समाजकैंपस देश के स्कूलों में छात्रों के नामकंन में 1 करोड़ से अधिक की गिरावटः सरकारी रिपोर्ट

देश के स्कूलों में छात्रों के नामकंन में 1 करोड़ से अधिक की गिरावटः सरकारी रिपोर्ट

सभी बच्चों की शिक्षा तक पहुंच और शैक्षिक सुधार के सरकार के बड़े-बड़े दावों के बावजूद इस रिपोर्ट में कई चिंताजनक बातें सामने आई हैं। उन्हीं में से एक यह है कि 2022-23 की तुलना में 2023-24 में पूरे देश में कक्षा 1 से 12वीं में कुल नामांकन में एक करोड़ की गिरावट दर्ज़ की गई है। 2022-23 में नामांकन 25.18 करोड़ था, लेकिन 2023-24 में यह गिरकर 24.8 करोड़ हो गया, यानी 1.22 करोड़ विद्यार्थी कम हो गए।

साल 2023-24 में देश के स्कूली छात्रों के कुल नामांकन में एक करोड़ से अधिक की गिरावट दर्ज की गई है, जो पिछले वर्षों की तुलना में कम है। यह जानकारी शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी किए गए नवीनतम आंकड़ों में सामने आई है। शिक्षा मंत्रालय द्वारा 2012-13 से यूडीआईएसई डेटा जारी किया जाता रहा है। यह डेटा स्कूलों और स्कूली शिक्षा के विविध पहलुओं पर केन्द्रित होता है। यूडीआईएसई प्लस यानी यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस प्रणाली यूडीआईएसई का ही अपडेटेड वर्ज़न है। इसे स्कूल शिक्षा एवं साक्षरता विभाग, एमएचआरडी और भारत सरकार द्वारा 2018-19 में विकसित किया गया और 2020 में लॉन्च किया गया। इसके तहत स्कूल स्तर पर डेटा अपलोड किया जाता है और फिर ब्लॉक, जिला और राज्य स्तर पर इसका सत्यापन यानी वेरिफिकेशन किया जाता है। 2022-23 से पहली बार यूडीआईएसई प्लस के तहत सभी स्कूलों से नामांकन, उपस्थिति और सीखने का छात्रवार डेटा एकत्र किया गया। इसी कड़ी में 30 दिसंबर 2024 को शिक्षा मंत्रालय द्वारा 2023-24 के लिए यूडीआईएसई रिपोर्ट जारी की गई है। 

सभी बच्चों की शिक्षा तक पहुंच और शैक्षिक सुधार के सरकार के बड़े-बड़े दावों के बावजूद इस रिपोर्ट में कई चिंताजनक बातें सामने आई हैं। उन्हीं में से एक यह है कि 2022-23 की तुलना में 2023-24 में पूरे देश में कक्षा 1 से 12वीं में कुल नामांकन में एक करोड़ की गिरावट दर्ज़ की गई है। 2022-23 में नामांकन 25.18 करोड़ था, लेकिन 2023-24 में यह गिरकर 24.8 करोड़ हो गया, यानी 1.22 करोड़ विद्यार्थी कम हो गए। अगर स्कूली शिक्षा के अलग-अलग पड़ावों के आंकड़े देखें तो शिक्षा के माध्यमिक स्तर तक पहुंचते-पहुंचते ड्रॉप आउट विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही है। फाउंडेशनल स्तर पर ड्रॉप आउट विद्यार्थियों की संख्या 0.0 प्रतिशत थी, क्रमशः प्रिपरेटरी, मिडिल और सेकंडरी स्तरों पर यह संख्या 3.7 प्रतिशत, 5.2 प्रतिशत और 10.9 प्रतिशत हो गई, यानी आगे की कक्षाओं में ड्रॉप आउट होने वाले बच्चों की संख्या बढ़ती गई, जो कि एक चिंता की बात है। इसका मतलब यह है कि विद्यार्थी नामांकित तो हो रहे हैं, लेकिन स्कूली शिक्षा पूरी करने से पहले ही स्कूल छोड़ दे रहे हैं। 

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, असम, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, उत्तराखंड, राजस्थान, जैसे राज्यों में उपलब्ध स्कूलों की संख्या का प्रतिशत अधिक है और उनमें नामांकित विद्यार्थियों का प्रतिशत कम है, जिसका मतलब है कि उपलब्ध स्कूलों का पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं हो रहा है।

यह विडम्बना ही है कि नई शिक्षा नीति या एनईपी, 2020 स्कूलों में बच्चों की सार्वभौमिक भागीदारी और उनकी उपस्थिति बढ़ाने की बात करती है। यह 2030 तक माध्यमिक स्तर तक बच्चों का 100 प्रतिशत नामांकन सुनिश्चित करने की दृष्टि रखती है। यही नहीं नई शिक्षा नीति 2020 में ड्रॉप आउट हो चुके विद्यार्थियों को स्कूल में पुनः दाखिला लेने के अवसर प्रदान करने की बात भी की गई है। लेकिन एनईपी 2020 लागू होने के चार सालों बाद नामांकन की दर सुधरने की बजाए गिर रही है। यूडीआईएसई की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार में नामांकन में सबसे ज़्यादा गिरावट दर्ज़ की गई है। नामांकन में आई इस गिरावट के बारे में सरकार की तरफ से फिलहाल कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। 

रिपोर्ट की और कौन सी बातें हैं चिन्ताजनक?

तस्वीर साभारः Hindustan Times

जब भी देश में शिक्षा के हालत की चर्चा होती है, तो उसमें नामांकन और उपस्थिति और स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं पर काफ़ी ज़ोर दिया जाता है, लेकिन सिर्फ नामांकन में बढ़ोतरी शिक्षा की गुणवत्ता बेहतर होने की गारंटी नहीं होती, फिर चाहे नामांकन में यह बढ़ोतरी स्कूली शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर हो या उच्च स्तरों पर। इसी तरह से स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का होना भर बेहतर और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को सुनिश्चित नहीं करता। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में कई और पहलू शामिल हैं, जैसे कि शिक्षकों की गुणवत्ता, शिक्षकों को कितनी बार प्रशिक्षण दिया जा रहा है और इन प्रशिक्षणों की गुणवत्ता कैसी है वगैरह। देश में शिक्षा की गुणवत्ता बेहतर हो इसके लिए सभी पहलूओं पर बराबर ध्यान देना ज़रूरी है। कई बार होता यह है कि बच्चे नामांकित तो होते हैं लेकिन उनकी उपस्थिति बहुत कम होती है या फिर उन्हें जिस तरह की शिक्षा मिलती है, वह उन पर शिक्षित होने का ठप्पा भर लगा देती है। उन्हें उस शिक्षा से अपने जीवन को बेहतर करने में कोई मदद नहीं मिलती। साथ ही ऐसी शिक्षा से उनमें रोज़गार के कौशल भी नहीं विकसित हो पाते। नामांकन की दर में कमी के साथ-साथ इस रिपोर्ट से निम्न चिन्ताजनक बातें सामने आई हैं—

  1. कम्प्यूटर और इंटरनेट की उपलब्धता 

आज के समय की एक बड़ी ज़रूरत डिजिटल लिटरेसी है। वर्तमान समय में चाहे नौकरी हो या दैनिक गतिविधियां सभी में कंप्यूटर का इस्तेमाल बहुत बढ़ गया है। आमतौर पर स्कूल बच्चों को कंप्यूटर के इस्तेमाल से जुड़ी शिक्षा देना का अच्छा ज़रिया होते हैं। लेकिन इसके लिए सबसे पहले तो ये ज़रूरी है कि स्कूलों में कम्प्यूटर उपलब्ध हों। लेकिन यूडीआईएसई के आंकड़ों के अनुसार केवल 57.2 प्रतिशत स्कूलों में ही काम करने की हालत में कम्प्यूटर हैं, जबकि 53.9 प्रतिशत स्कूलों में ही इंटरनेट की सुविधा है। ग़ौरतलब है कि कई बार स्कूलों में कम्प्यूटर होने पर भी न तो बच्चों को उसे छूने की अनुमति होती है और न ही उसकी कोई क्लास होती है, कम्प्यूटर की अनुपलब्धता होने पर डिजिटल लिटरेसी का क्या हाल होगा, हम सोच ही सकते हैं। 

  1. राज्यवार स्कूलों की उपलब्धता और अनुपलब्धता

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, असम, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, उत्तराखंड, राजस्थान, जैसे राज्यों में उपलब्ध स्कूलों की संख्या का प्रतिशत अधिक है और उनमें नामांकित विद्यार्थियों का प्रतिशत कम है, जिसका मतलब है कि उपलब्ध स्कूलों का पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं हो रहा है। वहीं तेलंगाना, पंजाब, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, दिल्ली, बिहार जैसे राज्यों में स्कूल कम हैं और उनमें नामांकित विद्यार्थियों की संख्या ज़्यादा है। यानी स्कूलों की संख्या बढ़ाने की ज़रूरत है। 

  1. राज्यवार माध्यमिक स्कूलों की उपलब्धता में विषमता 

बच्चों की सम्पूर्ण स्कूली शिक्षा पूरी हो सके इसके लिए शिक्षा के सभी स्तरों पर स्कूलों की उपलब्धता होना बहुत ज़रूरी है। यूडीआईएसई के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2005 लागू होने के बाद प्राथमिक स्तरों पर तो स्कूलों की संख्या बढ़ी है, लेकिन माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तरों पर स्कूलों की संख्या नहीं बढ़ी। इसकी वजह से प्राथमिक स्तरों को पार करने के बाद आगे के स्तरों पर विद्यार्थियों द्वारा स्कूल छोड़ने का खतरा बढ़ जाता है। अलग-अलग राज्यों में इस मामले में भी काफी विषमता मौजूद है, जैसे कि पश्चिम बंगाल में 79 फीसदी फाउंडेशनल और प्रिपरेटरी स्कूल हैं और केवल 11.6 फीसदी माध्यमिक स्कूल हैं, जबकि चंडीगढ़ में, 75.6 फीसदी स्कूल माध्यमिक स्कूल हैं और केवल 6.1 फीसदी फाउंडेशनल और प्रारंभिक विद्यालय हैं। इस किस्म की विषमता को दूर किए जाने की दिशा में भी काम किया जाना ज़रूरी है।

फेल न करने की नीति में बदलाव क्या असर? 

तस्वीर साभारः Scroll.in

कुछ वर्षों पहले फेल न करने की नीति जैसा कुछ भी नहीं था। स्कूलों में बच्चों को धड़ल्ले से फेल किया जाता था और बहुत से बच्चे फेल हो जाने की वजह से स्कूल ही छोड़ देते थे। फेल होनेवालों में आमतौर पर वंचित-हाशिए के वर्गों के बच्चे ही होते थे, जिन्हें न तो ट्यूशन जैसी सुविधाएं मिल पाती थीं और जिनके माता-पिता भी ज़्यादा शिक्षित नहीं थे। मैंने ऐसा अपनी खुद की स्कूली शिक्षा के दौरान भी होते देखा था कि किस तरह से वंचित वर्गों के बच्चे फेल होने की वजह से स्कूल छोड़ देते थे। जब बच्चे फेल होने की वजह से स्कूल ही छोड़ दे रहे हों, ऐसे में फेल न करने की नीति एक अच्छा कदम था।

इस नीति के तहत यह प्रावधान था कि आठवीं कक्षा तक किसी बच्चे को फेल नहीं किया जाएगा। इसका उद्देश्य फेल होने की वजह से बच्चों को ड्रॉप आउट होने देने से रोकना था। लेकिन हाल ही में केंद्र सरकार ने इस नीति में भी संशोधन कर दिया है और राज्यों को यह छूट दे दी है कि बच्चों का शैक्षिक प्रदर्शन अपेक्षानुसार न होने पर पाँचवीं और आठवीं कक्षाओं में बच्चों को फेल किया जा सकता है। ऐसे हालात में जबकि नामांकन की दरें पहले से ही गिर रही हों, इस संशोधन का बच्चों के नामांकन पर क्या असर पड़ेगा हम सोच ही सकते हैं। 

यूडीआईएसई के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2005 लागू होने के बाद प्राथमिक स्तरों पर तो स्कूलों की संख्या बढ़ी है, लेकिन माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तरों पर स्कूलों की संख्या नहीं बढ़ी।

देश में जब सरकारें बदलती हैं, तो कई बार नई पार्टी पिछली पार्टी द्वारा किए गए नीतिगत बदलावों में बेवजह संशोधन करती है, फिर चाहे पिछली नीतियां अच्छी ही क्यों न हों। सरकारों के बदलते ही स्कूलों का पाठ्यक्रम बदल दिया जाना और शिक्षा के अधिकार अधिनियम में हुआ हालिया संशोधन ऐसे ही कुछ बेवजह के संशोधन हैं। सरकारों को यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि संशोधन मात्र संशोधन किए जाने के लिए न किए जाएं, बल्कि उनके पीछे वास्तव में जनहित का उद्देश्य निहित हो, तो ही ऐसे संशोधन सार्थक होंगे। अन्यथा ये महज़ सरकारों के बीच प्रतिस्पर्धा के उद्देश्य से किए गए संशोधन भर बनकर रह जाएंगे, इनसे देश और लोगों का कोई भला नहीं होगा। 


सोर्सः 

  1. Thehindu.com
  2. UDISE+ Report 2023-24 – NEP Structure 

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