आम जनता न्याय की उम्मीद अपनी आँखों में ले न्यायालय में अपनी गुहार लगाती है। जब कोई व्यक्ति अपने खिलाफ़ हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध समाज की कुरीतियों को तोड़ अपने हक में पहला कदम उठाता है और मुकदमा दर्ज करता है, तो आधी जीत तो उसे उसी क्षण में मिल जाती है। उसकी आँखों में आशा की किरण होती है जिसे न्यायालय द्वारा न्याय पाने के बाद एक रोशन भरा आसमान अपने सामने महसूस करती है। आइए लैंगिक समानता और नारीवाद की लड़ाई के हक में दिए न्यायालय द्वारा कुछ ऐसे प्रगतिशील के फैसलों के बारे में हम बात करें।
1.पीसीएमए को कोई भी पर्सनल लॉ निष्क्रिय नहीं कर सकता
सर्वोच्च न्यायालय ने अक्टूबर,2024 को बाल विवाह निषेध अधिनियम (पीसीएमए) पर फैसला सुनाते हुए कहा कि पीसीएमए को किसी भी व्यक्तिगत कानून के तहत परंपराओं से बाधित नहीं किया जा सकता है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की पीठ ने देश में बाल विवाह की रोकथाम पर कानूनों को पूरी तरह से निश्चित करने के लिए निर्देश जारी किए। अदालत ने कहा कि बाल विवाह न सिर्फ जीवन साथी चुनने की स्वतंत्र इच्छा का उल्लंघन करती है बल्कि बच्चे के बचपन को भी खत्म कर देती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बाल विवाह लड़के और लड़कियों दोनों को प्रभावित करती है। यह बच्चों को स्वतंत्रता, स्वायत्ता और बचपन का आनंद लेने के अधिकार से वंचित करता है। कोर्ट ने बाल विवाह रोकथाम के लिए अधिकारियों की नियुक्ति, जिला स्तरीय जिम्मेदारी, विशेष पुलिस इकाई की स्थापना, निषेध के लिए विशेष इकाई की स्थापना, न्यायिक उपाय करने के दिशा-निर्देश जारी किए।
2. महिला रिश्तेदारों को भी घरेलू हिंसा के मामलों में दोषी माना जाएगा
घरेलू हिंसा अधिनियम के दायरे पर किसी भी प्रकार के भ्रम को दूर करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा था कि यह कानून महिलाओं पर हिंसा करने के लिए महिलाओं को भी जवाबदेह बना सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब हम महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा की बात करते हैं, तो इसमें कानूनी रिश्ते में शामिल सभी महिलाएं शामिल हो सकती हैं। न्यायाधीश जस्टिस ए के सीकरी और अजीत भरिहोके की खंडपीठ ने कहा कि जब घरेलू हिंसा एक्ट की योजना को ध्यान में रखते हुए कानूनी प्रावधानों को एक साथ पढ़ा जाता है, तो यह पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि कानून बनाने वाले का इरादा महिला रिश्तेदारों को भी पत्नी या विवाह की प्रकृति में रहने वाले महिला द्वारा शुरू की गई कार्यवाही में प्रतिवादी बनाने का था। अदालत वर्षा कपूर द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर फैसला सुना रही थी, जिस पर अपनी अलग रह रही बहू को कथित रूप से प्रताड़ित करने के आरोप में इस अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया था।
3. गर्भवती व्यक्ति को गर्भसमाप्ति का है अधिकार
सुप्रीम कोर्ट ने 14 वर्षीय यौन उत्पीड़न सर्वाइवर को उसके लगभग 30 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति देते हुए इसे ‘बहुत ही असाधारण मामला बताया, जहां कोर्ट ने महिला की रक्षा करने को सबसे ऊपर रखा।’ मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि नाबालिग की इच्छा के विरुद्ध गर्भावस्था को जारी रखना नाबालिग की शारीरिक और मानसिक भलाई पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, जो कि बमुश्किल 14 वर्ष की है। पीठ ने डीन से नाबालिग की गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए एक टीम गठित करने को भी कहा। प्रक्रिया की अनुमति देते हुए, पीठ ने कहा कि यह स्थिति की अनिवार्यताओं और नाबालिग के कल्याण को ध्यान में रखते हुए आवश्यक था, जोकि सबसे महत्वपूर्ण है और उसकी सुरक्षा।
4. स्त्रीधन पर पति या पिता का कोई अधिकार नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2024 को स्पष्ट किया कि महिला के पिता को उसके स्त्रीधन की वसूली का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि न्यायालय ने एक दंपत्ति के खिलाफ शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया है। यह कार्यवाही उनकी पुत्रवधू के पिता द्वारा की गई शिकायत पर की गई थी, जिसमें तलाक के पांच साल और अमेरिका में उसके पुनर्विवाह के तीन साल बाद उसके वैवाहिक उपहारों पर कथित अवैध कब्जे के लिए कहा गया था। न्यायमूर्ति जे के माहेश्वरी और न्यायमूर्ति संजय करोल की पीठ ने कहा कि आपराधिक कार्यवाही का उद्देश्य गलत काम करने वाले को न्याय के कटघरे में लाना है, और यह उन लोगों के खिलाफ बदला लेने या प्रतिशोध लेने का साधन नहीं है, जिनसे शिकायतकर्ता की दुश्मनी हो सकती है। पीठ ने कहा कि यह न्यायालय महिला (पत्नी या पूर्व पत्नी) के स्त्रीधन की एकमात्र मालिक होने के एकमात्र अधिकार के संबंध में कई निर्णयों में स्पष्ट रहा है। पीठ ने कहा की यह माना गया है कि पति को (स्त्रीधन पर) कोई अधिकार नहीं है और तब यह आवश्यक रूप से निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि पिता को भी कोई अधिकार नहीं है, जब बेटी जीवित है, स्वस्थ है और अपने स्त्रीधन की वसूली जैसे निर्णय लेने में पूरी तरह सक्षम है।
5. भय या गलतफहमी के तहत महिला की ‘सहमति’ से यौन संबंध बनाना बलात्कार के बराबर
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि यौन संबंध, चाहे महिला की सहमति से ही क्यों न बनाया गया हो, बलात्कार माना जाएगा, अगर ये ‘सहमति’ डर या गलतफहमी के तहत दी गई हो। अदालत का यह फैसला राघव कुमार के मामले में आया, जिसने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376 के तहत बलात्कार के मामले में अपने खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग की थी। मामले की अध्यक्षता कर रहे न्यायमूर्ति अनीस कुमार गुप्ता ने कुमार की याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें दिसंबर 2018 में आगरा में उनके खिलाफ दायर आरोप पत्र को चुनौती दी गई थी। मामले की सुनवाई कर रहे न्यायमूर्ति अनीस कुमार गुप्ता ने कुमार की याचिका खारिज कर दी, जिसमें दिसंबर 2018 में आगरा में उनके खिलाफ दायर आरोपपत्र को चुनौती दी गई थी। आरोपपत्र एक महिला द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत पर आधारित था, जिसने कुमार पर उसे बेहोश करके उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने और बाद में शादी का झांसा देकर उसका शोषण करने का आरोप लगाया था।
6. वैवाहिक जीवन में भी पति और पत्नी को निजता का मौलिक अधिकार
मद्रास हाईकोर्ट ने एक मामले के सुनवाई में कहा कि निजता के मौलिक अधिकार में पत्नी की भी निजता शामिल है। जस्टिस जी.आर. स्वामीनाथन ने एक व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत उसकी पत्नी के कॉल रिकॉर्ड को साक्ष्य मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि पति ने पत्नी की कॉल हिस्ट्री से जुड़ी जानकारी चुपके से हासिल की और इस तरह पत्नी की निजता का उल्लंघन किया है। अदालत ने टिप्पणी की कि वैवाहिक संबंधों का आधार विश्वास है। अदालत ने इस बात पर भी जोर दिया कि महिलाओं की अपनी एजेंसी है। उन्हें अधिकार है कि उनके निजी स्थान का अतिक्रमण न किया जाए।
7. वीर्य की अनुपस्थिति का मतलब यह नहीं कि बलात्कार नहीं हुआ
पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा कि यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO Act) के तहत यौन उत्पीड़न के मामले में सर्वाइवर की गवाही पर सिर्फ इस आधार पर सवाल नहीं उठाया जा सकता कि डीएनए रिपोर्ट में वीर्य (सीमन) नहीं पाया गया। जस्टिस सुरेश्वर ठाकुर और जस्टिस सुदीप्ति शर्मा की खंडपीठ ने कहा कि जब नाबालिग सर्वाइवर पर यौन उत्पीड़न का कोई मामला बनता है तो अभियोक्ता के योनि स्वैब पर सीमन का पता लगाना आवश्यक नहीं है। नतीजन नाबालिग सर्वाइवर के योनि स्वैब पर किसी भी तरह के दोषसिद्ध सीमन की अनुपस्थिति भी अभियोक्ता की गवाही की साक्ष्य प्रभावकारिता को खत्म नहीं करती। न्यायलय 8 वर्षीय नाबालिग के बलात्कार के मामले में सुनवाई कर रही थी जिसमें आरोपी को 20 वर्ष की कठोर कारावास की सजा सुनाई गई।
8. ‘बाल पोर्नोग्राफी’ को ‘बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री’ से बदलें
सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाई कोर्ट के उस विवादित फ़ैसले को खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि नाबालिग से जुड़ी यौन सामग्री को डाउनलोड करना और रखना कोई अपराध नहीं है। साथ ही कोर्ट ने संसद से सभी संबंधित कानूनों के तहत “बाल पोर्नोग्राफ़ी” शब्द को “बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री (CSEAM)” से बदलने के लिए अध्यादेश जारी करने का आग्रह किया। फ़ैसले में कहा गया कि शब्दावली में बदलाव समाज और कानूनी व्यवस्था में बाल शोषण के गंभीर मुद्दे को समझने और संबोधित करने के तरीके में एक महत्वपूर्ण बदलाव लाएगा।
9.यौन उत्पीड़न मामलों को समझौतें पर खारिज नहीं किया जा सकता
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रतिद्वंद्वी पक्षों के बीच समझौता होने के बाद यौन उत्पीड़न का मामला बंद नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसे अपराधों का समाज पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। सर्वोच्च अदालत ने यह टिप्पणी राजस्थान उच्च न्यायालय के उस फैसले को खारिज करते हुए की जिसमें एक स्कूल शिक्षक के खिलाफ पोक्सो के तहत मामला रद्द कर दिया गया था। यह मामला उसके और नाबालिग सर्वाइवर के पिता के बीच समझौता होने के बाद रद्द किया गया था।
10. कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न विरोधी नियमों के क्रियान्वयन का आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में देशभर में कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम के दिशा-निर्देशों को लागू करने के निर्देश दिए। कोर्ट ने निर्देश दिया कि सभी सरकारी विभागों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में आंतरिक शिकायत समितियां गठित की जाएं। इसके अलावा, शीबॉक्स वेबसाइट बनाने का भी निर्देश दिया गया, जहां महिलाएं यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज करा सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न विरोधी नियमों के क्रियान्वयन का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को अपने आदेश की निगरानी करने के लिए 31 मार्च तक का समय दिया है। इसमें सार्वजनिक और निजी दोनों संगठनों का राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण शामिल है, ताकि उन लोगों की पहचान की जा सके जिन्होंने यौन उत्पीड़न की शिकायतों को संबोधित करने के लिए अभी तक आंतरिक शिकायत समितियों का गठन नहीं किया है।
अदालत के दिए इन फैसलों से कानूनी प्रक्रिया पर जनता का विश्वास स्थापित होता है और कोई सर्वाइवर महिला अपनी लड़ाई लड़ने के लिए हिम्मत जुटा पाती है। ऐसे प्रगतिशील फैसलों की उम्मीद जनता न्यायालय से करती है। जब किसी एक व्यक्ति विशेष कर हाशिये के समुदाय के किसी को जीत मिलती है तो लाखों की उम्मीद बंध जाती है और लोग अपने हक के लिए आवाज उठा पाते हैं।