हिंदी सिनेमा लंबे समय से पुरुष प्रधान रहा है, जहां कहानी का केंद्र बिंदु अक्सर पुरुष ही होता है। फिल्मों में नायक को हर स्थिति में शक्तिशाली और प्रभावशाली दिखाया जाता है। चाहे वह घर और परिवार संभाल रहा हो, या गुंडों से लड़ रहा हो। इस प्रक्रिया में, ये कहानियां अनजाने में पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ावा देती हैं। इसके विपरीत, महिला पात्रों को ज्यादातर रोते हुए, नाचते हुए, या केवल सौंदर्य का प्रदर्शन करते हुए दिखाया गया है। हालांकि हाल के सालों में कुछ निर्देशकों और विशेष रूप से महिला निर्देशकों ने इन पारंपरिक भूमिकाओं से परे जाने की कोशिश की है। उन्होंने ऐसी कहानियां प्रस्तुत की हैं, जहां महिलाएं घर और बाहर दोनों जगह अपनी जिम्मेदारियां निभाती हैं।
ये महिलाएं परंपरागत सोच से परे अपनी पहचान बनाती हैं। 2024 में आई कई फिल्मों ने इन रूढ़ियों को चुनौती दी। इसने दर्शकों को हँसाया, रुलाया और गहराई से प्रभावित किया। इन फिल्मों ने यह दिखाया कि एक महिला न सिर्फ अपने घर की जिम्मेदारी उठा सकती है, बल्कि समाज में भी अपनी एक मजबूत जगह बना सकती है। हमें ऐसे सिनेमा की ज़रूरत है, जो महिलाओं को ऑबजेकटिफ़ाई न करे, बल्कि सशक्त और प्रेरणादायक रूप में दिखाए। इस लेख के जरिए हम ऐसी ही फिल्मों की बात करेंगे जो काबिलेतारीफ रही।
1. लापता लेडीज़
“औरत अनाज उगा सकती है, खाना बना सकती है, बच्चे पैदा कर सकती है। और अगर ऐसा है तो औरतों को मर्दों की ज़रूरत ही नहीं। अगर औरतें ये समझ जाएं तो मर्दों की मुश्किल हो जाएगी।” ये डायलॉग हैं लापता लेडिज के जिस फिल्म को न सिर्फ दर्शकों ने सराहा, बल्कि कई अवॉर्ड मिल मिले। लापता लेडीज़ एक महत्वपूर्ण नारीवादी फिल्म है, जो महिलाओं की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों पर सवाल उठाती है। यह कहानी दो महिलाओं की है जो गुम हो जाती हैं, और इस रहस्य के पीछे की वजहों को अनकहा छोड़ देती है। फिल्म हास्य और व्यंग्य के माध्यम से समाज में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव, असमानता और उत्पीड़न को उजागर करती है। यह फिल्म खासतौर पर यह दिखाती है कि महिलाएं समाज में अपनी स्वतंत्रता और आवाज़ को पाना चाहती हैं, लेकिन विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों से उन्हें दबाया जाता है। इसने महिलाओं की पहचान और उनके अस्तित्व की महत्वता पर भी जोर दिया है। फिल्म में दिखाए गए चरित्र और घटनाएं महिलाओं के संघर्ष और उनकी ताकत को दर्शाती हैं, जो यह साबित करती है कि समाज में बदलाव लाने के लिए महिलाएं खुद को मजबूत और सक्षम समझने लगी हैं।
2. स्त्री-2
“वो स्त्री है, वो पहले पूछेगी। स्त्री कभी ज़बरदस्ती नहीं करती।” ये डायलॉग हैं फिल्म स्त्री-2 के। फिल्म की कहानी मध्य प्रदेश के चंदेरी गांव में फिर से शुरू होती है। इस बार, “सर्कटा” नामक एक नई आत्मा उभरती है, जो आधुनिक और स्वतंत्र विचारधारा रखने वाली महिलाओं को निशाना बनाती है। सर्कटा का उद्देश्य पितृसत्तात्मक व्यवस्था को फिर से स्थापित करना है, जहां महिलाएं केवल घरेलू कामों तक सीमित रहें। कहानी में मुख्य नायक विक्की और “स्त्री” मिलकर सर्कटा को हराते हैं और महिलाओं को बचाते हैं। फिल्म पितृसत्ता के विचारों को चुनौती देती है, जहां महिलाओं के अधिकार और स्वतंत्रता को पुरुष वर्चस्व के खिलाफ खड़ा किया गया है। स्त्री का किरदार महिला शक्ति और प्रतिरोध का प्रतीक है, जो अन्याय के खिलाफ खड़ी होती है। हास्य और डरावनी घटनाओं के जरिए फिल्म सामाजिक मुद्दों को उजागर करती है, जैसे महिलाओं को आज भी उनके अधिकारों से वंचित रखना। स्त्री-2 केवल एक मनोरंजक हॉरर-कॉमेडी नहीं है, बल्कि यह महिलाओं की आजादी और पितृसत्ता को चुनौती देने का एक प्रतीक है। यह संदेश देती है कि समाज में महिलाओं का स्थान उनके अधिकार और सम्मान से तय होना चाहिए, न कि किसी पारंपरिक विचारधारा से।
3. क्रू
फिल्म में तीन प्रमुख महिला पात्रों की भूमिका को देखा जा सकता है, जो अपनी परिस्थितियों से लड़ते हुए खुद को एक कठिन स्थिति से बाहर निकालने की कोशिश करती हैं। यह फिल्म महिलाओं की स्वतंत्रता और संघर्ष को दर्शाती है, लेकिन साथ ही यह भी दिखाती है कि समाज में उनकी भूमिका और उम्मीदें अक्सर सीमित होती हैं। फिल्म में यह दिखाने की कोशिश की गई है कि महिलाएं अपनी क्षमता और संघर्ष के द्वारा समाज की रुढ़िवादिता को चुनौती दे सकती हैं। हालांकि, फिल्म में कुछ हिस्सों में महिलाओं को हास्य और हल्के-फुल्के तरीकों से पेश किया गया है, जो एक कमर्शियल फिल्म के निर्धारित मनोरंजन की ओर इशारा करते हैं। लेकिन फेमिनिस्ट विचारधारा के अनुसार यह जरूरी होता है कि महिला पात्रों को केवल सर्वाइवर के रूप में न दिखाया जाए, बल्कि उनकी आंतरिक ताकत और एजेंसी को भी उभारने की जरूरत होती है। क्रू एक हल्की-फुल्की फिल्म हो सकती है। लेकिन यह महिलाओं के संघर्ष और उनके अधिकारों की ओर एक सकारात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, जो आधुनिक समाज में महत्वपूर्ण है।
4. शर्माजी की बेटी
यह फिल्म समकालीन भारतीय परिवारों में महिलाओं के जीवन, संघर्ष और आत्म-निर्णय को दर्शाती है। यह फिल्म पांच महिलाओं के विभिन्न जीवन अनुभवों को दिखाती है, जो एक ही परिवार से संबंधित हैं। इस फिल्म में मुख्य रूप से महिला पात्रों के माध्यम से ऐसे मुद्दे उठाए गए हैं जैसे किशोरावस्था की घबराहट, कामकाजी महिलाएं, सेक्शूएलिटी, वैवाहिक समस्याएं और आत्म-खोज। फिल्म में यह कोशिश की गई है कि महिलाओं को पारंपरिक समाजिक भूमिकाओं से बाहर निकालकर उन्हें अपने सपनों का पीछा करते हुए दिखाया जाए। उदाहरण के लिए, तान्वी, एक क्रिकेट खिलाड़ी, पारंपरिक लिंग भूमिकाओं को चुनौती देती है। स्वाति और गुर्वीन के पात्र भी अपने शरीर और यौन पहचान को लेकर संघर्ष करते हैं। हालांकि, फिल्म में इन समस्याओं को इस तरह से दिखाया गया है कि वे कई बार सामान्य और पूर्वानुमानित लगती हैं। कृति और जॉइटी जैसी महिलाओं की कहानियाँ हैं, जो समाज की अपेक्षाओं से परे अपनी पहचान बनाती हैं। लेकिन कुछ समीक्षकों ने यह भी बताया है कि फिल्म की कहानियाँ अपेक्षाकृत सामान्य हैं और इनमें गहरी क्रांति या नया दृष्टिकोण नहीं है।
5. भक्षक
यह एक महिला पत्रकार वैशाली की कहानी है, जो समाज में महिलाओं के साथ होने वाले शोषण और अत्याचार को उजागर करती है। यह फिल्म नारीवाद का समर्थन करती है क्योंकि इसमें महिलाएं न सिर्फ सर्वाइवर के रूप में दिखती हैं, बल्कि अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाली और बदलाव लाने वाली सशक्त व्यक्तित्व भी हैं। एक महिला अकेले अपनी आवाज़ उठाकर समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था और भ्रष्ट तंत्र को चुनौती देती है। वैशाली का संघर्ष, एसएसपी जसमीत कौर की सहयोगात्मक भूमिका और आश्रय गृह की लड़कियों के लिए न्याय की लड़ाई यह स्पष्ट करती है कि महिलाएँ केवल सहनशीलता का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि वे साहस और शक्ति का भी प्रतिनिधित्व करती हैं। “भक्षक” न केवल एक अपराध को उजागर करती है, बल्कि यह भी संदेश देती है कि महिलाएं अपनी आवाज़ और अस्तित्व के लिए समाज की हर बाधा को पार कर सकती हैं। फिल्म महिलाओं के अधिकार, न्याय और समानता की दिशा में प्रेरणा देती है।
6. मिस्टर एण्ड मिसेस माही
यह एक स्पोर्ट्स-ड्रामा फिल्म है, जिसमें स्त्रीवादी दृष्टिकोण को उभारा गया है। लेकिन यह पूरी तरह से प्रभावी नहीं हो पाती। फिल्म महिला क्रिकेटर महिमा की कहानी पर आधारित है, जो क्रिकेट में अपने सपनों को पूरा करने के लिए संघर्ष करती है। इसमें महिमा को पुरुष-प्रधान क्रिकेट जगत में अपने स्थान के लिए लड़ते हुए दिखाया गया है। साथ ही, उसका पति महेंद्र उसकी सफलता के लिए प्रेरणा और सहारा बनता है, लेकिन अपनी असुरक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं से भी जूझता है।
फिल्म में महिमा का किरदार महिलाओं के लिए प्रेरणादायक है क्योंकि यह दिखाता है कि कैसे शादीशुदा जीवन और सामाजिक बाधाओं के बावजूद महिलाएं अपने सपनों को हासिल कर सकती हैं।
हालांकि, कहानी में महिमा की यात्रा पर उतना गहराई से ध्यान नहीं दिया गया है जितना महेंद्र के भावनात्मक संघर्षों पर। फिल्म यह दर्शाती है कि महिलाएं परिवार और समाज की उम्मीदों को चुनौती देकर भी अपने सपनों को जी सकती हैं। लेकिन यह पूरी तरह से महिला-केंद्रित कहानी नहीं बन पाती। महिमा का किरदार भारतीय महिला क्रिकेटरों की असली कहानियों से प्रेरित लगता है, जैसे शादी के बाद या जीवन के कठिन समय के बावजूद अपने खेल करियर को जारी रखना। लेकिन फिल्म में महिला क्रिकेट के संघर्षों और खेल के स्तर पर असमानताओं पर अधिक विस्तार से बात हो सकती थी।
7. गर्ल विल बी गर्ल
नारीवाद के दृष्टिकोण से महिलाओं के सामाजिक और सांस्कृतिक दबावों को चुनौती देती है। यह फिल्म इस बात पर जोर देती है कि महिलाओं को उनकी इच्छाओं, सपनों, और व्यक्तित्व के आधार पर परिभाषित करने के बजाय, समाज उन्हें उनके लिंग के आधार पर सीमित करता है। आदर्श बेटी, पत्नी या माँ की भूमिकाओं की अपेक्षाएं महिलाओं को उनके वास्तविक व्यक्तित्व और स्वतंत्रता से दूर करती हैं। कहानी की पात्राएं इन रूढ़िवादी धारणाओं के खिलाफ खड़ी होती हैं और यह दिखाती हैं कि महिलाएं अपनी पहचान और जीवन को स्वतंत्र रूप से परिभाषित कर सकती हैं। यह फिल्म महिलाओं की एजेंसी और आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता देती है। साथ ही पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ एक मजबूत संदेश देती है, जो महिलाओं को केवल पारंपरिक भूमिकाओं में बांधकर उनके व्यक्तित्व को सीमित करता है। गर्ल विल बी गर्ल यह दिखाता है कि महिलाएं अपने सपनों, इच्छाओं और पहचान के साथ स्वतंत्र पहचान हैं, और उन्हें अपनी जगह बनाने का पूरा अधिकार है।
8. दो पत्ती
फिल्म दो पत्ती का नारीवादी दृष्टिकोण घरेलू हिंसा, पितृसत्तात्मक संरचनाओं और महिलाओं की आवाज़ को दबाने की प्रवृत्ति पर आधारित है। कहानी में दो बहनें, सौम्या और शाइली, अपने जीवन में घरेलू शोषण और सामाजिक दबावों का सामना करती हैं। सौम्या अपने पति ध्रुव द्वारा किए गए शोषण और हिंसा को चुनौती देती है। यह संघर्ष दिखाता है कि घरेलू हिंसा सिर्फ व्यक्तिगत समस्या नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज को प्रभावित करने वाला मुद्दा है। फिल्म की नायिका सौम्या का संघर्ष महिलाओं की आंतरिक शक्ति और अन्याय के खिलाफ खड़े होने की क्षमता का प्रतीक है।
पुलिस इंस्पेक्टर विद्या का किरदार एक और मजबूत महिला को दिखाता है, जो औपचारिक कानून और नैतिक न्याय के बीच संघर्ष करती है। उनका बहनों का साथ देना यह दिखाता है कि महिलाओं को एक-दूसरे का समर्थन करना कितना महत्वपूर्ण है, खासकर जब समाज और व्यवस्था उनके खिलाफ खड़े हों। फिल्म यह संदेश देती है कि चुप्पी तोड़ना और न्याय की लड़ाई लड़ना न सिर्फ व्यक्तिगत रूप से, बल्कि समाज में बदलाव लाने के लिए भी ज़रूरी है। दो पत्ती महिलाओं की हिम्मत और उनकी सशक्तिकरण की कहानी है, जो दर्शाती है कि पितृसत्ता का अंत तभी हो सकता है जब महिलाएं एकजुट होकर अपनी आवाज़ बुलंद करें।
9. दशमी
यह एक विचारोत्तेजक ड्रामा है, जो समाज की बुरी सच्चाइयों को उजागर करता है, विशेष रूप से भारत में व्याप्त रेप कल्चर पर सवाल उठाता है। यह फिल्म बाल यौन हिंसा के शिकारों और उनके परिवारों की पीड़ा को केंद्र में रखते हुए, न्याय और नैतिकता पर आधारित समाज की जरूरत पर जोर देती है। फिल्म के फेमिनिस्ट दृष्टिकोण की बात करें तो यह सर्वाइवर महिलाओं और लड़कियों की आवाज को प्राथमिकता देती है। यह दिखाती है कि कैसे हमारी सामाजिक व्यवस्था महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान में असफल रही है। साथ ही, यह फिल्म उन सामाजिक संरचनाओं और मानसिकताओं पर भी सवाल उठाती है, जो महिलाओं और नाबालिग लड़कियों के खिलाफ अपराधों को बढ़ावा देती हैं। जिसके साथ ही न्यायिक प्रणाली, पुलिस की भूमिका, और समाज में संवेदनशीलता की कमी को उजागर करते हुए महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए जागरूकता फैलाने का प्रयास करती है।
10. दुकान
फिल्म सरोगेसी के मुद्दे पर आधारित है, जिसमें जेस्मिन नाम की महिला अपने परिवार की मदद के लिए सरोगेट माँ बनती है। यह फिल्म दिखाती है कि कैसे महिलाओं को आर्थिक मजबूरी में अपने शरीर को एक वस्तु के रूप में इस्तेमाल करने के लिए मजबूर किया जाता है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं के अधिकार और इच्छाओं को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है, और सरोगेसी के व्यवसाय में उनका शोषण होता है। फिल्म यह संदेश देती है कि माँ बनना केवल जैविक नहीं, बल्कि भावनात्मक रूप से भी एक जटिल प्रक्रिया है। जेस्मिन के संघर्ष को दर्शाते हुए, यह फिल्म महिलाओं के बलिदान और शोषण पर सवाल उठाती है, लेकिन कुछ आलोचकों के अनुसार इसमें गहराई की कमी है।
महिला-केंद्रित फिल्मों को भी सामान्य फिल्मों की तरह उनके कथानक और प्रस्तुति के आधार पर आंका जाना चाहिए। जरूरी है कि कहानी में महिलाओं और अन्य सभी जेंडर के किरदारों को बिना किसी पूर्वाग्रह या रूढ़िवादी दृष्टिकोण के पेश किया जाए। ऐसे किरदारों को गहराई और संवेदनशीलता के साथ गढ़ा जाना चाहिए। हर साल कई फिल्में ऐसी होती हैं जो जेंडर विमर्श को नई दिशा देती हैं। इन फिल्मों को देखना और उन पर चर्चा करना नारीवादी दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करने के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।