समाजकानून और नीति महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालयों की कमी पर राजस्थान हाईकोर्ट का स्वत: संज्ञान

महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालयों की कमी पर राजस्थान हाईकोर्ट का स्वत: संज्ञान

राजस्थान हाई कोर्ट ने टिप्पणी की कि इतने सारे प्रावधानों और योजनाओं के बावजूद अभी तक महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालयों की पर्याप्त व्यवस्था नहीं की गई है। यह न सिर्फ़ बुनियादी ढांचे की कमी को दर्शाता है बल्कि इस तरफ भी इशारा करता है कि समाज में महिलाओं की ज़रूरतों को किस तरह नज़रअंदाज किया जाता है। हाई कोर्ट ने इसे महिला अधिकारों के प्रति उदासीनता और लापरवाही के तौर पर बताया।

राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बेंच में हाल ही में एक ऐसे मामले में स्वतः संज्ञान लिया जो कि महिलाओं की सेहत और गरिमापूर्ण जीवन के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। दरअसल हाईकोर्ट ने महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालयों की कमी की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए इससे होने वाली समस्याओं को रेखांकित किया है। हाई कोर्ट ने 27 नवंबर 2024 को एक हिंदी दैनिक समाचार पत्र में छपी ख़बर के आधार पर यह कदम उठाया है। ख़बर में महिलाओं के लिए शौचालय की कमी की वजह से होने वाली समस्याओं के बारे में उल्लेख किया गया था। इसके अनुसार कार्यस्थल पर उपयुक्त शौचालय न होने से महिला कर्मचारियों को मजबूरन पानी पीने में कटौती करनी पड़ती है, जिससे उन्हें अनेक प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के होने का जोख़िम बढ़ जाता है। राजस्थान हाईकोर्ट की यह पहल महिला अधिकारों को सुनिश्चित करने की दिशा में उल्लेखनीय माना जा रहा है।

मामले की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड ने संविधान के मौलिक अधिकारों के तहत अनुच्छेद 21 का उल्लेख किया। जिसके अनुसार उन्होंने शौचालय की कमी को गरिमापूर्ण जीवन जीने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन माना। उन्होंने केंद्र और राज्य सरकारों की आलोचना करते हुए राजस्थान नगर पालिका अधिनियम 2009 का जिक्र भी किया, जिसके तहत स्वच्छ और कार्यशील शौचालय की उपलब्धता को लेकर स्थानीय नगर निकायों की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही की भी बात की। इसके अलावा इन्होंने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 47 का भी हवाला दिया। अनुच्छेद 47 राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों से संबंधित है जिसके तहत राज्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों के स्वास्थ्य और पोषण को सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी कदम उठाएगा। राजस्थान हाई कोर्ट ने टिप्पणी की कि इतने सारे प्रावधानों और योजनाओं के बावजूद अभी तक महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालयों की पर्याप्त व्यवस्था नहीं की गई है। यह न सिर्फ़ बुनियादी ढांचे की कमी को दर्शाता है बल्कि इस तरफ भी इशारा करता है कि समाज में महिलाओं की ज़रूरतों को किस तरह नज़रअंदाज किया जाता है। हाई कोर्ट ने इसे महिला अधिकारों के प्रति उदासीनता और लापरवाही के तौर पर बताया।

हाई कोर्ट के अनुसार मौजूदा शौचालयों की स्थिति को सुधारने के साथ ही नए शौचालय भी बनाए जाने चाहिए। ये स्वच्छ, हवादार और पर्यावरण के अनुकूल हों और इसके साथ ही उनकी सुरक्षा भी सुनिश्चित की जानी चाहिए।

शौचालयों की कमी का महिला स्वास्थ्य पर प्रभाव

हाईकोर्ट ने शौचालयों की कमी जैसी समस्याओं का स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की ओर भी प्रकाश डाला। सार्वजनिक शौचालय के उपलब्ध न होने या सही स्थिति में न होने की वजह से महिलाओं को सार्वजनिक जगहों पर घंटों पेशाब रोकना पड़ता है। सार्वजनिक जगह पर शौचालय का इस्तेमाल न करना पड़े इस वजह से बहुत सारी महिलाएं पानी पीना ही कम कर देती हैं। इन सब का सीधा असर उनके सेहत पर पड़ता है जिससे उन्हें यूरिनरी ट्रैक्ट इनफेक्शन (UTI), किडनी स्टोन, वेजाइनल इनफेक्शन और दूसरी तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कोर्ट ने यह भी माना कि बहुत बार शौचालय कागजों पर तो बने होते हैं पर हक़ीक़त में ऐसे होते हैं कि उनका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। कहीं पर सफाई नहीं होती तो कहीं पानी का अभाव होता है, जिस वजह से महिलाएं इनका इस्तेमाल करने से बचती हैं। शौचालयों में सफाई, पानी और सुरक्षित माहौल नहीं मिल पाने और बहुत बार उनमें ताला लगे होने से महिलाएं उनका इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं। ऐसे में संबंधित संस्थाओं को महिलाओं के लिए सार्वजनिक जगहों पर स्वच्छ और कार्यशील शौचालयों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए।

सार्वजनिक-निजी भागीदारी

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

महिलाओं के लिए क्रियाशील शौचालयों की कमी को दूर करने के लिए हाईकोर्ट ने सरकार को सार्वजनिक-निजी भागीदारी यानी पीपीपी मॉडल अपनाने का भी सुझाव दिया। इसके तहत सार्वजनिक और निजी संस्थानों के भी सहयोग से महिलाओं के लिए शौचालय की व्यवस्था और रखरखाव किया जाना एक प्रभावी कदम साबित हो सकता है। शौचालयों के निर्माण से लेकर इनकी नियमित सफाई और सही देखभाल के लिए यह मॉडल कारगर साबित हो सकता है। इसके साथ ही बड़े पैमाने पर जागरुकता कार्यक्रमों का भी आयोजन करना चाहिए। स्थानीय समुदायों और सामाजिक संगठनों की भागीदारी बढ़ाना भी इस दिशा में एक अच्छा उपाय साबित हो सकता है। स्थानीय समुदायों को जोड़ने से इनकी नियमित साफ-सफाई और सुरक्षा सुनिश्चित करना आसान हो सकता है।

सरकारी की जवाबदेही कब?

राजस्थान हाईकोर्ट की पहल ने सरकार की जवाबदेही को लेकर भी सवाल खड़े किए हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को हाई कोर्ट की इस पहल का स्वागत करते हुए जितनी जल्दी संभव हो इस दिशा में अपनी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही को समझना चाहिए। सरकार को इस मुद्दे की गहराई को समझते हुए इसे न सिर्फ़ महिला अधिकार बल्कि नागरिक अधिकार और मानवाधिकार के तौर पर देखना चाहिए। साथ ही संविधान के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों के तहत गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार को ज़मीनी स्तर पर लागू करने के लिए स्वच्छ और क्रियाशील शौचालयों की उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए। सरकार को ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में महिलाओं के लिए पर्याप्त संख्या में सार्वजनिक शौचालय की उपलब्धता, साफ सफाई और रखरखाव के लिए नियमित तौर पर बजट आवंटन करना चाहिए। इसके साथ ही समय-समय पर सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थाओं के सहयोग से फीडबैक लेना भी ज़रूरी है जिससे ज़रूरत के अनुसार संसाधनों की उपलब्धता और संबंधित कर्मचारियों की लापरवाही पर उचित कार्रवाई भी की जा सके।

इस समस्या का समाधान करने के लिए सबसे पहले सार्वजनिक जगहों पर एक निश्चित दूरी पर स्वच्छ और क्रियाशील शौचालयों को बनाने के साथ ही इनकी नियमित देखभाल और साफ सफाई भी ज़रूरी है। हाई कोर्ट के अनुसार मौजूदा शौचालयों की स्थिति को सुधारने के साथ ही नए शौचालय भी बनाए जाने चाहिए। ये स्वच्छ, हवादार और पर्यावरण के अनुकूल हों और इसके साथ ही उनकी सुरक्षा भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। महिलाओं के लिए बनाए गए सार्वजनिक शौचालय में उचित रोशनी, नियमित सफाई, माहवारी के निपटान की व्यवस्था और वहां महिला कर्मचारियों की तैनाती इनके इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी कदम साबित हो सकते हैं। इन सब उपायों को अपनाने से काफ़ी हद तक इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।

न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड ने संविधान के मौलिक अधिकारों के तहत अनुच्छेद 21 का उल्लेख किया। जिसके अनुसार उन्होंने शौचालय की कमी को गरिमापूर्ण जीवन जीने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन माना।

राजस्थान हाईकोर्ट का इस तरह महिलाओं के मुद्दे पर स्वतः संज्ञान लेना इनके गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार की दिशा में काफ़ी महत्त्वपूर्ण कदम है। महिलाओं के लिए स्वच्छ और क्रियाशील सार्वजनिक शौचालय की कमी न सिर्फ़ उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती है बल्कि इससे उनका मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। इससे महिलाओं में तनाव, चिंता अवसाद जैसी मानसिक स्वास्थ्य संबंधित समस्याएं होने का ख़तरा भी बढ़ जाता है। सार्वजनिक शौचालयों की कमी की वजह से उनकी गतिशीलता पर भी असर पड़ता है और काम करने के मौके भी प्रभावित होते हैं। इस तरह, इससे एक नागरिक के तौर पर महिलाओं के समता और समानता के अधिकार पर भी असर पड़ता है। 

ये सारी समस्याएं एक दूसरे से इस तरह जुड़ी होती हैं कि एक का असर दूसरे पर पड़ता है। इसलिए सार्वजनिक स्थानों पर पर्याप्त संख्या में स्वच्छ और क्रियाशील शौचालय की उपलब्धता न केवल महिलाओं का मुद्दा है बल्कि एक सभ्य समाज के तौर पर देश के विकास के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। राजस्थान हाईकोर्ट की यह पहल दूसरे राज्यों यहां तक कि पूरे देश के लिए एक मिसाल बन सकती है। दूसरी राज्य सरकारों और केंद्र सरकार को इस से सबक लेना चाहिए और देश भर में महिलाओं समेत सभी जेंडर्स के लिए सार्वजनिक स्थानों पर पर्याप्त संख्या में स्वच्छ और क्रियाशील शौचालयों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए व्यापक स्तर पर प्रयास किए जाने चाहिए।

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