श्याम बेनेगल का नाम लेते ही सबसे पहले हमारी आँखों में धारावाहिक ‘भारत एक खोज’ के दृश्य आते हैं। एक ऐसा टीवी सीरियल जिसमें भारतीय अतीत को सहजता और ईमानदारी से समझा जा सकता है। पिछले दिनों इस प्रसिद्ध फिल्मकार का निधन हो गया। पैरलेल फिल्मों के इतिहास में बेहतरीन योगदान के साथ-साथ श्याम बेनेगल इकोनॉमिक एन्ड पोलिटिकल वीकली जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक भी रहे हैं। बेनेगल ने अंकुर, मंथन, भूमिका, निशांत, सूरज का सातवां घोड़ा, कलयुग, सरदारी बेगम, मंडी, मम्मो, जुबैदा, हरी भरी, द मेकिंग ऑफ महात्मा जैसी प्रसिद्ध सार्थक फिल्में बनाई।
पैरलेल फिल्मों के एक पर्याय बन चुके फिल्मकार बेनेगल अपनी फिल्मों में जीवन और समाज की जरूरी पड़ताल करते थे। हाशिये के लोगों का जीवन उनके दुख-दर्द को उन्होंने फिल्मों का विषय बनाया। कलाएं लोगों के जीवन का जरूरी अंग हैं लेकिन किसी कला का इंसान जीवन को बेहतर करने के लिए किस तरह उपयोग कर सकता है, यह उनकी फिल्मों को देखकर समझा जा सकता है। श्याम बेनेगल को उनके काम के लिए कई पुरस्कार मिले। उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार साल 2005 में दिया गया था। इसके पहले 1980 में उन्हें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला था। साथ ही बेनेगल को पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे पुरस्कारों से भी नवाजा गया था।
बचपन, परिवार और फिल्मों में विविधता
श्याम बेनेगल बचपन से प्रतिभाशाली थे। कला और साहित्य में रूचि रखते थे। बेनेगल के पिता श्रीधर बेनेगल छायाकार थे। 12 साल की उम्र में पिता के कैमरे से श्याम बेनेगल ने पहली फ़िल्म बनायी थी। उन्होंने आगे चलकर हैदराबाद की उस्मानिया यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में मास्टर्स की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद, उन्होंने विज्ञापन के क्षेत्र में भी काम किया। उन्होंने ऐड फिल्मों के अलावा ढेरों वृतचित्र और शार्ट फिल्में बनायी। ‘अंकुर’ श्याम बेनेगल की पहली फ़िल्म थी। साल 1973 में आई फिल्म ‘अंकुर’ तेलगांना के सामन्ती समाज के आर्थिक और यौन शोषण को रेखांकित करती है।
जाति और लैंगिक भेदभाव से बने हमारे समाज को श्याम बेनेगल ने एक ऐसी दृष्टि दी जिसमें वो खुद को साफ-साफ देख सके। अमीर-गरीब के खाँचे में बटा समाज और तमाम तरह की राजनीतिक और सामाजिक विडम्बनाओं को बेनेगल ने जिस तरह से कहा वो आज के सिनेमा में शायद ही किसी ने कर पाया है। सिनेमा को राजनीतिक समकालीनता से जोड़ना और सामान्य लोगों में एक दृष्टि विकसित करना उनकी सिनेमा की खासियत थी। अंकुर में जहां एक मजदूर औरत का शारीरिक और आर्थिक शोषण की कहानी को दिखाया गया है, वहीं निशांत में एक शिक्षक की पत्नी का अपहरण करके चार जमींदार उसका सामूहिक बलात्कार करते हैं। समाज में घट रहे अन्याय की अनदेखी को जिस तरह से इन फिल्मों में कहा गया है वो बताता है कि इस तरह का समाज आखिरकार कहाँ जाता है।
ऐतिहासिक फिल्म मंथन का निर्देशन
1977 में श्याम बेनेगल की महान फ़िल्म मंथन आयी, जिसका निर्माण अपने -आप मे एक आंदोलनकारी घटना है। इस फ़िल्म के निर्माण के लिए गुजरात के पांच लाख किसानों ने दो-दो रुपये का चंदा दिया था। बेनेगल इस फ़िल्म के माध्यम से ग्रामीण सशक्तिकरण और सहकारिता का संदेश दिया। सिनेमा के इतिहास में मंथन फ़िल्म का निर्माण एक बड़ी घटना थी। इस फ़िल्म को बनाकर उन्होंने हाशिये के समुदायों को उनका अपना सिनेमा ही नहीं दिया बल्कि उन्हें निर्माता की भूमिका निभाना भी सिखाया। उत्पीड़ितों को अपने जीवन के दुख-सुख को देखने और उसे कहने की दृष्टि दी। साल 1999 में आई उनकी फ़िल्म समर जाति व्यवस्था के कारण होते शोषण के मुद्दे पर एक मुखर फ़िल्म थी। फ़िल्म में जाति व्यवस्था की जो आलोचना है वो बेहद महत्वपूर्ण है। बेनेगल ने अपनी फिल्मों में जाति व्यवस्था की बारीकियों और समस्याओं को दिखाने में कामयाब हुए हैं। आगे चलकर जाति और वर्ग की आपसी टकराहट पर वे अपनी फिल्मों में बहस करते दिखे।
उनकी फिल्मों में जाति और वर्ग का चित्रण
जाति व्यवस्था की विडम्बनाओं पर परंजॉय गुहा ठाकुरता को दिये गये अपने एक इंटरव्यू में बेनेगल कहते हैं कि भारत में जाति और वर्ग कमोबेश एक ही है। हालांकि वर्ग व्यवस्था बदल सकती है लेकिन जाति नहीं बदलती है। भारत में वास्तविक समस्या वर्ग की उतनी नहीं है जितनी जाति की है। हम इसे बदलने में सक्षम नहीं हुए हैं, जैसी हमने योजनायें बनायी थी, जिसके लिए हम संघर्ष कर रहे थे। हम इसके विरुद्ध लंबे समय से लड़ रहे थे। जो लोग इसके खिलाफ़ लड़ रहे हैं, वो खुद जाति व्यवस्था में विश्वास रखते हैं। अपनी जाति पर उन्हें गर्व है। बेनेगल के रूप में हमें बतौर फिल्मकार एक ऐसा व्यक्ति मिला, जो लगातार जाति व्यवस्था से लड़ते रहे। हालांकि उनका जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ, लेकिन उनकी न्याय की चेतना लगातार जाति के शोषण के स्तरों को उघाड़ती रही। उनकी फिल्म समर जाति व्यवस्था को लेकर बेहद आलोचनात्मक थी।
बेनेगल की सिनेमा में महिलाएं
श्याम बेनेगल के सिनेमा में स्त्रियों की भूमिकाओं पर महत्वपूर्ण फिल्मों का निर्माण हुआ। उन्होंने लगभग हर वर्ग की महिलाओं की तकलीफों को बताया, उनके संघर्ष और उनकी इच्छाओं और आकांक्षाओं को दर्ज किया। भूमिका फ़िल्म में मराठी फिल्म अभिनेत्री हंसा वाडेकर का किरदार जिस तरह स्मिता पाटिल ने निभाया वो बेजोड़ है। एक स्त्री का जीवन उसका चयन उसकी घुटन और आज़ादी उनकी दृष्टि से देखना समझना अंधेरे को चीरती रोशनी की किरण सी लगती है। मुस्लिम महिलाओं के जीवन को लेकर बनी उनकी फिल्में मम्मो, सरदारी बेगम, जुबैदा भी बेहद जरूरी फिल्में हैं। ये फिल्में भारत जैसे देश में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति, उनका जीवन, उनके संघर्ष पर महत्वपूर्ण विमर्श करती है। उन्होंने अपनी फिल्मों में जीवन की पड़ताल ही नहीं, उनके पात्रों का संघर्ष और दुख को सजीव किया है। कला का सही उपयोग करना उन्होंने फिल्मी दुनिया को सिखाया है।
उन्होंने बताया है कैसे कला का बेहतर समाज बनाने के लिए एक सार्थक उपयोग किया जा सकता है। श्याम बेनेगल ने अमूर्तन कलाओं और बौद्धिक क्लिष्टता से बचते हुए बेहद सहजता के साथ आम भाषा में जनसाधारण की दुनिया को उनकी संवेदनाओं और संघर्ष को दिखाया है। शिक्षा को जनमन तक पहुँचाना, उन्हें अधिकार और कर्तव्यों से परिचित कराना, उनकी फिल्मों की विशेषता के रूप हम देखते सकते हैं। जन साधारण तक उनके विमर्शो को पहुंचाना ही श्रेष्ठ कला का लक्षण है। आज के अति पूंजीवादी समय में सिनेमा और साहित्य समाज में एकदम से बदलाव तो नहीं ला सकते, पर बहुत हद तक सही और गलत की पहचान न्याय और समानता की दृष्टि समझा सकते हैं। रोज मिटती हुई मनुष्यता को बचा सकते हैं। आज जिस तरह भारतीय समाज जाति, लैंगिकता, वर्ग और सांप्रदायिकता की राजनीति में फंस चुका है, इस समाज का उससे उबरना मुश्किल लग रहा है। ऐसे समय में जब जरूरत है ऐसे सार्थक साहित्य, सिनेमा और कला माध्यमों की, तो श्याम बेनेगल की कमी हमेशा अखरती रहेगी। सार्थक सिनेमा निर्माण की स्वर्णिम यात्रा में श्याम बेनेगल की ऐतिहासिक भूमिका को कभी भुलाया नहीं जा सकता है।