इंटरसेक्शनलयौनिकता बॉलीवुड में महिलाओं की यौनिकता और इच्छाओं का सफर

बॉलीवुड में महिलाओं की यौनिकता और इच्छाओं का सफर

साल 1990 के बाद, आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के प्रभाव ने भारतीय समाज में आधुनिकता के तत्व जोड़े। इसका असर सिनेमा पर भी पड़ा। इस समय, महिला यौनिकता और उनकी इच्छाओं को स्वतंत्र रूप से व्यक्त किया जाने लगा।

सदियों से सिनेमा लोगों से बातचीत का एक मजबूत माध्यम रहा है। सिनेमा न सिर्फ सामाजिक बदलाव लाने में सक्षम है बल्कि उन मुद्दों पर बातचीत की शुरुआत कर सकता है जो एक टैबू है। एक ऐसा ही विषय यौनिकता है, जो आज भी हमारे समाज में टैबू है। भारतीय सिनेमा का इतिहास महिलाओं की यौनिकता और इच्छाओं को दिखाने में बहुत ही विविध और जटिल रहा है। जहां एक ओर बॉलीवुड की शुरुआती फिल्मों में महिलाओं को शारीरिक रूप से ‘निष्कलंक और आदर्श’ रूप में पेश किया गया, वहीं आधुनिक सिनेमा ने महिलाओं की इच्छाओं और यौनिकता को स्वतंत्रता और साहस के साथ दिखाने के प्रयास किया है।

सामाजिक संरचना, सांस्कृतिक मान्यताओं और सेंसरशिप के प्रभाव में, महिलाओं की यौनिकता का चित्रण समय के साथ विकसित हुआ है। सेक्शुअल लिबेरेशन 1960 के दशक में एक सामाजिक आंदोलन से शुरू हुई जिसने पूरे अमेरिका में यौनिकता और यौन संबंधों से संबंधित व्यवहार के मानदंडों को चुनौती दी। यह आंदोलन ‘यौन जरूरतों’ को स्वतंत्र रूप से पूरा करने के साथ आने वाले अपराधबोध या निर्णय को दूर करने के लिए बनाया गया था। यह कानूनी रूप से किसी के साथ, जब आप चाहें और जिस तरह से चाहें, बिना किसी सामाजिक, राजनीतिक, चिकित्सकीय या सांस्कृतिक उत्पीड़न के जीने और प्यार करने का हक देता है।

1930 और 1940 के दशकों में भारतीय सिनेमा में महिला पात्रों को अक्सर ‘मासूम, पारिवारिक और निष्कलंक’ दिखाया जाता था। फिल्मों में महिलाओं का मुख्य उद्देश्य पारंपरिक घरेलू भूमिका निभाना होता था, और उनकी शारीरिक इच्छाओं का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं था।

यह इस विश्वास से आता है कि इंसानों की यौनिकता को निर्धारित नहीं किया जा सकता और न ही कानून बनाया जा सकता है। यह बिल्कुल स्वाभाविक और मौलिक अनुभूति है। अक्सर सामाजिक रीति-रिवाजों, मानदंडों और परंपराओं के बोझ तले हमारी यौनिकता दब जाती है। असल में सेक्शुअल स्वतंत्रता पर ध्यान देने और मान्यता देने की जरूरत है। जब हम सेक्शुअल फ्रीडम को अपनाते हैं, तो हम किसी भी व्यक्ति के मानवाधिकारों को दर्जा देते हैं । तभी हम असल में हर व्यक्ति के अनूठे व्यक्तित्व को स्वीकार कर सकते हैं, उसकी रक्षा कर सकते हैं और उसे सहज रूप से स्वीकार कर सकते हैं।

महिला यौनिकता के चित्रण में रूढ़िवादी दृष्टिकोण

भारतीय सिनेमा हमेशा से समाज का प्रतिबिंब रहा है। इसने महिलाओं की यौनिकता के चित्रण में लंबे समय तक सतही या रूढ़िवादी दृष्टिकोण अपनाया है। हालांकि पिछले कुछ दशकों में बॉलीवुड ने महिलाओं की यौनिकता को नए और विविध दृष्टिकोणों से दिखाने की कोशिश जरूर की है। 1930 और 1940 के दशकों में भारतीय सिनेमा में महिला पात्रों को अक्सर ‘मासूम, पारिवारिक और निष्कलंक’ दिखाया जाता था। फिल्मों में महिलाओं का मुख्य उद्देश्य पारंपरिक घरेलू भूमिका निभाना होता था, और उनकी शारीरिक इच्छाओं का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं था। इस दौर में महिलाओं की यौनिकता और इच्छाओं को बहुत ही सीमित और पारंपरिक रूप से दिखाया गया।

तस्वीर साभार: The Hindu

महिला पात्रों को आमतौर पर त्याग, बलिदान, और शुद्धता के प्रतीक के रूप में दिखाया जाता था। जैसे, ‘आवारा’ (1951) और ‘मदर इंडिया’ (1957) जैसी फिल्मों में नायिकाएं आदर्श भारतीय स्त्री के रूप में उभरीं। उनकी इच्छाओं और यौनिकता पर समाज के मानकों का प्रभुत्व था। इस दौर में महिला पात्रों का आत्मनिर्णय लगभग नहीं था। महिलाओं की यौनिकता के इर्द-गिर्द बॉलीवुड की लोकप्रिय कहानियां अक्सर पुरुषों के नजरिए से या आदर्श रूप में महिलाओं की यौनिकता कैसी होनी चाहिए; इस बारे में थी, जो पुरुषों के समस्याजनक दृष्टिकोण पर भी सवाल खड़े करते हैं। सिनेमा में लिखे गए पात्र अमूमन हमारे पितृसत्तात्मक मूल्यों को ध्यान में रखकर बनाए गए थे।

महिलाओं की यौनिकता के इर्द-गिर्द बॉलीवुड की लोकप्रिय कहानियां अक्सर पुरुषों के नजरिए से या आदर्श रूप में महिलाओं की यौनिकता कैसी होनी चाहिए; इस बारे में थी, जो पुरुषों के समस्याजनक दृष्टिकोण पर भी सवाल खड़े करते हैं। सिनेमा में लिखे गए पात्र अमूमन हमारे पितृसत्तात्मक मूल्यों को ध्यान में रखकर बनाए गए थे।

महिलाओं की यौनिकता की पहचान में एजेंसी की कमी  

1950 और 1960 के दशकों में, जब बॉलीवुड में रोमांटिक फिल्मों का दौर आया, तो महिला पात्रों की इच्छाओं और भावनाओं को ज्यादा महत्व दिया गया। हालांकि, यह इच्छाएँ ज्यादातर नायक से जुड़ी होती थीं और इन्हें स्टीरियोटाइप तरीके से दिखाया गया। महिलाएं अब शारीरिक आकर्षण और प्यार में उलझी हुई थीं। लेकिन, इन फिल्मों में महिलाओं की यौनिकता की पहचान उनके एजेंसी के साथ नहीं हुई। फिल्मों में प्यार, शादी और परिवार की अवधारणाओं को ज्यादा प्रमुखता दी गई। हालांकि ‘अर्थ’ (1982) जैसी फिल्में महिलाओं की आंतरिक इच्छाओं और उनके संघर्ष पर खुलकर बात करती है। लेकिन, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ (1978) और ‘इंसाफ का तराजू’ (1980) जैसी फिल्में महिलाओं की यौनिकता को ग्लैमर और शोषण के बीच संतुलित करने की कोशिश करती रही।  

रूढ़ियादी भूमिकाएं और पुरुषों की फैंटसी

तस्वीर साभार: Dainik Bhaskar

बॉलीवुड में सदियों से महिलाओं को दी जाने वाली रूढ़िवादी भूमिकाएं पितृसत्तात्मक समाज के पुरुषों की ‘फैंटसी’ है, जिन्हें फिल्मों के माध्यम से समाज के मुख्यधारा का हिस्सा बनाया गया। अमूमन ये फैंटसी कुछ ऐसे पूरा किया जाता है कि महिलाओं ने भी इन फैंटसी को आंतरिक रूप से अपना लिया और उन्हें पितृसत्तात्मक संरचना द्वारा उनपर थोपे जाने के रूप में नहीं सोच पाती हैं। सिनेमा और फैंटसी के बीच हमेशा तालमेल रहा है। ये एक-दूसरे के पूरक हैं और एक-दूसरे को आगे बढ़ाते हैं। चूंकि सिनेमा में ‘सेक्शुअल डिज़ायर’ और ‘गेज़’ मुख्य रूप से पितृसत्तात्मक नजरिए से दिखाई और कल्पना की जाती रही है, इसलिए बॉलीवुड में महिलाओं की इच्छाओं का चित्रण ऐतिहासिक रूप से चुनौतियों भरा रहा है।

बात एलजीबीटीक्यू समुदाय की करें, तो फिल्म ‘शीर कोरमा’ (2021) ने लेस्बियन रिश्तों को संवेदनशीलता से दिखाया। कोंकणा सेन शर्मा और अदिति राव हैदरी अभिनीत ‘गीली पुच्ची’ ने क्वीयर दलित किरदार के पहचान चित्रण के कारण ध्यान आकर्षित किया।

आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण का प्रभाव

साल 1990 के बाद, आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के प्रभाव ने भारतीय समाज में आधुनिकता के तत्व जोड़े। इसका असर सिनेमा पर भी पड़ा। इस समय, महिला यौनिकता और उनकी इच्छाओं को स्वतंत्र रूप से व्यक्त किया जाने लगा। जैसे, ‘फायर’ (1996) ने पहली बार लेस्बियन संबंधों को सिनेमा में मुख्यधारा में रखा, जो उस समय बहुत विवादास्पद था। यह दौर भारतीय सिनेमा में ग्लैमर और व्यावसायिक फिल्मों का भी था। कई बार महिलाओं की यौनिकता को खुले तौर पर दिखाया तो गया, लेकिन यह अक्सर पुरुष दर्शकों को लुभाने के लिए इस्तेमाल किया गया। फिल्म ‘हम आपके हैं कौन’ (1994) में माधुरी दीक्षित का किरदार पारंपरिक और आधुनिकता के बीच संतुलन दिखाता है, जबकि ‘दिल से’ (1998) में मनीषा कोइराला का किरदार अपने व्यक्तिगत और रोमांटिक संघर्ष के जरिए महिला की जटिलता को दिखाता है।

तस्वीर साभार: Wikipedia

2000 के दशक ने महिला पात्रों को अधिक एजेंसी और जटिलता प्रदान की। ‘क्वीन’ (2014) जैसी फिल्मों में महिलाओं को अपने फैसले लेने वाली, स्वतंत्र और आत्मनिर्भर दिखाया गया। इसी तरह, ‘लज्जा’ (2001) और ‘पार्च्ड’ (2015) जैसी फिल्मों ने महिलाओं की यौनिकता और समाज के प्रतिबंधों पर सवाल उठाया। अस्तित्व (2000) में अदिति एक जटिल पात्र है, जो अपनी शादी से यौनिक रूप से असंतुष्ट एक गृहिणी का चरित्र है। वहीं ‘द डर्टी पिक्चर’ (2011) में विद्या बालन महिलाऑन की यौनिकता और शोषण को दिखाती है। यह फिल्म न सिर्फ समाज में महिलाओं की यौनिकता को लेकर पाखंड को चुनौती देती है, बल्कि उनके अधिकारों की भी बात करती है।

हालांकि ‘अर्थ’ (1982) जैसी फिल्में महिलाओं की आंतरिक इच्छाओं और उनके संघर्ष पर खुलकर बात करती है। लेकिन, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ (1978) और ‘इंसाफ का तराजू’ (1980) जैसी फिल्में महिलाओं की यौनिकता को ग्लैमर और शोषण के बीच संतुलित करने की कोशिश करती रही।  

वहीं, ‘गहराइयां’ (2022) में दीपिका पादुकोण का किरदार अपनी यौन इच्छाओं और भावनात्मक जटिलताओं को खुले तौर पर व्यक्त करता है। ‘लस्ट स्टोरीज़’ (2018) और ‘मेड इन हेवन’ (2019) जैसी वेब सीरीज़ ने महिलाओं की यौन इच्छाओं को बिना किसी हिचक के वास्तविकता के करीब दिखाने की कोशिश की है। बात एलजीबीटीक्यू समुदाय की करें, तो फिल्म ‘शीर कोरमा’ (2021) ने लेस्बियन रिश्तों को संवेदनशीलता से दिखाया। कोंकणा सेन शर्मा और अदिति राव हैदरी अभिनीत ‘गीली पुच्ची’ ने क्वीयर दलित किरदार के पहचान चित्रण के कारण ध्यान आकर्षित किया। वहीं अजीब दास्तान में फातिमा सना शेख एक क्वीयर पुरुष से शादी हुई एक महिला की कहानी पर केंद्रित है जो खुद को यौन रूप से असंतुष्ट पाती है।

आधुनिक समय में महिलाओं की यौनिकता का सरलीकरण  

तस्वीर साभार: DNA

आज बॉलीवुड सिनेमा कहानियों में महिला कल्पनाओं को साहसिक और प्रगतिशील तरीके से पेश करने की पुरजोर कोशिश कर रही है और यह महत्वपूर्ण परिवर्तन है। ‘फायर’ से लेकर ‘लस्ट स्टोरीस’ और ‘वीरे दी वेडिंग’ तक, हिंदी फिल्मों में महिलाओं की यौनिकता के चित्रण में लगातार विकास हुआ है। लेकिन हाल ही में हुए फिल्मों के चित्रण में इस जटिल मुद्दे को अत्यधिक सरल कर दिया गया जोकि अपनेआप में समस्या है। वहीं इसे कभी हास्य की तरह, कभी भ्रमित करने वाला, और कभी वर्जित विषय के रूप में दिखाया गया। आम तौर पर किसी भी आदर्श हिंदी ब्लॉकबस्टर का एक मानक फार्मूला यह होता है कि मेल लीड का एक विनम्र, त्याग करने वाली, पवित्र महिला साथ देती है। आम धारणा यह है कि बॉलीवुड फिल्मों में महिलाओं की कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं होती।

सिनेमा और फैंटसी के बीच हमेशा तालमेल रहा है। ये एक-दूसरे के पूरक हैं और एक-दूसरे को आगे बढ़ाते हैं। चूंकि सिनेमा में ‘सेक्शुअल डिज़ायर’ और ‘गेज़’ मुख्य रूप से पितृसत्तात्मक नजरिए से दिखाई और कल्पना की जाती रही है, इसलिए बॉलीवुड में महिलाओं की इच्छाओं का चित्रण ऐतिहासिक रूप से चुनौतियों भरा रहा है।

ऐसे में बॉलीवुड का महिलाओं की इच्छाओं और यौनिकता पर बात करना चुनौतीपूर्ण है। भारतीय सिनेमा में महिलाओं की यौनिकता का चित्रण एक लंबी और जटिल यात्रा रही है। शुरुआत में रूढ़िवादी दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया। समय के साथ, आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण और सामाजिक परिवर्तनों के प्रभाव से सिनेमा में महिलाओं की यौनिकता को दिखाने के तरीके में बदलाव आया है। 1990 के दशक के बाद महिलाओं की यौनिकता को अधिक स्वतंत्रता और एजेंसी के साथ चित्रित किया गया, खासकर उन फिल्मों में जो समाज के प्रतिबंधों और पितृसत्तात्मक संरचनाओं को चुनौती देती हैं। लेकिन आज भी महिलाओं की यौनिकता का अमूमन सरलीकरण कर दिया जाता है।

वहीं इसमें हाशिये के समुदाय या विकलांग लोगों का समावेश गायब है, जिससे वास्तविकता और जटिलता का अभाव हो जाता है। हालांकि बॉलीवुड में बदलाव आ रहा है, लेकिन महिलाओं की यौनिकता को पूरी तरह से समझने और व्यक्त करने में अभी भी कई बाधाएं हैं। बॉलीवुड को आगे बढ़ते हुए, महिलाओं की यौनिकता और इच्छाओं को और अधिक सच्चाई और संवेदनशीलता के साथ दिखाने की जरूरत है, ताकि यह समाज में समानता, स्वतंत्रता और सम्मान को बढ़ावा दे सके। वहीं समाज को भी इन कहानियों को आर्ट सिनेमा के तर्ज पर नहीं बल्कि कमर्शियल सिनेमा के तौर पर अपनाने की जरूरत है।

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