इतिहास प्रोफेसर अनीता घई: विकलांगता के प्रति रूढ़िवाद़ को चुनौती देने वाली शख्सियत| #IndianWomenInHistory

प्रोफेसर अनीता घई: विकलांगता के प्रति रूढ़िवाद़ को चुनौती देने वाली शख्सियत| #IndianWomenInHistory

अनीता घई ने विकलांगता और नारीवाद के संबंध पर कई महत्वपूर्ण लेख और पुस्तकें लिखी हैं। उनकी पुस्तक "रिथिंकिग डिसएबिलिटी इन इंडिया" इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान मानी जाती है। इस पुस्तक में उन्होंने भारतीय समाज में विकलांगता के मुद्दों को गहराई से समझाया और इस पर विचार करने के लिए एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।

समाज में विकलांगता को एक अलग (संकोच, शर्मिंदगी ख़राब) नज़र से देखा जाता है। विकलांग व्यक्ति के क्षमता को कमजोर और कम आका जाता है पर इसके बावजूद कई महिला और सामाजिक कार्यकर्ताओं जैसे मैरी वर्गिस, जूडिथ हूमैन, स्टेला, अरुणिमा सिन्हा, साधना धंद, मालती कृष्णामारुति आदि ने विकलांगता को अपना ताक़त बनाया और अपने विचारों और मेहनत से लोगों को शिक्षित और जागरूक करने का काम किया। विकलांग को लेकर सामाजिक रूढ़िवाद को दूर करने का काम किया है। इतिहास में कई प्रसिद्ध विकलांग महिलाएं रही हैं जिन्होंने राजनीति, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में अग्रणी और प्रवक्ता के रूप में समाज में काम किया है। जिनमें एक नाम अनीता घई का हैं। अनीता घई एक भारतीय शिक्षक थीं वह स्कूल ऑफ ह्यूमन स्टडीज, आंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्रोफेसर थीं।

अनीता घई भारत में विकलांगता अधिकारों के लिए कार्य करने वाली एक सशक्त कार्यकर्ता थीं। इसके साथ ही वे लिंग, शिक्षा, लैंगिक, और स्वास्थ्य के अधिकारों के क्षेत्रों में भी काम करती थीं। वे एक प्रेरणादायक प्रोफेसर थीं विशेष रूप से विकलांगता, समाजिक न्याय और समावेशिता के मुद्दों पर गहरी रुचि और कार्य करती थीं। अनीता घई एक प्रमुख नारीवादी विद्वान, विकलांगता अधिकार कार्यकर्ता और लेखक हैं, जिन्होंने नारीवाद और विकलांगता के बीच के जटिल संबंधों को उजागर करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वह एक नारीवादी दृष्टिकोण से विकलांगता अध्ययन के क्षेत्र में अग्रणी मानी जाती हैं। उन्होंने शारीरिक विकलांगता के साथ एक चुनौतीपूर्ण जीवन जिया है। इन चुनौतियों ने उन्हें समाज के हाशिए पर मौजूद समूहों, विशेषकर महिलाओं और विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा दी। उनका जीवन और कार्य विकलांगता के प्रति समाज की सोच को बदलने का एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

प्रोफेसर घई उन कुछ नरिवादियों में से एक थीं जिन्होंने इस बारे में लिखा कि पीसीपीएनडीटी अधिनियम विकलांग बच्चों के लिए किस तरह हानिकारक है, क्योंकि यह भ्रूण की विसंगति के लिए परीक्षण के बाद अबॉर्शन की अनुमति देता है।

शुरुआती जीवन और शिक्षा 

प्रोफ़ेसर अनीता घई का जन्म 23 अक्टूबर 1958 को हुआ था। दो साल की उम्र में उनको पोलियो हो गया था। बचपन से ही वह अपने दोनों पैरों को महसूस नहीं कर पाती थीं। छोटी सी उम्र में ही लोगों और समाजों के द्वारा उन्हें कमजोर या दोषपूर्ण के बराबर बताया जाता जिसे आज भी अपने आसपास के इलाक़ों या लोगों के बीच में देखा जा सकता है कि किस तरह विकलांग व्यक्तियों को आम मनुष्य से अलग समझा जाता है। पोलियो का टीका भारत में साल 1959 में या जो उनके जन्म के ठीक एक साल बाद का समय था।

उन्होंने बचपन में लोगों द्वारा कई प्रकार की भेदभाव और एक विकलांग महिला होने के नाते गलत नज़रियों, रूढ़िवादी परम्पराओं का सामना किया। उनकी विकलांगता के इलाज खोजने के लिए मंदिरों, तांत्रिकों, आस्था चिकित्साओं के पास जाने के लिए ज़बरदस्ती कर मजबूर किया जाता। समाज और खुद परिवार के लोगों द्वारा विकलांग लड़कियों या महिलाओं को अलैंगिक धारणा से देखा जाता है और इसी कारण से उन्हें असमान्य रूप से अपने पुरुष चचेरे भाइयों के साथ एक कमरा साझा करने तक को कहा गया था। इस तरह के कई विरोधों और उतार चढ़ाव के बाद भी अपनी कई सवालों के साथ संघर्ष कर आगे बढ़ती गईं।

तस्वीर साभारः The Week

घई ने अपनी विकलांगता को कभी बाधा नहीं माना और न ही कभी इसे अपनी सीमाओं के रूप में नहीं देखा। वह हर काम में आगे रही। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त की और वर्ष 1984 में दिल्ली विश्वविद्यालय के जीसस एंड मैरी कॉलेज में मनोविज्ञान पढ़ना आरम्भ किया। नेहरू मेमोरियल म्यूजियम लाइब्रेरी, तीन मूर्ति भवन में पूर्व फेलो के रूप में, अनीता ने विकलांग महिला प्राप्तकर्ताओं, यानी उनकी बेटियों और देखभाल प्रदाताओं, यानी नारीवादी और विकलांगता सिद्धांत की ओर झुकाव वाली माताओं की देखभाल के मुद्दों पर शोध किया है। अनीता भारतीय महिला अध्ययन संघ की पूर्व अध्यक्ष भी थीं।

समाज को जवाब देती घई की रचनाएं

तस्वीर साभारः Youtube

अनिता घई की रचनायें विकलांगता की पारंपरिक धारणा के विपरीत विकलांगता के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक निर्माण की समझ प्रदान करती है, जो चिकित्सा स्थिति, जैविक विशेषता, पुनर्वास और विशेष शिक्षा के संदर्भ में है। यह शिक्षा, कानून और समाजशास्त्र सहित विभिन्न क्षेत्रों में विकलांगता को सामने लाने, लिंग और विकलांगता की अंतःक्रिया की आलोचनात्मक खोज करने और सिद्धांत और व्यवहार के साथ-साथ शिक्षा और सक्रियता के बीच अलगाव को चुनौती देने पर केंद्रित है। उनकी प्रमुख रचनायें “(डिस)इम्बोडीड फॉर्म: विकलांग महिलाओं के मुद्दे“, “साउथ एशिया में डिसेबिलिटीः नोलिज एंड एक्सपीरियंस” किताबें विश्वविख्यात हैं।

अनीता घई ने विकलांगता और नारीवाद के संबंध पर कई महत्वपूर्ण लेख और पुस्तकें लिखी हैं। उनकी पुस्तक “रिथिंकिग डिसएबिलिटी इन इंडिया” इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान मानी जाती है। इस पुस्तक में उन्होंने भारतीय समाज में विकलांगता के मुद्दों को गहराई से समझाया और इस पर विचार करने के लिए एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उन्होंने दिखाया कि विकलांगता केवल एक शारीरिक स्थिति नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक निर्माण है, जिसे समाज के द्वारा परिभाषित किया जाता है। उनकी लेखनी का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि वह विकलांगता के मुद्दों को लिंग, जाति, वर्ग और अन्य पहचान श्रेणियों के संदर्भ में देखती हैं। उनकी पुस्तकें और लेख नारीवादी दृष्टिकोण से विकलांगता को समझने के लिए नई अवधारणाओं को प्रस्तुत करती हैं। उन्होंने यह भी दिखाया कि कैसे विकलांग महिलाओं को दोहरे भेदभाव का सामना करना पड़ता है- पहला विकलांगता के कारण और दूसरा लैंगिर आधार पर।

विरोध और संघर्ष

प्रोफेसर घई ने अपनी जीवन में हर स्तर पर विकलांग लोगों के अधिकारों और स्थिति पर मुखर होकर आवाज़ उठाई। साल 2016 में इंदिरा गांधी एयरपोर्ट नई दिल्ली पर एयर इंडिया द्वारा टरमैक पर रेंगने के लिए मजबूर किया गया था क्योंकि वे उनके लिए व्हीलचेयर उपलब्ध नहीं करा पाए थे। यह नागरिक उड्डयन महानिदेशक के निर्देश का उलंघन था उन्होंने इस घटना को शर्मनाक और चौकने वाला बताया। वहीं एयरलाइन ने घई के आरोपों को इनकार किया। इसके साथ उन्होंने उन्होंने सुलभ शौचालयों की कमी के खिलाफ भी वकालत की है, जो कई विकलांग लोगों के लिए सार्वजनिक स्थानों तक पहुंच को प्रतिबंधित करता है। वह नारीवादी संगठन द्वारा संचालित एक ऑनलाइन पाठ्यक्रम के हिस्से के रूप में कामुकता और विकलांगता पर कार्यशालाएँ आयोजित करती थीं। घई कामुकता शिक्षा को खुला रखने और विवाह के भीतर सेक्स और कामुकता से परे देखने की भी वकालत करती थीं।

अनिता घई की रचनायें विकलांगता की पारंपरिक धारणा के विपरीत विकलांगता के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक निर्माण की समझ प्रदान करती है, जो चिकित्सा स्थिति, जैविक विशेषता, पुनर्वास और विशेष शिक्षा के संदर्भ में है।

भारत में सार्वजनिक स्थलों की डिसेबिलिटी एक्सेसबिलिटी के बारे में वह प्रमुखता से बात रखती थी। उन्होंने सार्वजनिक स्थलों पर विकलांग व्यक्तियों के लिए सुगम्यता के मुद्दे पर विशेष तौर पर काम किया। वह व्हीलचेयर के लिए रैंप की कमी और दुर्गम सार्वजनिक परिवहन के कारण विकलांग लोगों के जीवन में दैनिक चुनौतियों पर सवाल करती थीं। वह विकलांग लोगों को उनके उचित नागरिक अधिकारों को सुरक्षित करने की अनुमति देने के लिए पहुँच को महत्वपूर्ण मानती थीं और उन्होंने विकलांग लोगों के लिए भारत सरकार के सांकेतिक प्रयासों के खिलाफ़ आवाज़ हमेशा उठाईं। प्रोफेसर घई उन कुछ नरिवादियों में से एक थीं जिन्होंने इस बारे में लिखा कि पीसीपीएनडीटी अधिनियम विकलांग बच्चों के लिए किस तरह हानिकारक है, क्योंकि यह भ्रूण की विसंगति के लिए परीक्षण के बाद अबॉर्शन की अनुमति देता है।

प्रोफ़ेसर अनीता अपने जीवनभर विकलांग अधिकारों और कल्याण के लिए मुखर रहीं। प्रोफेसर घई का निधन 11 दिसम्बर 2024 को हुआ। अनीता घई ने तमाम तरह की मुश्किलों का सामना हमेशा मुस्कुराते हुए किया। वह हमेशा आगे बढ़ने और प्रोत्साहन वाली बातें करती थीं। उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा है कि दो साल की उम्र में पोलियो हुआ, फिर दो ओपन हार्ट सर्जरी हुई और फिर 2005 में ब्रेस्ट कैंसर हुआ। मेरे माता-पिता हमेशा कहते थे कि हर इंसान को तकलीफ होती है, लेकिन मुझे लगता है कि यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि आप इसे कैसे देखते हैं। अनीता घई का जीवन उन लाखों लोगों के प्रेरणा का स्त्रोत है जो विकलांगता के साथ जीवन जी रहे हैं। इतना ही नहीं उनका जीवन हर उस रूढ़िवाद को गलत साबित करता है जो विकलांगता को एक कमजोरी या बाधा के तौर पर स्थापित करता है।

स्रोतः

  1. Ijme
  2. NPTEL-NOC IITM

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