भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में दलित, बहुजनों, आदिवासियों ने एक अहम भूमिका निभाई थी, जिसका ज़िक्र हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में बेहद कम देखने को मिलता है। ब्रिटिश शासन को भारत से हटाने के लिए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत से भी बहुत पहले, भारत के आदिवासी क्रांतिकारियों द्वारा उनका विरोध किया गया। अंग्रेजों के ख़िलाफ़ विद्रोह करने वाला एक ऐसा ही आदिवासी क्रांतिकारी था तिलका मांझी। तिलका मांझी को भारत का पहला स्वतंत्रता सेनानी माना जाता हैं। तिलका मांझी को ‘आदि विद्रोही’ और ‘जबरा पहाड़िया’ के नाम से भी जाना जाता है।
शुरुआती जीवन
तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी 1750 को बिहार के वर्तमान सुल्तानगंज में स्थित एक छोटे से गांव तिलकपुर में हुआ था। वह संथाल परिवार में जन्मे थे। उनके पिता का नाम सुंदरा मुर्मू था। उनका नाम “तिलका” जिसका अर्थ पहाड़िया भाषा में “गुस्से से लाल आंखों वाला व्यक्ति” होता है, उनकी उग्र प्रकृति के कारण रखा गया। गाँव के मुखिया के रूप में उन्होंने “मांझी” की उपाधि अपनाई थी, जो पहाड़िया और संथाल दोनों समुदायों में एक नेता का प्रतीक है। तिलका मांझी ने संथाल समुदाय के नेतृत्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उन्हें “मांझी बाबा” के रूप में सम्मानित किया गया।
नेतृत्व और सेना का संगठन
तिलका ने हमेशा समुदाय के लोगों और भूमि की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहते थे। उन्होंने एक आदिवासी समुदाय के लोगों को एक सेना में संगठित किया और उन्हें धनुष-बाण चलाने का प्रशिक्षण दिया। उन्होंने वर्षों तक यूरोपीय सेना और उनके सहयोगियों से युद्ध किया। साल 1770 में, संथाल क्षेत्र में भयंकर अकाल पड़ा। लोग भूख से मर रहे थे। तिलका ने कंपनी के खजाने को लूटा लेकिन उसे गरीबों और ज़रूरतमंदों में बांट दिया। तिलका के इस काम से प्रेरित होकर, कई अन्य आदिवासी भी विद्रोह में शामिल हो गए। इसी के साथ उनका “संथाल हूल” (संथालों का विद्रोह) शुरू हुआ। उन्होंने ब्रिटिशों और उनके चाटुकार सहयोगियों पर लगातार हमले किए।
साल 1778 में, 28 वर्षीय तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासी एकजुट हुए और उन्होंने रामगढ़ छावनी (वर्तमान झारखंड) में स्थित कंपनी की पंजाब रेजिमेंट पर हमला किया। आदिवासी सेना इतनी प्रेरित और शक्तिशाली थी कि उनके पारंपरिक हथियारों ने कंपनी के सैनिकों की बंदूकों को मात दे दी। परिणामस्वरूप, ब्रिटिश सैनिक छावनी छोड़कर भाग गए। इसके बाद अंग्रेजों ने अपनी हार का बदला लेने का निर्णय लिया। अंग्रेजों को एहसास हुआ कि अगर आदिवासियों को सही तरीके से नियंत्रित नहीं किया गया, तो वे बंगाल के वन क्षेत्रों में उनके हितों के लिए गंभीर खतरा बन सकते हैं। इसलिए उन्होंने मंगेर, भागलपुर और राजमहल जिलों के लिए राजस्व कलेक्टर के रूप में एक ब्रिटिश अधिकारी ऑगस्ट क्लीवलैंड को नियुक्त किया।
क्लीवलैंड ने फूट डालो, राज करो नीति को अपनाते हुए योजना बनाई। उसने महसूस किया कि विद्रोह को दबाने का सबसे अच्छा तरीका आदिवासी एकता में दरार डालना था। उसने आदिवासियों के साथ प्रभावी ढंग से संवाद करने के लिए संथाली भाषा सीखी। संथाल परगना क्षेत्र के लगभग 40 जनजातियों ने जल्द ही कंपनी की सत्ता को स्वीकार कर लिया क्योंकि क्लीवलैंड ने उन्हें कर छूट जैसे लाभ प्रदान किए। ब्रिटिश अधिकारी ने पहाड़ियों के आदिवासियों से एक सेना इकाई भी बनाई। कंपनी में आदिवासियों को सिपाही के रूप में नियुक्त करना और उन्हें रोजगार देना एक प्रभावी फैसला था, जिसका उद्देश्य उनकी एकता को तोड़ना था।
क्लीवलैंड ने तिलका को भी इस पहाड़ी सेना में नौकरी और उनके प्रमुखों और जनजातियों को दी गई छूट का प्रस्ताव दिया। हालांकि, उन्होंने ब्रिटिशों की वास्तविक मंशा को समझ लिया और इन प्रलोभनों का विरोध किया। उनके पास अभी भी लोगों का समर्थन और प्रेम था। उन्होंने अंतिम संघर्ष के लिए आदिवासी एकता को मजबूत करने के लिए लगातार काम किया। तिलका ने उन आदिवासी समूहों को साल के पत्तों पर संदेश भेजे, जिन्होंने अभी तक ब्रिटिश सत्ता को स्वीकार नहीं किया था। उन्होंने उनसे अपनी भूमि बचाने के लिए एकजुट होने का आह्वान किया। इसका प्रभाव हुआ, और वे अपने लोगों के बीच भारी समर्थन जुटाने में सफल रहे।
साल 1784 में तिलका ने ब्रिटिशों के ख़िलाफ़ हथियार उठाए, जो 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से आधे से अधिक सदी पहले हुआ। उन्होंने आदिवासियों, मुख्य रूप से संथालों को संगठित कर एक सशस्त्र समूह बनाया और ब्रिटिशों के संसाधन हड़पने और शोषण के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी। 1784 के विद्रोह को अंग्रेजों के ख़िलाफ़ पहला सशस्त्र विद्रोह माना जाता है और इसी वर्ष संथालों के संघर्ष को ऐतिहासिक रूप से दर्ज किया गया। 1770 के अकाल और कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के आदेशों के कारण स्थानीय जमींदारों और संथाल ग्रामीणों के बीच समझौते की संभावनाएं लगभग खत्म हो गई थीं। तिलका मांझी ने ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासक ऑगस्टस क्लीवलैंड पर हमला किया और उन्हें गंभीर रूप से घायल कर दिया। ब्रिटिशों ने तिलापुर के जंगल को चारों तरफ से घेर लिया, जहां से तिलका संचालित कर रहे थे, लेकिन उन्होंने और उनके साथियों ने कई हफ्तों तक उन्हें रोके रखा। कुछ दिनों बाद क्लीवलैंड की मृत्यु हो गई। उसके बाद ब्रिटिश सेना के मनोबल पर यह बड़ा प्रहार था। क्लीवलैंड की एक भारतीय आदिवासी द्वारा हत्या होना ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए चेतावनी थी। कंपनी ने तिलका के विद्रोह को खत्म करने और उन्हें जीवित या मृत पकड़ने के लिए लेफ्टिनेंट जनरल एयरे कूट के नेतृत्व में एक मजबूत सेना भेजी।
ब्रिटिशों की जवाबी कार्रवाई
क्लीवलैंड की एक भारतीय आदिवासी द्वारा हत्या होना ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए चेतावनी थी। कंपनी ने तिलका के विद्रोह को खत्म करने और उन्हें जीवित या मृत पकड़ने के लिए लेफ्टिनेंट जनरल एयरे कूट के नेतृत्व में एक मजबूत सेना भेजी। 12 जनवरी 1785 में ब्रिटिश अधिकारी एयर कूट के नेतृत्व में जउराह नमक पहाड़िया सरदार के साथ मिलकर जबरा की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ, जिसमें कई लड़ाके मारे गए और तिलका को गिरफ्तार कर लिया गया। उसके बाद उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया। मीलों घसीटे जाने के बावजूद तिलका मांझी न केवल जीवित थे बल्कि अंग्रेजों की आँख से आँख मिला रहे थे। उसके बाद भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल बरगद पर 13 जनवरी को सरेआम फाँसी पर लटका दिया। हजारों की भीड़ के सामने देश की रक्षा के लिए तिलका मांझी फाँसी पर झूल गए। मृत्यु के वक़्त तिलका की उम्र मात्र 35 वर्ष थी।
तिलका मांझी का ब्रिटिशों के ख़िलाफ़ संघर्ष आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बना, जिसने आदिवासियों को औपनिवेशिक उत्पीड़न के ख़िलाफ़ खड़ा होने का साहस दिया। इसके बाद 1831 में झारखंड के सिंहभूम में हुआ कोल विद्रोह और 1855 में संथाल परगना में हुआ संथाल हूल बेहद सफल माना गया। भारत की आज़ादी की लड़ाई में शहीद वीर तिलका मांझी ने अहम भूमिका निभाई थीं लेकिन उनका ज़िक्र हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में कम देखने को मिलता है। भारत के अधिकांश हिस्सों ने तिलका मांझी को भुला दिया है, लेकिन वह आदिवासी गीतों में अमर हैं। इन गीतों में उनकी प्रशंसा की जाती है। आजादी के बाद उस स्थान पर उनकी मूर्ति स्थापित की गई, जहां उन्हें फांसी दी गई थी। यह स्थान एस.पी. भागलपुर का निवास स्थान है और इसे उनके नाम पर रखा गया है। भागलपुर विश्वविद्यालय का नाम भी बदलकर तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय कर दिया गया। झारखंड के दुमका में भी उनकी एक प्रतिमा स्थापित की गई है।
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