इतिहास कपिला वात्स्यायन: भारतीय कला और संस्कृति की संरक्षक| #IndianWomenInHistory

कपिला वात्स्यायन: भारतीय कला और संस्कृति की संरक्षक| #IndianWomenInHistory

डॉ. कपिला वात्स्यायन ने भारतीय संस्कृति और कला के संरक्षण और विस्तार के लिए कई प्रमुख संस्थाओं की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने 1967 में केंद्रीय उच्च तिब्बती अध्ययन संस्थान, सारनाथ-वाराणसी, 1977 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल, 1979 में सांस्कृतिक संसाधन और प्रशिक्षण केंद्र, दिल्ली, और 1985 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, दिल्ली की स्थापना की।

डॉ. कपिला वात्स्यायन भारतीय कला और संस्कृति की ऐसी महान विदुषी थीं, जिन्होंने अपनी जीवन यात्रा में भारतीय शास्त्रीय नृत्य, नाट्यशास्त्र, और कला के संरक्षण के लिए अद्वितीय योगदान दिया। उन्हें भारतीय संस्कृति की महारानी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने कला को इस तरह से संरक्षित किया जैसे एक कुशल कारीगर अपने कार्य को सजाता है। उनका जीवन और कार्य भारतीय कला और संस्कृति के संरक्षण, विस्तार, और प्रोत्साहन के प्रति उनके अथक समर्पण का उदाहरण है।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

डॉ. कपिला वात्स्यायन का जन्म 25 दिसंबर 1928 को दिल्ली में हुआ था, एक शिक्षित और संस्कारित परिवार में। उनके पिता राम लाल एक प्रसिद्ध वकील थे, जबकि उनकी मां सत्यवती मलिक एक मशहूर स्वतंत्रता सेनानी थीं। उनके बड़े भाई केशव मलिक एक कवि और कला समीक्षक थे। भारतीय संस्कृति और कलाओं के प्रति डॉ. कपिला का गहरा आकर्षण था, और उन्होंने कला और संस्कृति के अध्ययन में अपना जीवन समर्पित कर दिया। कपिला ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा हिंदू कॉलेज से प्राप्त की, उसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक की डिग्री हासिल की। इसके बाद, 1950 में उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका के मिशिगन विश्वविद्यालय से शिक्षा में मास्टर डिग्री की। संस्कृत और भारतीय कला में गहरी रुचि होने के कारण, उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से इस विषय में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की।

डॉ. कपिला वात्स्यायन ने शास्त्रीय नृत्य और कला के क्षेत्र में अपनी यात्रा की शुरुआत की। उन्हें नृत्य की शिक्षा कुछ महान गुरुओं से मिली, जैसे कि प्रसिद्ध नर्तक उदय शंकर, पंडित अच्छन महाराज (पंडित बिरजू महाराज के पिता), और गुरु अमोबी सिंह से मणिपुरी नृत्य की शिक्षा ली।

शास्त्रीय नृत्य और कला में योगदान

तस्वीर साभार: Narthaki

डॉ. कपिला वात्स्यायन ने शास्त्रीय नृत्य और कला के क्षेत्र में अपनी यात्रा की शुरुआत की। उन्हें नृत्य की शिक्षा कुछ महान गुरुओं से मिली, जैसे कि प्रसिद्ध नर्तक उदय शंकर, पंडित अच्छन महाराज (पंडित बिरजू महाराज के पिता), और गुरु अमोबी सिंह से मणिपुरी नृत्य की शिक्षा ली। इसके अलावा, उन्होंने भरतनाट्यम की शिक्षा मीनाक्षी सुंदरम पिल्लई से ली और ओडिसी नृत्य की शिक्षा सुरेंद्रनाथ जेना से प्राप्त की। उनके द्वारा प्राप्त इन विविध शास्त्रीय नृत्य शैलियों और भारतीय कला के प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन भारतीय कला और संस्कृति के संदर्भ को समझने के लिए महत्वपूर्ण था।

संस्थागत योगदान

डॉ. कपिला वात्स्यायन ने भारतीय संस्कृति और कला के संरक्षण और विस्तार के लिए कई प्रमुख संस्थाओं की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने 1967 में केंद्रीय उच्च तिब्बती अध्ययन संस्थान, सारनाथ-वाराणसी, 1977 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल, 1979 में सांस्कृतिक संसाधन और प्रशिक्षण केंद्र, दिल्ली, और 1985 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, दिल्ली की स्थापना की। इन संस्थाओं के माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति और कला को एक नया दृष्टिकोण दिया और उनका संरक्षण किया। वे भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद और भारतीय संसद की सांस्कृतिक समिति की सदस्य भी रहीं। साथ ही, उन्होंने शिक्षा मंत्रालय में भारत सरकार के सचिव के रूप में भी काम किया। उनका नेतृत्व भारतीय कला और संस्कृति के संरक्षण में अत्यधिक प्रभावशाली था।

उन्होंने 1967 में केंद्रीय उच्च तिब्बती अध्ययन संस्थान, सारनाथ-वाराणसी, 1977 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल, 1979 में सांस्कृतिक संसाधन और प्रशिक्षण केंद्र, दिल्ली, और 1985 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, दिल्ली की स्थापना की।

रचनाएं, साहित्यिक योगदान और पुरस्कार

तस्वीर साभार: National Herald

डॉ. कपिला वात्स्यायन ने अपने जीवन में लगभग 20 किताबें लिखीं, जो भारतीय कला, शास्त्रीय नृत्य और नाट्यशास्त्र पर महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। उनकी प्रमुख रचनाओं में “स्क्वायर एंड द सर्कल ऑफ़ इंडियन आर्ट्स” (1997), “भारत: द नाट्य शास्त्र” (1996), और “मातृलक्षणम” (1988) शामिल हैं। इसके अलावा, उन्होंने हिंदी में जयदेव के ‘गीत गोविन्द’ का अनुवाद भी किया। डॉ. कपिला वात्स्यायन के भारतीय कला और संस्कृति में योगदान के लिए उन्हें अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 1970 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप प्राप्त हुई, और 1975 में जवाहरलाल नेहरू फेलोशिप से सम्मानित किया गया। 1995 में उन्हें ललित कला अकादमी का फेलो बनाया गया और 2000 में राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार मिला। 2011 में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। इसके अलावा, उन्होंने कई अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया।

डॉ. कपिला वात्स्यायन ने अपने जीवन में लगभग 20 किताबें लिखीं, जो भारतीय कला, शास्त्रीय नृत्य और नाट्यशास्त्र पर महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। उनकी प्रमुख रचनाओं में “स्क्वायर एंड द सर्कल ऑफ़ इंडियन आर्ट्स” (1997), “भारत: द नाट्य शास्त्र” (1996), और “मातृलक्षणम” (1988) शामिल हैं।

डॉ. कपिला वात्स्यायन का निधन 16 सितंबर 2020 को 92 वर्ष की आयु में दिल्ली में हुआ। उनके निधन से भारतीय कला और संस्कृति जगत ने एक महान विद्वान और संरक्षक को खो दिया। उनका योगदान न केवल भारतीय कला के संरक्षण के लिए, बल्कि कला और संस्कृति के प्रति उनके दृष्टिकोण और प्रतिबद्धता के लिए भी अनमोल रहेगा। डॉ. कपिला वात्स्यायन का जीवन भारतीय संस्कृति, शास्त्रीय नृत्य, और कला के प्रति उनकी गहरी समझ और संरक्षण के प्रति उनकी निष्ठा का प्रतीक है। उनके द्वारा छोड़ी गई विरासत आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी और भारतीय कला के क्षेत्र में उनका योगदान सदैव अमिट रहेगा।

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