भारतीय लोकतंत्र की आत्मा हमारे संविधान में है, जो हर नागरिक को न्याय का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। यह न्याय केवल कानून की किताबों में नहीं है, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक समानता के माध्यम से हर व्यक्ति की गरिमा बनाए रखने का वादा करता है। लेकिन जब वही न्यायपालिका, जो संविधान के आदर्शों की संरक्षक है, रूढ़िवादी सोच और पक्षपात के शिकंजे में फंसकर फैसले सुनाने लगती है, तो न्याय एक मज़ाक बनकर रह जाता है। आज, 2024 में, कई अदालती फैसले न केवल पितृसत्तात्मक मानसिकता का परिचय दिया, बल्कि महिलाओं, अल्पसंख्यकों और हाशिए पर खड़े समुदायों को दोहरी मार झेलने पर मजबूर किया। यह समय है यह पूछने का कि क्या हमारी न्यायपालिका अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन कर रही है, या यह भी रूढ़िवादिता और पूर्वाग्रहों का शिकार हो चुकी है? इस लेख के माध्यम से आज हम उन फैसलों पर बात करेंगे जहां रूढ़िवाद की मिली झलक।
1. नाबालिग लड़की के अपहरण और बलात्कार के आरोपी को जमानत
इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा नाबालिग लड़की के अपहरण और बलात्कार के आरोपी को जमानत देने का फैसला न केवल न्याय व्यवस्था के लिए बल्कि समाज के लिए भी खतरनाक संकेत है। यह निर्णय बलात्कार जैसे गंभीर अपराध को सामान्य बनाने की कोशिश करता है और सर्वाइवर के अधिकारों का घोर उल्लंघन करता है। नाबालिग के साथ शादी का झांसा देकर बलात्कार करना एक गंभीर अपराध है, जिसके लिए सजा होनी चाहिए, न कि इसे नजरअंदाज किया जाना चाहिए। यह फैसला सर्वाइवर की सहमति और उसके मानसिक स्वास्थ्य को पूरी तरह अनदेखा करता है। साथ ही, यह पितृसत्तात्मक सोच को और बढ़ावा देता है, मानो एक महिला का शरीर पुरुष के अधिकार क्षेत्र में आता है। यह फैसला कानून के उस मूल सिद्धांत का भी उल्लंघन करता है, जो अपराधियों को दंडित करने और सर्वाइवरों को न्याय प्रदान करने की बात करता है। सर्वाइवर के मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर इस फैसले का नकारात्मक प्रभाव गहरा और स्थायी हो सकता है।
2. नाबालिग लड़की के अंतःवस्त्र उतारना और उसके सामने नग्न होना ‘बलात्कार करने का प्रयास’ नहीं
राजस्थान हाई कोर्ट ने नाबालिग लड़की के सामने नग्न होने और कपड़े उतारने को “बलात्कार के प्रयास” की श्रेणी में न रखने का फैसला सुनाया। यह निर्णय बलात्कार की गंभीरता को केवल शारीरिक प्रवेश तक सीमित करता है, जबकि बलात्कार के प्रयास का मानसिक और शारीरिक आघात भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। अदालत ने अपराधी की नीयत और कृत्य को नजरअंदाज करते हुए इसे बलात्कार के प्रयास से बाहर कर दिया। यह फैसला सर्वाइवर के मानसिक और शारीरिक आघात को नकारता है और एक खतरनाक संदेश देता है कि बलात्कार का प्रयास केवल शारीरिक प्रवेश से ही माना जाएगा। यह निर्णय न केवल कानून की व्यापक व्याख्या की कमी को दर्शाता है, बल्कि यह महिलाओं की गरिमा और सुरक्षा के प्रति न्यायपालिका की असंवेदनशीलता को भी उजागर करता है।
3. सुप्रीम कोर्ट का फैसला: हिंदू विवाह की वैधता
सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू विवाह अधिनियम के तहत हिंदू विवाह के लिए आवश्यकताओं को स्पष्ट किया। न्यायालय ने कहा कि सप्तपदी जैसे वैध समारोह के अभाव में हिंदू विवाह को मान्यता नहीं दी जा सकती, जिसमें जोड़े पवित्र अग्नि के चारों ओर सात कदम रखते हैं। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि हिंदू विवाह एक ‘संस्कार’ और एक पवित्र संस्कार है, और इसे भारतीय समाज में एक महान मूल्य की संस्था के रूप में माना जाना चाहिए। अदालत का यह फैसला दो प्रशिक्षित वाणिज्यिक पायलटों से जुड़े एक मामले के जवाब में आया, जिन्होंने वैध हिंदू विवाह समारोह किए बिना तलाक मांगी थी।
4. पत्नी को ‘भूत’, ‘पिशाच’ कहना क्रूरता नहीं
पटना हाई कोर्ट ने पत्नी को “भूत” या “पिशाच” कहने को क्रूरता न मानने का फैसला सुनाया। यह निर्णय मानसिक और भावनात्मक उत्पीड़न को गंभीरता से न लेने का उदाहरण है। अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किसी व्यक्ति के आत्मसम्मान और मानसिक स्थिति पर गहरा प्रभाव डाल सकता है। कोर्ट का दृष्टिकोण मानसिक उत्पीड़न की गंभीरता को नकारता है, जो कि शारीरिक उत्पीड़न जितना ही हानिकारक हो सकता है। यह निर्णय खासकर महिलाओं के लिए चिंता का विषय है, जो मानसिक उत्पीड़न का सामना करती हैं। ऐसे शब्दों का इस्तेमाल उन्हें नियंत्रित और अपमानित करने के लिए किया जाता है। न्यायपालिका को इस तरह के मानसिक उत्पीड़न को क्रूरता मानते हुए इसे कानूनी सुरक्षा के दायरे में लाना चाहिए।
5. पति की मां और दादी की सेवा करना पत्नी का दायित्व
झारखंड उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में यह कहते हुए कि भारतीय संस्कृति का हिस्सा है कि ‘बुजुर्गों की सेवा’ और पति की मां या दादी की सेवा करना पत्नी का कर्तव्य है और अलग रहने की अनुचित मांग पर जोर नहीं देना चाहिए, इसलिए पत्नी को भरण-पोषण देने से इनकार कर दिया। झारखंड उच्च न्यायालय ने सोमवार को एक व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी को 30,000 रुपये और अपने नाबालिग बेटे को 15,000 रुपये के भरण-पोषण आदेश के खिलाफ दायर आपराधिक पुनरीक्षण याचिका पर यह आदेश पारित किया। झारखंड हाई कोर्ट का निर्णय पारंपरिक और पितृसत्तात्मक मान्यताओं को बढ़ावा देता है। यह फैसला मनुस्मृति का संदर्भ देकर महिलाओं की भूमिका को केवल देखभाल तक सीमित करता है। यह न केवल लैंगिक समानता के खिलाफ है, बल्कि महिलाओं की एजेंसी का भी उल्लंघन करता है। इस तरह के फैसले समकालीन कानूनी ढांचे से मेल नहीं खाते, जो लैंगिक समानता और परिवार के भीतर जिम्मेदारियों के न्यायसंगत वितरण को बढ़ावा देते हैं।
6. मैरिटल रेप को अपराध के रूप में मान्यता नहीं
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वह भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में दंडात्मक प्रावधानों की संवैधानिक वैधता पर फैसला करेगा, जो बलात्कार के अपराध के लिए पति को अभियोजन से छूट प्रदान करते हैं, अगर वह अपनी पत्नी, जो नाबालिग नहीं है, को उसके साथ यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की अगुवाई वाली शीर्ष अदालत की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने याचिकाकर्ताओं से केंद्र की इस दलील पर विचार मांगे कि इस तरह के कृत्यों को दंडनीय बनाने से वैवाहिक संबंधों पर गंभीर असर पड़ेगा और विवाह संस्था में गंभीर गड़बड़ी पैदा होगी। सरकार द्वारा मैरिटल रेप को अपराध न मानने का तर्क महिलाओं की एजेंसी और उनके मौलिक अधिकारों को नकारता है। यह कहना कि इसे अपराध मानने से विवाह संस्था कमजोर होगी, महिलाओं की सुरक्षा और गरिमा को नजरअंदाज करता है। यह दृष्टिकोण पितृसत्तात्मक सोच को मजबूत करता है और महिलाओं के खिलाफ हिंसा को वैध बनाता है।
7. अदालत का बलात्कार आरोपी से सर्वाइवर की शादी का प्रस्ताव
हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक मामले में बलात्कार आरोपी व्यक्ति को इस शर्त पर जमानत दे दी कि वह बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम (पॉस्को) सर्वाइवर से शादी करेगा। न्यायालय ने कहा कि किशोर संबंधों से जुड़े ऐसे मामलों में सूक्ष्म दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। आरोपी शख्स पर शादी का झांसा देकर एक किशोरी से बलात्कार करने का आरोप था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आरोपी को जमानत इस आधार पर दी, क्योंकि उसने सर्वाइवर लड़की से शादी करने और उसके नवजात शिशु की देखभाल करने का वादा किया था। न्यायमूर्ति कृष्ण पहल ने आरोपी को बच्चे के नाम पर खोली जाने वाली सावधि जमा के लिए ₹2 लाख का भुगतान करने का भी निर्देश दिया।
इन सभी फैसलों का सामूहिक संदेश यह है कि भारतीय न्यायपालिका में पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और रूढ़िवादी सोच का प्रभाव गहरा है। न्यायपालिका को सिर्फ महिलाओं की ही नही बल्कि हाशिये के समुदायों की गरिमा, सुरक्षा, और अधिकारों की रक्षा के लिए संवेदनशील और प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। यह समय है कि हमारे कानून और न्याय व्यवस्था लैंगिक समानता और समाज में महिलाओं के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध हों।