भारत जैसे देश में किसी भाई-बहन के रिश्ते की बहुत अहमियत है। लेकिन, बात जब जिम्मेदारियों और जेंडर रोल्स की आती है, तो ये बहन और भाई के लिए एक सी नहीं होती। जहां भारतीय समाज एक पुरुष को अनेक छूट देती है, वहीं उन्हें भावनात्मक तौर पर जकड़ भी देती है। बॉलीवुड ने कई ऐसी फिल्में बनाई जहां भाई अपनी बहन के लिए शादी की तैयारी कर रहा है या उन्हें बचा रहा है। लेकिन, इन दकियानूसी सोच से बाहर जिस फिल्म ने काम करने की कोशिश की है वो है ‘जिगरा’। जिगरा में दिखाया गया है कि महिलाएं अपने साथ- साथ अपने करीबियों की भी रक्षा कर सकती हैं। फिल्म एक भाई-बहन के रिश्ते की कहानी के इर्द-गिर्द घूमती है। फिल्म के डायरेक्टर समाज की रूढ़िवादी विचारधाराओं को तोड़ने की है जिनमें एक महिला का कमजोर होना और रक्षा के लिए दूसरों पर निर्भर रहने की सोच शामिल है। समाज में जहां सिर्फ एक भाई को रक्षक के रूप में देखा जाता है वहीं फिल्म में बहन को भाई की रक्षा करते दिखाया गया है।
फिल्म की कहानी और कलाकारों की भूमिकाएं
बहन की भूमिका में अभिनेत्री आलिया भट्ट (सत्या) और भाई की भूमिका में वेदांग रैना (अंकुर) है। फिल्म के लेखक देबाशीष इरेंगबम और वसन बाला है और निर्माता वसन बाला है। फिल्म की शुरुआत में दिखाया गया है कि दोनों भाई-बहन स्कूल से वापस लौटते समय बात कर रहे होते हैं। सत्या अपने भाई को स्कूल की कुछ परेशानियों से बचाने की कोशिश करती है। वह अपने भाई से कहती है कि तू बस नाम बता मैं ज्यादा कुछ नहीं करूंगी। अंकुर कहता है कि आपका कुछ नहीं भी बहुत कुछ होता है। पर सत्या कहती है कि जो उसके भाई को परेशान कर रहे हैं वह उन्हें सबक सिखाएगी। पहले दृश्य में ही साफ हो जाता है कि बचपन से ही सत्या अंकुर का बहुत ज्यादा ध्यान रखती है और उसे कोई तकलीफ नहीं होने देती। लेकिन, घर में आते ही दोनों देखते हैं कि उनके पिता बालकनी में खड़े हैं और उनकी आत्महत्या से मौत हो जाती है।
सत्या और अंकुर के जीवन के उतार-चढ़ाव
सत्या ने अंकुर को वो हादसा नहीं देखने दिया और गले से लगा लिया। उसे बचपन में ही समझ थी कि ये हादसा अंकुर के दिमाग पर गहरी छाप छोड़ सकता है। फिल्म में उनकी माँ को नहीं दिखाया जाता और न ही पिता के आत्महत्या से हुई मौत की कोई वजह दिखाई जाती है। इसके बाद दोनों अपने बड़े पापा आकाशदीप के साथ रहते हैं और सत्या उन्हीं के साथ नौकरी भी करने लगती है। सत्या कभी नहीं भूलती कि वे वहां एक तरह से बाध्य हैं और वहां हाउस स्टाफ मैनेजर के रूप में काम करती हैं। वह उनके परिवार के रहस्यों को भी जानती है और उन्हें बचाने के लिए हर संभव कोशिश करती है। मेहतानी (बड़े पापा) का बेटा कबीर ड्रग्स के मामले में दो बार भारत में फंस चुका होता है। उसके विदेश से लौटने पर वो अंकुर से मिलता है और दोनों अगले दिन मेहतानी के पास जाकर अंकुर के प्रोजेक्टस दिखाते हैं।
मेहतानी को प्रोजेक्ट पसंद आता है और वह दोनों को बीजनेस डील के लिए हांसी दाओ द्वीप पर भेज देता है। यहां कबीर फिर से ड्रग्स के मामले में पकड़ा जाता है और पुलिस अंकुर और कबीर को गिरफ्तार कर लेती है। लेकिन मेहतानी के वकील सिर्फ उनके बेटे को बचाते हैं और उसकी जगह अंकुर को फंसा दिया जाता है। फिल्म में हांसी दाओ द्वीप दिखाया गया है, जिसका मूल इस बात से ज्यादा कुछ नहीं है कि ड्रग्स के मामले में वहां मौत की सजा सुनाई जाती है। आखिर उन दोनों को काम के लिए इस द्वीप पर ही क्यों भेजा गया, ये साफ नहीं होता। सत्या को सब पता लगता है और वह हांसी दाओ पहुंच अपने भाई को बचाने के लिए कानूनी तौर पर हर संभव प्रयास करती है। जब वह पहली बार अंकुर से मिलने जेल जाती है तो दृश्य को बहुत मार्मिक बनाया गया है।
बदलते जेन्डर रोल्स और सत्या की कामयाबी
फिल्म में दिखाया गया है कि बहन भी अपने भाई को मुसीबत में देख सारी दुनिया से लड़ सकती है। सत्या को एक ऐसी महिला के रूप में दिखाया गया है जिसे नियमानुसार चलना बिल्कुल पसंद नहीं है। वह अपनी मर्जी की मालिक है। उसने कराटे, बास्केटबाल सीखा है। वह एक आम महिला नहीं है। न ही नाजुक अबला नारी है। फिल्म में सत्या को एक मजबूत महिला के रूप में दिखाया गया है। अपने भाई को छुड़ाने के लिए वह रिटायरड गैंगस्टर और हांसी दाओ के रिटार्यड पुलिस आफिसर मुथु की टीम बनाकर उसका नेतृत्व करती है। लेकिन उनका प्लान विफल हो जाता है। सत्या की टीम को पुलिस गुमराह करती है और तीनों को मार दिया जाता है। लेकिन सत्या का विश्वास था कि अंकुर जिंदा है। इस बार वो उन्हें दोबारा भगाने के लिए भाटिया के साथ जुट जाती है और इस बार मुथु उनका साथ नहीं देता है।
सत्या का तरीका अनोखा होता है और यह अपने भाई को छुड़वाने का एकमात्र रास्ता होता है। उस इसमें कुछ गलत नहीं लगता। मुथु के बीच में आने पर सत्या उससे भी लड़ती है और हाथापाई में उसकी मौत हो जाती है। बहुत ज्यादा घायल होने के बाद भी सत्या अकेली जाकर जेल पर हमला करती है और अपने भाई को आजाद करने में कामयाब होती है। सत्या को जुनूनी महिला के रूप में दिखाया गया है जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक कमियों को बीच में नहीं आने देती है। आलिया को एक्शन सीक्वेंस करते भी दिखाया गया है। आखिरकार सत्या अपने भाई को जेल से छुड़ाकर अपने पुराने घर आ जाती है जहां उनके पिता की आत्महत्या से मौत हुई थी। सत्या उसी गलियारे में खड़ी होती है और अंकुर उसे देख बचपन की सत्या को याद करता है।
फिल्म का अधूरापन और धीमी गति
पूरी फिल्म बहुत धीमी गति से चलती है जो दर्शकों को कई जगह बोरियत महसूस कराती है। रिटार्यड गेंगस्टर शेखर भाटिया (मनोज पाहवा) का बेटा कैसे जेल में गया और किस अपराध के कारण उसे फांसी की सजा सुनाई गई है, ये साफ नहीं है। वहीं मुथु (मनोज पाहवा) ने कैसे बेकसूर को जेल में भेज दिया, इन पात्रों की कहानी गायब कर दी गई है। आलिया भट्ट ने बेशक एक बेझिझक और निडर महिला का किरदार बखूबी निभाया है। यह उनकी एक्शन थ्रिलर जो उन्होंने पहली बार किया है। वेदांग ने असहाय और नाजुक पुरुष के रूप में दिखाया गया है लेकिन कहीं न कहीं ये नासमझी पर उतार आता है।
हालांकि अभिनेता ने इस किरदार को बखूबी निभाई है। फिल्म में कहीं-कहीं सरलता और तालमेल की कमी है। फिल्म में गाने का प्रयोग नहीं किया गया है। सिर्फ ‘फूलों का तारों का सबका कहना है’ गाने को बखूबी इस्तेमाल किया गया है। फिल्म ने 55.05 करोड़ की कमाई की है पर इसमें एक्शन डायरेक्टर विक्रम दहिया और सिनेमेटोग्राफर स्वप्निल सुहास सोनावले की अहम भूमिका है। फिल्म निर्माता वसन का महानायक अमिताभ बच्चन के प्रति प्रेम साफ नजर आ रहा है। शेखर के मोबाइल पर अमिताभ की पुरानी फिल्मों के गाने सुनता रहता है। कुल मिलाकर फिल्म ने नयापन लाने की कोशिश की है लेकिन इसमें सफल नहीं हुई। हालांकि फिल्म एक बार देखने लायक जरूर है जो एक नई सोच को लाने की कोशिश कर रही है।