इंटरसेक्शनलजेंडर ऑपरेशन मजनू से मॉब लिन्चिंग तक: कपड़ों और व्यवहार पर नैतिकता का पैमाना तय करती मोरल पुलिसिंग

ऑपरेशन मजनू से मॉब लिन्चिंग तक: कपड़ों और व्यवहार पर नैतिकता का पैमाना तय करती मोरल पुलिसिंग

मोरल पुलिसिंग न केवल लोगों, विशेषकर महिलाओं और हाशिये के समुदायों की स्वतंत्रता और अधिकारों का उल्लंघन करती है, बल्कि यह समाज में भय और असमानता का माहौल भी बनाती है। यह समझना जरूरी है कि कपड़े किसी की नैतिकता का प्रतीक नहीं होते।

हाल ही में बेंगलुरु जैसे शहर में मोरल पुलिसिंग के एक संदिग्ध मामले में, 21 वर्षीय एक कॉलेज छात्र की कुछ स्थानीय लोगों द्वारा हमला किए जाने के बाद मौत हो गई। वह बेंगलुरु के बाहरी इलाके में एक फार्महाउस में अपने दोस्तों के साथ रह रहा था। जनवरी, 2017 को केरल के त्रिशूर जिले के नेहरू कॉलेज के 18 वर्षीय छात्र का शव उसके छात्रावास के बाथरूम में मिला था। उसकी आत्महत्या से मौत के बाद पूरे राज्य में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए और उसपर परीक्षा में नकल करने के झूठे आरोप लगाने के लिए उसके कॉलेज पर आरोप लगाए गए। मामले में सीबीआई ने पुष्टि की कि जिष्णु पर परीक्षा में नकल करने का झूठा आरोप लगाया गया था, जिसके बाद उसकी आत्महत्या से मौत हो गई।

साल 2024 में कोलकाता की उद्यमी और सोशल मीडिया पर वायरल हो चुकी पापिया घोषाल, जिन्हें ‘रूसी चायवाली’ के नाम से भी जाना जाता था, को कथित तौर मोरल पुलिसिंग और लैंगिक भेदभाव के कारण अंदुल इलाके में अपनी चाय की दुकान बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा। मोरल पुलिसिंग एक ऐसा गंभीर सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा है, जिसे भारतीय समाज में देखा जाता है। लेकिन, इसे अक्सर गंभीरता से नहीं लिया जाता है। यह एक प्रकार की नैतिक निगरानी है, जिसमें कुछ लोग या समूह दूसरों के व्यक्तिगत आचरण या कपड़ों पर आपत्ति जताते हैं। यह विशेष रूप से उस समय बढ़ता है जब समाज में कुछ व्यवहारों या आदतों को ‘अस्वीकार्य’ या ‘अशिष्ट’ माना जाता है।

बेंगलुरु जैसे शहर में मोरल पुलिसिंग के एक संदिग्ध मामले में, 21 वर्षीय एक कॉलेज छात्र की कुछ स्थानीय लोगों द्वारा हमला किए जाने के बाद मौत हो गई। वह बेंगलुरु के बाहरी इलाके में एक फार्महाउस में अपने दोस्तों के साथ रह रहा था।

मोरल पोलिसिंग का उद्देश्य लोगों को सही और गलत की अवधारणाओं के अनुसार ढालना होता है, लेकिन इसका तरीका आम तौर पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमला करना होता है जहां दूसरे को शर्मिंदा करना एक टूल की तरह काम करता है। इसमें शारीरिक, मानसिक या सामाजिक दबाव डाले जाते हैं ताकि लोग उन पर थोपे गए नैतिक मानकों को स्वीकार करें। यह दबाव खासकर महिलाओं, एलजीबीटीक्यू+ समुदाय और युवाओं पर अधिक होता है। लेकिन, हालिया सालों में मोरल पुलिसिंग से भारतीय संस्कृति को और ज्यादा जोड़ा गया, जिसके चपेट में सिर्फ महिलाएं और पुरुष ही नहीं, हाशिये के समुदाय, मनोरंजन की दुनिया जैसे ओटीटी प्लाटफॉर्म्स और राजनीतिज्ञ भी आए।  

क्या विद्यार्थियों के स्वाभाविक मेल-जोल पर पाबंदी स्वस्थ मानसिकता है   

कॉलेज की बात करें, तो माता-पिता हमेशा से अपने बच्चों को ‘सख्त’ नियमों वाले कॉलेज में भेजना पसंद करते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि यह उनके भविष्य के लिए अच्छा है। स्कूलों में लड़कों और लड़कियों को अलग बैठने के लिए जोर करना, एक-दूसरे से बात करने से परहेज करने की हिदायत कोई नई बात नहीं। वहीं परिसर में विद्यार्थियों के लिए मोबाइल फोन पर प्रतिबंध एक और गंभीर मुद्दा है। मुझे याद है हमारे स्कूल में सभी लड़कों और लड़कियों को एक-दूसरे को रक्षाबंधन के अवसर पर राखी बांधने के लिए मजबूर किया जाता था। इसमें कई ऐसे बच्चे भी होते थे जो एक-दूसरे को पसंद या प्यार करने के कारण ये नहीं चाहते थे।

तस्वीर साभार: The Law Advice

वहीं, कुछ ऐसे भी थे जिन्हें इस रिवाज का कोई तुक नहीं मिलता था। दुख की बात ये है कि ऐसे व्यवहार शिक्षा जगत में हो रहे हैं, जिसे कथित तौर पर प्रगतिशील माना जाता है। हाल ही में केरल हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि कपड़े एक व्यक्ति की आत्म-अभिव्यक्ति का माध्यम हैं और उन्हें किसी की नैतिकता का पैमाना नहीं बनाया जा सकता। अदालत ने यह भी कहा कि महिलाओं को उनके पहनावे के आधार पर जज करना न सिर्फ उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन है, बल्कि यह एक पितृसत्तात्मक मानसिकता को भी बढ़ावा देता है।   

मुझे याद है हमारे स्कूल में सभी लड़कों और लड़कियों को एक-दूसरे को रक्षाबंधन के अवसर पर राखी बांधने के लिए मजबूर किया जाता था। इसमें कई ऐसे बच्चे भी होते थे जो एक-दूसरे को पसंद या प्यार करने के कारण ये नहीं चाहते थे।

मोरल पुलिसिंग और हिन्दुत्व राजनीति  

आज भी सामाजिक तौर पर नैतिकता को एक टूल बनाना बंद नहीं हुआ है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार मोरल पुलिसिंग की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। सरकारी आँकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय औसत साक्षरता दर से ज्यादा साक्षरता दर दर्ज करने वाले राज्य कर्नाटक के तटीय क्षेत्र में 2019 से मोरल पुलिसिंग के कम से कम 30 मामले दर्ज किए गए थे। इस इलाके को सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील भी माना जाता है। इसमें मंगलुरु शहर, दक्षिण कन्नड़, उत्तर कन्नड़ और उडुपी के मामले शामिल हैं। हमें बताया जाता है कि हम एक सच्चे भारतीय हैं, एक राष्ट्रवादी हैं, जिसके लिए लिए संस्कार और संस्कृति ही सबसे अहम होनी चाहिए। साथ ही हमारे धर्म के तय किए गए विश्वासों और नियमों का पालन जरूरी है। जो इन मानदंडों के खिलाफ जाता है, उनका बहिष्कार किया जाता है। इस विषय पर दिल्ली के रहने वाले क्वीयर समुदाय के ताल्लुक रखने वाले इमरान खान कहते हैं, “मेरे खोजा शिया मुस्लिम समुदाय में मैंने बचपन से अपने व्यवहार, हाव-भाव के कारण बहुत कुछ झेला है। मुझे हमेशा से गुलाबी रंग के कपड़े पसंद थे। इसके लिए भी मैंने हमेशा डांट और मार तक खाई है।”

 तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

लेकिन, ऐसे समूहों को समझने की जरूरत है कि वे ऐसे समाज के सदस्य हैं जो परिवर्तन से नफरत करता है। इसका मतलब ये भी हो सकता है वाकई में आपका पड़ोसी दूसरे धर्म या समुदाय से होने के बावजूद आपके दोस्त हो या समान जेंडर के व्यक्ति प्यार कर सकते हैं और साथ रहना चुन सकते हैं या दो लोग आपस में प्यार कर सकते हैं और जता भी सकते हैं। आज के समय और युग में ‘नैतिकता’ शब्द का मतलब अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग है। इसलिए मोरल पुलिसिंग का अलग-अलग व्यक्तियों पर अलग-अलग परिणाम होता है, जो कई बार घातक भी हो सकता है। मोरल पुलिसिंग का व्यापक मतलब एक ऐसी व्यवस्था हो सकती है, जिसमें हमारे समाज के बुनियादी मानकों का उल्लंघन करने वालों पर कड़ी निगरानी और प्रतिबंध लगाया जाता है, जिससे कोई अछूता नहीं रह रहा।

सरकारी आँकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय औसत साक्षरता दर से ज्यादा साक्षरता दर दर्ज करने वाले राज्य कर्नाटक के तटीय क्षेत्र में 2019 से मोरल पुलिसिंग के कम से कम 30 मामले दर्ज किए गए थे। इस इलाके को सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील भी माना जाता है।

मोरल पुलिसिंग कब किसे और किस हद तक प्रभावित करेगी, ये कहना मुश्किल है। हर व्यक्ति की अपनी मान्यताएं और मूल्य होते हैं और हो सकता है कि वे उस मूल्य और विश्वास प्रणाली से पूरी तरह अलग हों, जिसे समाज में सही माना जाता है और कड़ाई से पालन किया जाता रहा है। द इकोनॉमिक टाइम्स की एक खबर अनुसार साल 2015 में एक 55 वर्षीय दलित दिहाड़ी मजदूर को लोगों की भीड़ ने पीट-पीटकर हत्या कर दी थी। भीड़ ने पहले तो उसपर ‘चोर’ होने का आरोप लगाया और फिर पड़ोस की एक महिला के साथ विवाहेतर संबंध रखने का आरोप लगाया। रिपोर्ट बताती है कि इस अपराध में 11 लोग शामिल थे। लेकिन, इस भयानक अपराध के दो साल बाद भी चेरपुलसेरी से गुजरते समय उस व्यक्ति के घर का रास्ता पूछने पर लोग इसे ‘उस महिला से जुड़ा मामला’ कहते नज़र आते हैं।

मोरल पुलिसिंग में योगदान देती प्रशासन और मनोरंजन की दुनिया

2023 में रिलीज हुई तमिल फिल्म अन्नपूर्णी को लेकर विवाद में ‘धार्मिक भावनाओं को आहत करने’ और ‘लव जिहाद’ को बढ़ावा देने के लिए हिंदू संगठनों ने निर्माताओं और नेटफ्लिक्स के खिलाफ कई मामले दर्ज किए थे। साफ तौर पर हमारी संस्कृति और धर्म के रक्षक सिर्फ किसी व्यक्ति या निर्माता को ही नहीं, बहुराष्ट्रीय निगमों को भी डरा सकते हैं। भारतीय संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देते हुए 1951 में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की स्थापना की थी। इसका उद्देश्य एक संतुलन तंत्र की शुरुआत करके कलाकारों और जनता दोनों के अधिकारों को संरक्षित और बहाल करना था।

तस्वीर साभार: AnvitaWordPress

लेकिन, हालिया दिनों में कभी अभिनेत्रियों की बिकीनी, कभी फिल्म की कहानी या कभी गानों को नैतिकता के उल्लंघन के नाम पर बॉयकोट किया गया और उस चुनिंदा फिल्म या अभिनेत्री को असफल बनाने की पुरजोर कोशिश की गई। 2005 में, पुलिस ने टीवी कैमरा क्रू के साथ मेरठ के एक सार्वजनिक पार्क पर छापा मारा और कैमरों के सामने पार्क में बैठे जोड़ों पर हमला किया। पुलिस ने दावा किया कि इसका उद्देश्य यौन उत्पीड़न को रोकना था। 2011 में गाजियाबाद पुलिस ने ‘ऑपरेशन मजनू’ शुरू किया और पार्कों में जोड़ों को पकड़ा और टीवी कैमरों के सामने उनसे उठक-बैठक करवाई। यहां, पुलिस ने दावा किया कि यह ऑपरेशन मासूम लड़कियों को बुरे इरादों वाले लड़कों के जाल में फंसने से बचाने के लिए था।

मेरे सिया खोजा मुस्लिम समुदाय में मैंने बचपन से अपने व्यवहार, हाव-भाव के कारण बहुत कुछ झेला है। मुझे हमेशा से गुलाबी रंग के कपड़े पसंद थे। इसके लिए भी मैंने हमेशा डांट और मार तक खाई है।”

बता दें कि ऐसा कोई विशेष कानून नहीं है जो सीधे मोरल पुलिसिंग से निपटता हो। हालांकि मोरल पुलिसिंग के तहत किए गए अपराधों या घटनाओं को भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत दंडित किया जा सकता है। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां मोरल पुलिसिंग के रूप में मानी जाने वाली कार्रवाइयों के खिलाफ अदालतों में मामले दर्ज किए गए। उन मामलों में, भारत की अदालतों ने ऐसे फैसले दिए हैं जो सरकार या कानून प्रवर्तन एजेंसियों या सतर्कता समूहों द्वारा मोरल पुलिसिंग को प्रोत्साहित नहीं करते हैं। लेकिन, इसके बावजूद आज भी मोरल पुलिसिंग एक समस्या बना हुआ है।

मोरल पुलिसिंग न केवल लोगों, विशेषकर महिलाओं और हाशिये के समुदायों की स्वतंत्रता और अधिकारों का उल्लंघन करती है, बल्कि यह समाज में भय और असमानता का माहौल भी बनाती है। यह समझना जरूरी है कि कपड़े किसी की नैतिकता का प्रतीक नहीं होते। समाज को यह स्वीकार करना होगा कि हर व्यक्ति को अपनी पसंद और आत्म-अभिव्यक्ति का अधिकार है। सिर्फ तभी हम एक समावेशी और समानता-आधारित समाज का निर्माण कर सकते हैं। इस बदलाव के लिए कानूनों का सख्ती से पालन करना और मानसिकता में सुधार लाना बेहद जरूरी है। इस दिशा में केरल हाईकोर्ट का फैसला एक महत्वपूर्ण कदम है, लेकिन इसे जमीनी स्तर पर लागू करना समाज की सामूहिक जिम्मेदारी है।

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