ग्राउंड ज़ीरो से गाजीपुर लैंडफिलः कूड़े के पहाड़ पर काम करने वाले श्रमिकों की असुरक्षित जिंदगी

गाजीपुर लैंडफिलः कूड़े के पहाड़ पर काम करने वाले श्रमिकों की असुरक्षित जिंदगी

गाजीपुर डेयरी फार्म के पास झुग्गी बस्ती के परिवारों को कचरे का पहाड़ रोटी देता है। इतना ही नहीं इस बस्ती के लोग अगर कचरे का काम नहीं करना चाहते हैं तो इन्हें यह काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। उन्हें डराया और धमकाया भी जाता हैं।

इंसानों की बदलती जीवन शैली बड़ी मात्रा में कचरा पैदा कर रही है और इसका प्रबंधन करना एक जटिल समस्या बनती जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक़ देश मे हर साल लगभग 62 मिलियन टन कचरा उत्पन्न हो रहा है, जिसमें से 75 फीसदी से अधिक को रीसाइकल नहीं किया जाता। लगभग 31 मिलियन टन कचरा लैंडफिल साइट्स में फेंक दिया जाता है। ठोस कचरा प्रबंधन शहरों को स्वच्छ बनाए रखने के लिए देश में नगर पालिकाओं द्वारा प्रदान की जाने वाली बुनियादी आवश्यक सेवाओं में से एक है। हालांकि, लगभग सभी नगरपालिका प्राधिकरण ठोस कचरे को शहर के भीतर या बाहर के डंपयार्ड में अनियमित तरीके से जमा कर देते हैं। इस तरह की प्रणाली का प्रयोग करने के कारण शहरों के बाहरी इलाके कचरे के ढ़ेरों में तब्दील हो रहे हैं। 

कचरे का निपटान एक बड़ी समस्या है क्योंकि कचरा संग्रहण ढांचा नहीं है। हालांकि कई राज्यों में कचरे को अलग-अलग करने का प्रावधान है, लेकिन केवल लगभग 30% कचरे को सही तरीके से छांटा जाता है, जिसके परिणामस्वरूप प्लास्टिक लैंडफिल में पहुंच जाता है, जबकि इसे रीसाइकल किया जा सकता है। इस तरह से शहर दर शहर कचरे के पहाड़ जन्म ले रहे हैं। भारत में उत्पन्न होने वाले 90 फीसदी से अधिक नगर निगम ठोस कचरे का निष्पादन लैंडफिल स्थलों पर होता है, और वह भी अक्सर सबसे अस्वच्छ तरीके से। नगर निगम ठोस कचरा प्रबंधन में लैंडफिल्स की प्रक्रिया सबसे असंगठित होते हुए भी सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया तंत्र पूरी तरह से अव्यवस्थित है।

मुन्नी का कहना है, “मैं अक्सर खत्ते में दोपहर को जाती हूं, वैसे मनमर्जी का है। लेकिन एक बार जाने के चौकीदार 20 रूपये लेता है। कम से कम छह से सात घंटे काम करके ही आते है ताकि दिन का 200-300 बन जाए। कभी रात में जाते है। अभी फिलहाल यहां माल मिल रहा है तो खत्ते पर नहीं जाते है। हम रोज कमाते हैं और उससे खाते है यही हमारा जीवन है।”

बात अगर देश की राजधानी की करे तो पूर्वी-दिल्ली के इलाके के पास बने कूड़ा-पहाड़ का हाल भी कुछ ऐसा ही है। यह गाजीपुर लैंडफिल के नाम से जाना जाता है। गाजीपुर लैंडफिल की डंपसाइट 28 हेक्टेयर में फैली हुई है। साल 1984 से ठोस नगरपालिका कचरे निपटान के लिए इसका इस्तेमाल हो रहा है। इसकी वहन क्षमता बहुत पहले पार कर चुकी है। रोज लगभग 2,300 टन ताजा ठोस कचरा यहां डाला जा रहा है। 31 जुलाई 2022 में नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के समक्ष पेश की गई अंतरिम प्रोग्रेस रिपोर्ट ऑन फॉयर्स एट गाजीपुर लैंडफिल रिपोर्ट के अनुसार 2,200-2,300 टन प्रतिदिन ताजा, बिना छांटा हुआ और आंशिक रूप से छांटा हुआ ठोस कचरा डाले जाने से समस्या और गंभीर हो रही है। रिपोर्ट में यह लिखा है कि गाजीपुर कचरा स्थल सबसे बड़ा और सबसे पुराना डंपिंग ग्राउंड है। यह एक अवैज्ञानिक स्थल है जिसे नगर ठोस कचरा (प्रबंधन और संचालन) नियम, 2000 के शेड्यूल तीन और ठोस कचरा प्रबंधन नियम, 2016 के शेड्यूल एक के अनुसार डिज़ाइन नहीं किया गया है। रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि कचरा बीनने वाले अक्सर लैंडफिल स्थलों पर आते हैं। 

असंगठित और गैरकानूनी तरीके से बड़ी संख्या में लोग गाजीपुर लैंडफिल में कचरा बीनने का काम करते हैं। इस इलाके में रहने वाले बच्चें, महिला, पुरुष सबका जीवन कचरे के इर्द-गिर्द है। गाजीपुर डेयरी फार्म के पास झुग्गी बस्ती के परिवारों को कचरे का पहाड़ रोटी देता है। इतना ही नहीं इस बस्ती के लोग अगर कचरे का काम नहीं करना चाहते हैं तो इन्हें यह काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। उन्हें डराया और धमकाया भी जाता हैं। गाजीपुर लैंडफिल के पास बसी बस्ती के कचरा प्रबंधन का काम में महिलाएं भी उतनी ही संख्या में शामिल हैं जितने पुरुष और यहां के बच्चे हैं। कचरा बीनने वाले सभी लोग हाशिये के समुदाय से ताल्लुक रखते है जो देश के अलग-अलग राज्यों से आकर यहां बसे हैं। कचरा प्रबंधन के क्षेत्र में अगर महिलाओं की बात करे तो यहां श्रम का लैंगिक विभाजन समाज में पारंपरिक पुरुष और महिला भूमिकाओं जैसा ही दिखाता है। महिलाएं आमतौर पर सबसे निचले स्तर के काम में लगी होती हैं जैसे लैंडफिल स्थलों से कचरा बीनना यानी छांटना। दूसरी ओर जो पुरुष अधिक आय वाले और निर्णय लेने वाले पदों पर वह एक विशेष वर्ग से ही आते हैं। संगठित रूप जुड़े पुरुषों के हिस्से ट्रक चलाना, कचरा व्यापारी, मरम्मत के व्यापार या रीसाइकलिंग समानों की खरीद और बेच से जुड़ी अन्य भूमिकाओं में काम हैं। इस तरह के श्रम विभाजन में लैंगिक और वर्ग का अंतर साफ दिखता है। यह विभाजन हाशिये के समुदाय की महिलाओं और पुरुषों दोनों को सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा से वंचित रखता है। 

लैंडफिल में काम करने वाली महिलाओं का जीवन

ओशन कंज़र्वेंसी द्वारा पुणे में किए गए एक सामाजिक-आर्थिक अध्ययन के अनुसार सड़क पर कचरा बीनने वालों में 90 प्रतिशत महिलाएं हैं। इनमें से 25 प्रतिशत महिलाएं विधवा हैं, 30 प्रतिशत महिलाएं महिला-प्रधान परिवारों से हैं, और 8 प्रतिशत अकेली कमाने वाली हैं। सभी महिलाएं हाशिये के समुदाय और जातियों से संबंधित थीं और उन्होंने यह काम अपनी इच्छा से नहीं चुना था। बात अगर दिल्ली में स्थित गाजीपुर लैंडफिल की करे तो यहां बड़ी संख्या में महिलाएं काम करती हैं। उनका कहना है कि यह मजबूरी में चुना हुआ काम है अगर कोई दूसरा विकल्प होगा तो ये काम छोड़ देंगे। दूसरी ओर गाजीपुर लैंडफिल के अंदर जाने वाले मुख्य द्वार पर बने दफ़्तर में बैठने वाले कर्मचारियों और अधिकारियों के अनुसार इस जगह कोई महिला काम नहीं करती है। कचरा बीनने के लिए डंपसाइट एक प्रतिबंधित क्षेत्र है। खतरनाक और जहरीली गैस होने की वजह से वहां किसी को जाने की अनुमति नहीं है। लेकिन झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोगों का मुख्य काम लैंडफिल में जाकर या फिर गाजीपुर डेयरी फार्म की गली नंबर सात के पास खाली पड़ी जगह पर पड़े कचरे को बीनना है। 

“मुझे याद नहीं है कब काम शुरू किया”

तस्वीर में अमीना, तस्वीर साभारः पूजा राठी

गाजीपुर लैंडफिल में काम करने वाली अमीना को याद नहीं है कि वह कब से कचरे का काम कर रही है। उनके पति भी यही काम करते थे, उनके बच्चे भी कचरे प्रबंधन का ही काम करते हैं। उनका कहना है, “कूड़े में काम करना किसको पसंद है, सबकी गंदगी, बद्दू हम सहते हैं। सही तरीके से तो बता भी नहीं सकते कि कब काम शुरू किया था। कूड़े में काम करते हुए हम भी कूड़ा हो गए हैं। लोग हमें हिराकत की नज़र से देखते है, किसी को हमारी परेशानी नहीं दिखती है। हमारा काम कोई काम नहीं है, न हमारी मेहनत को कुछ माना जाता है। भूख मिटाने के लिए पैसा लगता है, कूड़ा बीनकर वो मिलता है उसी से हम लोग जी रहे हैं। इसके अलावा कुछ नहीं है हमारे पास। अब कोई शिकायत भी नहीं रही है और बहुत सोचते ही नहीं है तो किसी तरह का कोई सवाल नहीं है।” 

“सही मजदूरी की मांग करने पर हमें डराया-धमकाया जाता है”

कचरे के ढेर पर बैठी सबेरा, तस्वीर साभारः पूजा राठी

मूल रूप से पश्चिम बंगाल की रहने वाली सबेरा गाजीपुर लैंडफिल के पास जेजे बस्ती में रहती हैं। वह और उनके पति दोनों कचरा बीनने का काम करते हैं। इनके दो बच्चे है, जो बंगाल में अपने दादा के घर रहते है ताकि वे वहां पढ़ाई कर सके। सर्दी की हल्की धूप में पुरानी प्लास्टिक, टीन, इजेक्शन सुई जैसी चीजों को अलग-अलग करते हुए हमारे सवालों का जवाब देती सबेरा थोड़ी तल्खी में कहती है, “हमें तो करना, खाना है कोई कुछ नहीं देगा। काम नहीं करेंगे तो बच्चे को कैसे पालेंगे। वैसे तो हमारी जिंदगी तबाह ही है। हम लोग काम कर रहे हैं वो (ठेकेदार) अपनी मर्जी से माल (बीना हुआ कचरा) ले रहे हैं। बस ठीक है हमें पता है यही करना है, कुछ और होने वाला नहीं है और हम ज्यादा सोचते भी नहीं है।” 

ठेकेदारों के बारे में बोलते हुए सबेरा का आगे कहना है, “अगर हम माल नहीं देंगे तो घर पर जो आदमी होंगे चाहे पति हो उसको धमकाते है, मारेगा, उठा कर ले जाते हैं। हम काम पर नहीं जाते हैं, मतलब कुछ और करने का सोचते भी है, तो हम छोड़ नहीं सकते हैं। वह पूछता है माल क्यों नहीं दे रहे हो, काम क्यों नहीं कर रहे हो, काम करो जाकर। यहां रहना है तो हमें कचरे का काम ही करना है। हम लोगों ने एक बार जाकर बोला था कि हमारे माल का रेट सही नहीं है, तब बोल देता है कि हाँ सही लगा देंगे, तुम लोग काम करो लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं है। 20 रूपये, 15 रूपये, 10 रूपये के हिसाब से हमें देता है वहीं हमारा माल 40, 50, 30 रूपये, 35 रूपये के हिसाब से जाता है। अभी फिलहाल एक साल से 20 रूपये, 15 रूपये, 10 रूपये जा रहा है। इससे हम लोगों को कोई फायदा नहीं है। जितना कमाते है उतने में बच्चे का पेट भी नहीं भरता है। खत्ते (गाजीपुर लैंडफिल का मुख्य हिस्सा) में जाने के लिए 20 रूपये चौकीदार को देने पड़ते है। अगर हम रेट के लिए बोलने की कोशिश करते है तो हमें धमकाया जाता है। जब औरतें बोलती है तो उनके हसबैंड को मारते, धमकाते है। इस वजह से सब चुपचाप काम में लगे रहते हैं।” 

“खत्ते में जाने के चौकीदार 20 रूपये लेता है”

कचरा बीनने का काम करती मुन्नी, तस्वीर साभारः पूजा राठी

कचरा प्रबंधन के काम में महिलाओं को आमतौर पर कुशल और अधिक समय लेने वाले कामों की जिम्मेदारी दी जाती है। डंपसाइड से अलग कंपनियों में भी उन्हें रीसाइकलिंग सामग्री को छांटने, साफ करने, अलग करने, पैक करने तक सीमित किया जाता है। लोडिंग और अनलोडिंग जैसे अधिक शारीरिक कार्यों के लिए प्राथमिकता पुरुषों को दी जाती है। इस तरह से महिलाएं अधिक थकाऊ और समय लेने वाले काम करती हैं। गाजीपुर डेयरी फार्म के गली नंबर सात के पीछे के खाली पड़ी जगह में सुबह-सुबह काम की शुरुआत करते हुए तेजी से कचरा बीनती 25 वर्षीय मुन्नी बचपन से यही काम कर रही हैं। अपने काम और जीवन के बारे में बताते हुए उनका कहना है, “पेट पालना है, बच्चे पालने है तो करना है। गंदगी हमारे लिए कुछ नहीं है। पहले तो ठीक था अब तो रूपया भी सही नहीं मिलता है। मंहगाई बढ़ रही है लेकिन हमारे माल के दाम गिर रहे हैं।” अपनी दिनचर्या और काम के घंटों के बारे में बोलते हुए मुन्नी का कहना है, “मैं अक्सर खत्ते में दोपहर को जाती हूं, वैसे मनमर्जी का है। लेकिन एक बार जाने के चौकीदार 20 रूपये लेता है। कम से कम छह से सात घंटे काम करके ही आते है ताकि दिन का 200-300 बन जाए। कभी रात में जाते है। अभी फिलहाल यहां माल मिल रहा है तो खत्ते पर नहीं जाते है। हम रोज कमाते हैं और उससे खाते है यही हमारा जीवन है। सुरक्षा, डर इन चीजों के बारे में हम नहीं सोच पाते है। गंदगी में काम करते है शायद शरीर को भी आदत पड़ गई है। आग-गंदगी, बदबू सबकी आदत पढ़ गई है।”

भारत में कचरा प्रबंधन धीमी गति से बढ़ती बड़ी समस्या

गाजीपुर लैंडफिल के पास झुग्गी में कचरे बीनने के लिए बड़े पैकटों में भरा कचरा, तस्वीर साभारः पूजा राठी।

देश की राजधानी दिल्ली हो या कोई बड़ा शहर हर जगह कचरे की समस्या बढ़ती जा रही है। लैंडफिल में विभिन्न प्रकार का कचरा डाला जाता है, जो हम पैदा करते हैं, जैसे प्लास्टिक बैग, कांच की बोतलें, अन्य व्यावसायिक और औद्योगिक कचरा और खाद्य कचरा। इसके अलावा, लकड़ी का कचरा, साफ डामर, रेत, मिट्टी, और निर्माण सामग्री भी लैंडफिल में निपटान के लिए स्वीकृत कचरे के रूप में शामिल हैं। वर्ल्ड बैंक के अनुमान के अनुसार, 2050 तक दुनिया में कुल कचरे का उत्पादन 70 फीसदी तक बढ़ जाएगा। वर्तमान में, केवल 13.5% कचरे को रीसाइक्लिंग किया जाता है और मात्र 5.5 फीसदी कचरे को कम्पोस्ट किया जाता है। भारत में, 2014-15 के दौरान 91 प्रतिशत ठोस कचरे का संग्रह किया गया, जिसमें से केवल 27 प्रतिशत का निपटान किया गया और शेष 73 प्रतिशत को अनियमित रूप से कचरा स्थलों पर फेंक दिया गया। एक अध्ययन के अनुसार, भारत को 2030 तक अपने सभी कचरे के निपटान के लिए बेंगलुरु शहर के आकार के बराबर एक लैंडफिल की आवश्यकता होगी।

कचरा बीनने के लिए डंपसाइट एक प्रतिबंधित क्षेत्र है। खतरनाक और जहरीली गैस होने की वजह से वहां किसी को जाने की अनुमति नहीं है। लेकिन झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोगों का मुख्य काम लैंडफिल में जाकर या फिर गाजीपुर डेयरी फार्म की गली नंबर सात के पास खाली पड़ी जगह पर पड़े कचरे को बीनना है। 

देश में बढ़ते कचरे और अनुमानित वृद्धि को देखते हुए इसे व्यवस्थित करने की आवश्यकता है। साथ ही कचरा प्रबंधन के तरीकों और इससे जुड़े लोगों को ध्यान में रखते हुए व्यवस्थित बदलाव की ज़रूरत है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के एक अध्ययन में पाया गया कि भारत भर में 3,159 ऐसे कचरे के पहाड़ हैं, जिनमें 800 मिलियन टन कचरा भरा हुआ है। यह समस्या इंसानों के द्वारा पैदा की गई है। ऐसा नहीं है इसका समाधान नहीं है लेकिन समाधान के नाम पर देरी, भ्रष्टाचार, कुव्यवस्था और बयानबाजी है। प्रधानमंत्री मोदी भी दिल्ली स्थित कचरे के पहाड़ के बारे में बात कर चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 1 अक्टूबर 2021 को शुरू किए गए स्वच्छ भारत मिशन (शहरी) का लक्ष्य पांच साल की अवधि के अंत तक सभी शहरों को कचरा मुक्त बनाना है।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक स्वच्छ भारत मिशन शहरी 2.0 के पांच साल के कार्यकाल के तीन साल बाद, बड़े शहरों ने अपने पुराने लैंडफिल स्थलों के आधे हिस्से में कोई भी भूमि साफ नहीं की गई है, और अब तक कुल डाले गए कचरे का केवल 38 फीसदी ही उपचारित किया गया है। इस तरह की गति दिखाती है कि भारत में कचरा निदान कितनी धीमी गति से हो रहा है। भारत के पास तकनीक और मशीनरी दोनों मौजूद है लेकिन नीयत की भारी कमी है। यही कमी बहुत से लोगों को एक ऐसा काम करने के लिए मजबूर करती है जो उनके संवैधानिक अधिकारों का भी हनन करता है और उन्हें बेहद दोयम दर्जे का जीवन जीने के लिए मजबूर करता है। कचरा प्रबंधन क्षेत्र को व्यवस्थित करने की आवश्यकता है ताकि यहां काम करने वाले वे लोग जो सबसे हाशिये पर जीवन जी रहे हैं उन्हें आगे बढ़ाया जा सकें। लैडफिल्स एरिया हो या रीसाइक्लिंग और प्रोसेसिंग कंपनियां हर जगह नीति निर्माण में लिंग समावेशी दृष्टिकोण और अनुभवों पर ध्यान देना होगा। कचरा प्रबंधन में काम करने वाले लोगों के स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए नीतियों का निर्माण करना ज़रूरी है ताकि उनके काम को काम समझा जाए। 


नोटः पूजा राठी लाडली मीडिया फेलो हैं। यह लेख लाड़ली मीडिया फेलोशिप 2024 के तहत लिखा गया है। इस लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने निजी हैं जिसका लाडली और यूएनएफपीए से कोई ज़रूरी संबंध नहीं है।

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