हिमाचल प्रदेश के लोकगीत तो हिमाचल की खूबसूरती में चार चाँद लगा देते हैं। लोकगीतों में रचे-बसे गांवों की खुशबू हिमाचल की आत्मा है। जब लोकगीतों की बात होती है और उसमें गंभरी देवी जी का नाम ना आए ऐसा नहीं हो सकता है। गंभरी देवी हिमाचल की एक मशहूर गायिका और नर्तकी थी, जिनकी आवाज़ आज भी हिमाचल की वादियों में गूंजता है, और हर एक पहाड़ी दिल की धड़कन है। गंभरी देवी का जन्म साल 1922 में हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर में स्थित बंदला गाँव के एक दलित परिवार में हुआ था । इनके पिता का नाम गरदितु राम और माता का नाम सन्ति देवी था। जब यह पैदा हुई उस दिन दीपावली थी। वह बहुत सुंदर थी इसलिए इनके पिता ने इनकी उपमा अनार के फूलों से करते हुए इनका नाम गंभरी रखा। स्थानीय बोली में अनार के फूलों को गम्भरियां कहा जाता है। यह चार भाईयों में एक बहन और अपने परिवार की बड़ी बेटी थी।
एक साधारण दलित ग्रामीण परिवार में जन्म लेने के कारण उनका जीवन शुरू से ही संघर्षमय रहा। उस समय शिक्षा की सुविधाएं सीमित थीं। लड़कियों को घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता था। उस समय के सामाजिक और आर्थिक हालात के कारण उन्हें कभी स्कूल जाने का अवसर नहीं मिल पाया। बेशक गंभरी देवी को शिक्षा तो नसीब न हो पाई, लेकिन संगीत का संसार उन्हें विरासत में मिला था। वह एक ऐसे समाज में पली-बढ़ी थी जहां चारों ओर संगीत का माहौल था। उनके पिता गरदितु राम दलित समुदाय से थे और जिनका पारंपरिक व्यवसाय भी संगीत से जुड़ा हुआ था। वह गोगा गायन की मंडलियों के साथ मिलकर लोगों के घर-घर जाकर गोगा के गीत गाया करते थे।
नाटी में नाम दर्ज करती गंभरी देवी
गंभरी देवी ने हिमाचल प्रदेश के लोक संगीत में कई प्रसिद्ध गीतों को लोकप्रिय बनाया। जैसेकि खाना पीणा नंद लेणी हो गंभरीये गाना बहुत ही ज्यादा चर्चित है। आज भी इस गाने को ब्याह-शादियों में बजाया जाता है। उनका गायन विशेषकर ‘नाटी’ में अधिक प्रसिद्ध था। नाटी हिमाचल प्रदेश का एक पारंपरिक नृत्य और संगीत शैली है, जिसमें प्राकृतिक सौंदर्य, पर्वतीय जीवन, और स्थानीय रीति-रिवाजों का वर्णन होता है। गंभरी देवी की गायकी ने इस नृत्य को और भी लोकप्रिय बना दिया। इसी तरह उन्होंने जालंधर के एक प्रोग्राम में मिलिट्री कैंप में भी किया। उस समय पहली बार रेडियो में उनके गीत प्रसारित हुए थे। उस समय जालंधर में नया-नया आकाशवाणी खुला हुआ था। उन्होंने गंभरी देवी को आकाशवाणी रेडियो स्टेशन में नौकरी ऑफर की थी। लेकिन गंभरी देवी ने वो नौकरी करने से मना कर दिया। उनका कहना था कि मैं एक कलाकार हूं और मुझे खुली उड़ान भरनी है।
शिक्षित न होने के बावजूद खुद गीत लिखती थीं गंभरी
गंभरी देवी पढ़ी-लिखी नहीं थी। लेकिन वह अपने गीत खुद बनाती थी और गाती थी। उनका नृत्य भी बहुत मनमोहक था। जब वो अपने लोकगीतों की प्रस्तुति देती थी तो हजारों की संख्या में लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाया करती थी। उस समय के दौर में न तो बिजली हुआ करती थी, न माइक थे और न ही लाउडस्पीकर हुआ करते थे। वह बिना माइक के गीत गाकर अपनी आवाज लोगों तक पहुंचाया करती थी। लोग मशालें और जुगनू लेकर प्रोग्राम देखने आते थे। उनकी कला से प्रसन्न होकर, उस समय गंभरी देवी को लखुराम जुंगड़ा और संत राम ने दस सालों के लिए दस-दस रुपए की पेंशन भी लगा दी थी। गंभरी दलित समुदाय से थी। ब्राह्मणवादी, जातिवादी व्यवस्था के अनुसार तथाकथित उच्च जाति के लोगों का मानना है कि दलित समुदाय के लोग कला और संस्कृति के क्षेत्र में नहीं जा सकते। ऐसे में उनको समाज से तिरस्कार और अपमान का सामना करना पड़ा। उनके लिए सार्वजनिक रूप से गीत गाना या नाचना बहुत कठिन था, क्योंकि समाज उनके इस काम को गलत नजर से देखता था।
संसाधनों की कमी में संगीत और नृत्य सीखती गंभरी
गंभरी देवी का परिवार आर्थिक रूप से कमजोर था। गरीबी के कारण उनके पास शिक्षा और संसाधनों की कमी थी। संगीत और नृत्य के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा, क्योंकि इस क्षेत्र में उनके पास संसाधन या समर्थन नहीं था। आर्थिक तंगी के कारण उनके पास अभ्यास करने के लिए अच्छे साधन नहीं थे, और संगीत की कोई औपचारिक शिक्षा भी नहीं मिल पाई। इसके बावजूद उन्होंने खुद से ही गाना और नाचना सीखा और अपने हौंसले को कभी कमजोर नहीं होने दिया। साल 1935 में गंभरी ने अपना पहला प्रोग्राम प्रस्तुत किया। उस समय उन्हें बीस रुपये की साई (पैसे) देकर बुलाया गया था । बहुत से लोगों ने खुश होकर उन्हें पैसे दिए और उस दिन पहली बार उन्होंने सत्तर रुपये कमाए थे। इसके बाद उन्हें बहुत सी जगह शादियों में पैसे देकर बुलाया जाने लगा।
समाज के पारंपरिक सोच के लड़कर बनी गायक
गंभरी देवी को उस समय के समाज की पारंपरिक सोच का भी सामना करना पड़ा। समाज में यह धारणा थी कि महिलाओं को घर के काम तक सीमित रहना चाहिए और उन्हें लोक संगीत या नृत्य जैसे सार्वजनिक कामों में हिस्सा नहीं लेना चाहिए। इस सोच के कारण उनको न केवल पुरुषों बल्कि महिलाओं के विरोध का भी सामना करना पड़ा। उस समय महिलाओं का गाना-गाना और नाचना निंदनीय माना जाता था, खासकर यदि वे दलित समुदाय से हों। फिर भी, उन्होंने समाज की इन कुरीतियों को नकारते हुए अपनी कला को आगे बढ़ाया। 13 साल की उम्र में पिता को खो दिया। उनके पिता उनका बहुत साथ देते थे। लेकिन पिता की मृत्यु के बाद उनके नाचने और गाने पर रोकटोक होना शुरू हो गया।
गंभरी का वैवाहिक जीवन ज्यादा दिन तक नहीं चल पाया। उनका विवाह दसौट गांव के संत राम से हुआ था। कुछ समय बाद उनके ससुराल वालों ने नाचने और गाने पर रोक लगा दी थी, जिस वजह से वह अपने पीहर मे जाकर रहने लगी। वहां भी परिवार के लोगों ने उन्हें गाने से मना किया। लेकिन नृत्य और गायन में उनकी जान बसती थी। उन्होंने गाना बंद नहीं किया। वह घरवालों से छुपकर अपने गानों की प्रस्तुति देने जाया करती थी। उन्होंने संत राम से भी तलाक ले लिया था।
उनके सामने एक और चुनौती यह थी कि उन्हें अपने गायन और नृत्य के लिए मंच प्राप्त करना भी कठिन था। समाज के पारंपरिक विचारों के कारण उन्हें सार्वजनिक मंचों पर प्रस्तुतियां देने में बहुत बाधाओं का सामना करना पड़ा था। कई बार उन्हें उनके जातिगत और सामाजिक वर्ग और महिला होने के कारण आयोजनों में शामिल नहीं किया जाता था। लेकिन उनके समर्पण और संघर्ष ने उन्हें एक लोकप्रिय लोकगायिका बना दिया और उनकी आवाज हिमाचल की पहाड़ियों में गूँज उठी।
उनका जीवन है एक प्रेरणा
गंभरी देवी का जीवन उन महिलाओं के लिए एक प्रेरणा बना जो अपनी कला को पहचान दिलाने के लिए समाज से लड़ती हैं। उन्होंने समाज की रूढ़िवादी सोच को चुनौती दी और हिमाचल प्रदेश की पहली दलित लोक गायिका के रूप में उभर कर सामने आई। उनकी सफलता ने अन्य महिलाओं को भी अपनी प्रतिभा को निखारने और समाज में अपनी जगह बनाने के लिए प्रेरित किया। उनके लिए अपने काम को स्वीकार्य बनाना एक बहुत बड़ा काम था। समाज के जातिगत और लैंगिक पूर्वाग्रहों के कारण उन्हें अपने जीवन के हर मोड़ पर लड़ाई लड़नी पड़ी, लेकिन आखिरकार उनके समर्पण और कड़ी मेहनत के कारण उन्हें समाज में मान्यता प्राप्त हुई। उनके जीवन के अंतिम वर्षों में ही समाज ने उनके योगदान को पहचाना और उन्हें वह सम्मान और प्रतिष्ठा मिली जिसकी वे हकदार थीं।
उनको दिए गए पुरस्कार
साल 2011 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी से टैगोर अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। 2001 में हिमाचल कला अकादमी से भी उनको नवाज़ा गया। अपनी जिंदगी के 85 सालों तक हर एक मंच पर वह अपने लोकगीतों की प्रस्तुति देती रहीं। इस उम्र में उनकी तबीयत नासाज़ रहने लगी और 8 जनवरी 2013 को 91 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। भले ही आज गंभरी देवी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अपने लोकगीतों के माध्यम से वह हमेशा के लिए सभी हिमाचल वासियों के दिलों में जिंदा रहेंगी।
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