सुचित्रा भट्टाचार्य बंगाली भाषा में लिखने वाली प्रमुख लेखिकाओं में से एक थीं। उनका लेखन समकालीन सामाजिक विषयों पर आधारित था। उन्होंने अपनी लेखनी से समाज में महिलाओं की जमीनी हकीकत को बयां किया हैं। सुचित्रा भट्टाचार्य के उपन्यासों में ख़ासकर महिलाओं की व्यथा-कथा, समस्या, नियंत्रण और उपलब्धि को जीवंत दर्शाया गया है। साथ ही, उन्होने अपने लेखन के ज़रिये जीवन के विविध पक्षों और समस्याओं पर बात की हैं। सुचित्रा ने पुरुष लेखकों और महिला लेखकों के बीच की खाई की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया, और बताया कि इस विभाजन को पाटना क्यों ज़रूरी है। सुचित्रा भट्टाचार्य अपने समय में सबसे पढ़ी जानी वाले उपन्यासकारों में से एक थीं।
शुरुआती जीवन
सुचित्रा भट्टाचार्य का जन्म बिहार के भागलपुर जिले में 10 जनवरी 1950 में हुआ था। बचपन से ही उनकी रुचि लेखन के प्रति रही। उनकी स्कूली शिक्षा भागलपुर में ही हुई। उसके आगे की शिक्षा लिए वे कोलकाता चली गई। कोलकाता विश्वविद्यालय से संबद्ध जोगमाया देवी कॉलेज से उन्होंने अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के तुरंत बाद ही उनकी शादी हो गई थी। हालांकि विवाह के तुरंत बाद कुछ समय तक वह लेखन से दूर रही। साल 1978 से 1979 के बीच
उन्होंने फिर से लिखना शुरू किया। उन्होंने लिखने की शुरुआत लघु कहानियों से की थी। उनके लेखन में सामाजिक मुद्दों, महिलाओं की स्थिति और मध्यम वर्ग के संघर्षों की झलक मिलती है। उनके लेखन में शहरी और ग्रामीण जीवन की वास्तविक स्थिति को दर्ज किया गया है।
अस्सी के दशक में उन्होंने उपन्यास लिखना शुरू किया। एक दशक के भीतर ही उन्होंने अपने एक उपन्यास “काचर देवल” (ग्लास वॉल) के प्रकाशन के बाद उनका नाम बंगाल के प्रमुख लेखक-लेखिकाओं में शामिल हो गया। आधुनिक बंगाल की महिलाएं, सिलीगुड़ी की युवा तलाकशुदा, पाटुली की एकल माँ, वर्धमान की गृहिणी, बालीगंज की वृद्ध विधवा, ये सभी सुचित्रा भट्टाचार्य की रचनाओं में शामिल रही हैं। उन्होंने अपने उपन्यासों के माध्यम से, इनकी वास्तविकताओं, उनकी आकांक्षाओं और उनकी चुप्पी को दर्ज किया।
लेखन के ज़रिये मध्यम वर्गीय संघर्षों की बनीं आवाज़
सुचित्रा ने अपने लेखन के ज़रिये जिन मुद्दों पर बात की है उनमें घरेलू हिंसा और सामाजिक पितृसत्ता के प्रभाव को उजागर किया है। समाज में व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों की पेचीदगियों को उजागर किया है। उन्होंने स्त्री की स्वतंत्रता, साहस की कहानियां कही हैं। उनके उपन्यासों में महिलाओं की स्वतंत्रता और उनके संघर्षों को दर्शाता गया है। सुचित्रा ने बच्चों के लिए उपन्यास और लघुकथा भी लिखी हैं। उन्होंने वार्षिक “आनंदमाला” में काल्पनिक चरित्र “मितिन मासी” के साथ जासूसी उपन्यासों की एक श्रृंखला लिखी, जो बहुत ही चर्चित रही।
उनके उपन्यास ‘दहन’ पर रितुपर्णो घोष द्वारा एक फिल्म (क्रॉसफायर) नाम से बनाई गई थी। यह फिल्म एक रेप सर्वाइवर के जीवन पर पर आधारित थी। सुचित्रा के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म को 45वां नैशनल अवॉर्ड मिला था। उनके चर्चित उपन्यासों में से एक “कच्छेर मानुष” पारंपरिक माँ-बेटी की कहानी के रूप में है, लेकिन सुचित्रा ने फिर से पात्रों की व्याख्या अलग ढंग से की है। कच्छेर मानुष में, भट्टाचार्य ने एक यौन-मुक्त महिला मुख्य पात्र का निर्माण किया जो अपने निर्णयों पर कायम रहती है, एक ऐसे समाज में जो अभी भी महिलाओं को उनके पहनावे और उनकी वैवाहिक स्थिति के आधार पर आंकता है, यह निश्चित रूप से एक उपलब्धि है। वही “अलोच्या” वह एक असफल विवाह के बारे में बात करती है। इस उपन्यास की नायिका अपने पूर्व पति के साथ एक परिपक्व मित्रता बनाती है, जब उनका विवाह टूट जाता है।
साहित्यक रचनाएं और पुरस्कार
सुचित्रा भट्टाचार्य ने बंगाली साहित्य में क्राइम थ्रिलर की रचना में भी योगदान दिया। जिसमें उनका जासूसी किरदार ‘मितिन मासी’ शामिल थीं। यह बंगाली साहित्य में कुछ चुनिंदा महिला जासूसों में से एक हैं। मितिन मासी के साथ पहली कहानी “सरंदाय शैतान” थी, जिसके बाद उन्होंने कई अन्य रोमांचक कहानियां लिखीं, जिनमें सर्परहस्य सुंदरबन में”, “झाऊ झीं हत्यारहस्य”, “दु:स्वप्न बार-बार”, “सांडर साहेबेर पुथी शामिल थी। मितिन मासी किरदार के माध्यम से उन्होंने अपराध कथा साहित्य में महिला पात्रों को एक सशक्त स्थान दिया और इस शैली को समृद्ध किया। उनके ये उपन्यास आज भी बंगाली साहित्य के अनमोल रत्न माने जाते हैं।
सुचित्रा ने बंगाली में लगभग 24 उपन्यास लिखे हैं। इनकी प्रमुख रचनाओं में से एक मितिन मासी, दशती उपनिषद (दस उपन्यास), जर्मन गणेश, एक्का (अकेला), हेमोंतर पाखी (शरद ऋतु की पक्षी), नील घुनी (नीला बवंडर), उरो मेघ (उड़ता बदल), छेरा तार (टूटा तार), आलोछाया (प्रकाश की छाया), एनियो बसंतो ( एक अन्य बसंत), प्रभास, कचहरी मानुष (मेरे करीब), दहन (द बर्निंग), काचर देवल (कांच की दीवार), आमी रायकिशोरी, रंगिन प्रीतीबी (रंगीन दुनियां), जलछोबी (वॉटरमार्क), एलिक सुख ( स्वर्गीय आनंद), गंभीर आशुख (एक गंभीर बिमारी), इन माया (कहानी संग्रह) शामिल है। सुचित्रा को कई पुरस्कार मिले जिसमें 2004 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से भुवन मोहिनी पदक, 2002 में भागलपुर से शरत पुरस्कार दिया गया। इसके अलावा सुचित्रा को लगभग अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया था।
12 मई 2015 को अचानक उनकी तबियत बिगड़ी फिर उन्हें अस्पताल ले जाया गया। 65 वर्षीय की आयु में दक्षिण-कोलकाता स्थित अपने आवास में दिल के दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई थी। सुचित्रा भट्टाचार्य के साहित्यिक योगदान और अमर कृतियों के कारण वह आज भी जिंदा है। हकीकत को बेबाकी से लिखने वाली लेखिका सुचित्रा ने अपने लेखन से सामाजिक चेतना को हमेशा जाग्रत करने का काम किया है।