुषों के लिए कहानी अलग मायनों से मुश्किल होती है क्योंकि उनके लिए ऐसे ख़याल भी पालना समाज उनकी ‘मर्दानगी’ और जातिगत अंह के विरुद्ध मानता है। ‘नाचना’ आख़िरकार महिलाओं का ‘काम’ है। हाशिये के वर्ग और जाति की महिलाओं और ट्रांस व्यक्तियों का।

गौर करने योग्य यह भी है की समाज में सबका नाचना इतना बुरा और घातक नहीं माना जाता है, जितना कि ‘नचनियों’ का। जैसे, अगर आपका नाच धार्मिक-सांस्कृतिक-देशभक्ति की जड़ों से उपजे तो उसकी गिनती अचानक ‘कला’ की श्रेणी में होने लग जाती है। लोग उसे कामुकता की ठीक विपरीत निगाहों से देखने लग जाते हैं। वह ‘नाच’ ‘नृत्य’ में बदल जाता है। ठीक वैसे ही, अगर आप नृत्यकला में ‘गुरु’ का स्थान हासिल कर लें या आपकी कला पितृसत्तात्मक परिभाषा के अनुसार सम्मानजनक आर्थिक प्रतिफल लाने में कामयाब हो जाए, तो फिर उसकी गणना ‘कामयाबी’ में होने लगती है।

किनका नाचना सम्माननीय है? 

अब विडंबना यह है हमारे समाज में ‘इज़्ज़त’ जितनी कमाई नहीं जाती, उससे ज़्यादा ‘विरासत’ में पाई जाती है जाति, वर्ग, जेंडर आदि के आधार पर। इसके फ़ायदे भी हैं, और उतने ही नुक़सान भी। फ़ायदा ये, कि जब आप धनी, उच्च वर्ग या तथाकथित उच्च जाति में पैदा होते हैं तो आपके पास ‘सम्मानीय नृत्य’ सीखने के अवसर होते हैं। फिर सम्मान और धन जब पहले से ही किसी के पास हो, तो समाज में उनके दबाए जाने की संभावना वैसेही कम हो जाती है। नुक़सान यह कि अगर सम्मान के साथ आप जन्मे हो, तो उसे ‘डुबाने वाले’ पेशों को चुनने की इच्छा रखना अपने आप में एक बग़ावत है। ख़ासतौर पर अगर आप एक स्त्री हैं।

ऊंचे वर्ग के पुरुषों के लिए कहानी अलग मायनों से मुश्किल होती है क्योंकि उनके लिए ऐसे ख़याल भी पालना समाज उनकी ‘मर्दानगी’ और जातिगत अंह के विरुद्ध मानता है। ‘नाचना’ आख़िरकार महिलाओं का ‘काम’ है। हाशिये के वर्ग और जाति की महिलाओं और ट्रांस व्यक्तियों का। वह पेशा, जिसकी चुनाव करने तक की छूट उन्हें नहीं। ‘नचनिया’ शब्द के सभी आशय फिर शायद इसलिए ऐसे हैं। काश कि इस समस्या का कोई निष्कर्ष या कोई समाधान हो सकता। समाधान नामुमकिन हरगिज़ नहीं है, केवल कठिन है। वर्षों की हमारी कंडीशनिंग, पितृसत्तात्मक समाज की अवधारणाओं  और हमारे मर्यादाओं की संकीर्णता इसे और जटिल बनाती है।


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