इंटरसेक्शनलजेंडर वृद्ध महिलाओं के स्वास्थ्य पर लैंगिक असमानताओं का प्रभाव

वृद्ध महिलाओं के स्वास्थ्य पर लैंगिक असमानताओं का प्रभाव

अनेक शोध के मुताबिक वृद्ध महिलाओं ने पुरानी बीमारियों, काम करने कि क्षमता की सीमित सीमाओं और महिलाओं से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं की उच्च दर बताई है। ये नुकसान पितृसत्ता में मौजूद जीवन भर की लैंगिक असमानताओं से भी जुड़े होते हैं।

अच्छे स्वास्थ्य और हेल्थी जीवन में उम्र एक बड़ी भूमिका निभाती है। हालांकि बदलते समय के साथ आज युवाएं और बच्चे भी कई बीमारियों का सामना कर रहे हैं। लेकिन, बढ़ती उम्र सभी को अलग-अलग रोगों में जकड़ती है। उम्र के साथ होने वाली बीमारियां या ऐसी बीमारियां जो उम्र के होने से और परेशान करती हैं, वो न सिर्फ समय पर इलाज की मांग करती है, बल्कि उचित देखभाल और खान-पान की भी मांग करती है। वैश्विक लैंगिक स्वास्थ्य अंतर विश्लेषण के अनुसार, महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक समय तक जीती हैं लेकिन अधिक सालों तक खराब स्वास्थ्य का सामना करती हैं। वहीं भारत में युवा लोगों की संख्या सबसे ज़्यादा है, लेकिन बुढ़ापे की दर तेज़ी से बढ़ रही है। वर्तमान में यह 153 मिलियन है (60 वर्ष और उससे ज़्यादा उम्र वाले) और बुज़ुर्गों की आबादी 2050 तक 347 मिलियन तक पहुंचने की उम्मीद है।

अनेक शोध के मुताबिक वृद्ध महिलाओं ने पुरानी बीमारियों, काम करने कि क्षमता की सीमित सीमाओं और महिलाओं से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं की उच्च दर बताई है। ये नुकसान पितृसत्ता में मौजूद जीवन भर की लैंगिक असमानताओं से भी जुड़े होते हैं। साल 2021 और 2031 के बीच 60 वर्ष से अधिक आयु वालों की हिस्सेदारी 41 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है। साथ ही, देश में उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मेघालय और मणिपुर को छोड़कर सभी राज्यों में मौजूदा प्रजनन दर 2.1 के रिप्लेसमेंट दर से नीचे है, जो देश की युवा आबादी में जल्द ही होने वाले गिरावट का संकेत दे रहा है। ऐसे में न सिर्फ मौजूदा प्रजनन दर चिंता का विषय है पर हमारे घरों में हमारे बड़े- बूढ़े लॉग भी हमारी चिंता का कारण है।

देश में वृद्ध महिलाओं में विधवा महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा है। 60 साल से अधिक आयु की 54 फीसद महिलाओं को बहुत ज्यादा आर्थिक कठिनाइयों, सामाजिक असुविधा और लंबे समय तक अस्वस्थता और विकलांगता का सामना करना पड़ता है।

वृद्ध महिलाएं और स्वास्थ्य देखभाल में कमी

तस्वीर साभार: Scroll.in

देश में 73.6 साल तक जीने वाली महिलाएं अब 70.5 साल तक जीवन जीने वाले पुरुषों की तुलना में ज्यादा समय तक जिंदा रहती हैं। इस कारण देश में वृद्ध महिलाओं की संख्या वृद्ध पुरुषों से ज्यादा है। हालांकि महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक समय तक जीवित रहती हैं, लेकिन वे जीवन भर बीमारी और विकलांगता का ज्यादा समय तक अनुभव करती हैं, जिसमें वृद्ध महिलाओं को नॉन फैटल यानी गैर-घातक और महिलाओं की विशिष्ट लंबे समय तक चलने वाली स्वास्थ्य स्थिति का अधिक बोझ झेलना पड़ता है। इसके अलावा, देश में वृद्ध महिलाओं में विधवा महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा है। 60 साल से अधिक आयु की 54 फीसद महिलाओं को बहुत ज्यादा आर्थिक कठिनाइयों, सामाजिक असुविधा और लंबे समय तक अस्वस्थता और विकलांगता का सामना करना पड़ता है।

लड़कियों में पोषण की कमी बुढ़ापे तक चलती है   

अमूमन घरों में लड़कियां और महिलाएं न सिर्फ सबसे आखिर में खाना खाती हैं बल्कि सबसे कम पौष्टिक भोजन खाती हैं। आम तौर पर घरों में सबसे पहले और सबसे ज्यादा और अच्छे खाने पर पहला अधिकार पुरुषों का होता है। इस कारण महिलाओं का पौष्टिक खाने से दूरी आजीवन बनी रहती है। समाज के पितृसत्तात्मक ढांचे ने महिलाओं के अभाव वाले जीवन के चक्र को जटिल तरीके से बरकरार रखा है, जिसके कारण लैंगिक असमानता पीढ़ी दर पीढ़ी चलती जाती है। जैसे, पश्चिम बंगाल के दो गांवों में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि सभी सामाजिक-आर्थिक स्तरों पर, जमीन के मालिकाने के और माँ की शिक्षा के आधार पर, लड़कियों की पोषण स्थिति लड़कों की तुलना में लगातार खराब रही है।

नेचर पार्टनर जर्नल्स की एक रिपोर्ट अनुसार हृदय संबंधी स्वास्थ्य में 60 साल और उससे अधिक उम्र की 39 फीसद वृद्ध महिलाओं ने हृदय संबंधी रोग की सूचना दी। इसमें हाई ब्लड प्रेशर, हृदय रोग और स्ट्रोक शामिल था। ये वृद्ध पुरुषों के लिए 31 फीसद था।

महिलाओं के पोषण को कम महत्व और ज्यादा बीमारियां

आज से कुछ दशक पहले भी महिलाओं के स्वास्थ्य पर शोध मुख्य रूप से यौन और प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर होता रहा है। हालांकि ये जरूरी विषय है लेकिन यह उनके पूरे जीवन को प्रभावित करने वाले दूसरे स्वास्थ्य मुद्दों को शामिल नहीं करते हैं। वृद्धावस्था में बीमारी और विकलांगता के बोझ को समझने के लिए लैंगिक असमानताओं का विश्लेषण करना जरूरी है। वृद्ध महिलाओं के खराब स्वास्थ्य के पीछे उनके पोषण, स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच और समाज में मौजूद लैंगिक भेदभाव कारण हो सकते हैं। अगर इन मुद्दों को सबूतों के आधार पर समझा जाए, तो बेहतर नीतियां बनाया जा सकता है। ऐसी नीतियां जो वृद्ध महिलाओं को जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं, आर्थिक सहयोग और सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर सकें।

तस्वीर साभार: The Hindu

नेचर पार्टनर जर्नल्स की एक रिपोर्ट अनुसार हृदय संबंधी स्वास्थ्य में 60 साल और उससे अधिक उम्र की 39 फीसद वृद्ध महिलाओं ने हृदय संबंधी रोग की सूचना दी। इसमें हाई ब्लड प्रेशर, हृदय रोग और स्ट्रोक शामिल था। ये वृद्ध पुरुषों के लिए 31 फीसद था। इसी तरह, 16 फीसद वृद्ध पुरुषों की तुलना में 22 फीसद वृद्ध महिलाओं में हड्डी या जोड़ की बीमारी की सूचना दी। वृद्ध महिलाओं ने वृद्ध पुरुषों की तुलना में एनीमिया और कैंसर के होने की भी ज्यादा जानकारी दी। मेटाबोलिक स्वास्थ्य के मामले में, 26 फीसद वृद्ध महिलाओं में अधिक वजन और मोटापे का प्रचलन पाया गया। वहीं यह वृद्ध पुरुषों में 17 फीसद था। मानसिक स्वास्थ्य के मामले में 7.2 फीसद वृद्ध पुरुषों की तुलना में 9.2 फीसद वृद्ध महिलाओं में डिप्रेशन का प्रचलन ज्यादा था।

मुंबई में एक अध्ययन के दौरान 100 निम्न-वर्गीय महिलाओं के आहार की जांच की गई। अध्ययन के अनुसार सभी महिलाओं ने सफेद चावल, जंक-फूड और तेल का सेवन किया था। 75 महिलाओं ने आलू, दूध और चीनी का उपयोग किया था। वहीं, 33 महिलाएं नियमित रूप से सुपारी खाती थीं।

खाने में जाति और वर्ग का प्रभाव

भारत में दोहरे कुपोषण की समस्या आर्थिक और सामाजिक कारणों से जुड़ी है। प्रवासी मजदूर अक्सर आजीविका की तलाश में महानगरों में आते हैं, जिससे उनके आहार-पैटर्न पर असर पड़ता है। मुंबई में एक अध्ययन के दौरान 100 निम्न-वर्गीय महिलाओं के आहार की जांच की गई। अध्ययन के अनुसार सभी महिलाओं ने सफेद चावल, जंक-फूड और तेल का सेवन किया था। 75 महिलाओं ने आलू, दूध और चीनी का उपयोग किया था। वहीं, 33 महिलाएं नियमित रूप से सुपारी खाती थीं। भारतीय अनुशंसित आहार भत्ता (RDA, 2020) के अनुसार, कोई भी महिला अपनी ऊर्जा और प्रोटीन की जरूरत पूरी नहीं कर पाई। लेकिन उनका औसत फैट सेवन तय सीमा से ज्यादा था। वहीं, 33-40 वर्ष की उम्रदराज महिलाओं ने 25-32 वर्ष की युवा महिलाओं के मुकाबले अधिक कैलोरी और फैट का सेवन किया था। फैट का अधिक सेवन पेट के मोटापे से जुड़ा हुआ पाया गया। इन महिलाओं का फल, सब्जी, प्रोटीन और कुल कैलोरी का सेवन कम था। इसके उलट, उनका फैट जंक-फूड, सुपारी और चीनी का उपयोग अधिक था।

क्या है सरकार की नीति

तस्वीर साभार: India Today

सरकार के नीतियों की बात करें, तो ओआरएफ के अनुसार साल 1999 में सरकार ने वृद्ध व्यक्तियों के अंतर्राष्ट्रीय वर्ष के मौके पर वृद्ध व्यक्तियों के लिए राष्ट्रीय नीति (एनपीओपी) बनाई थी। इस नीति ने बुजुर्गों की बढ़ती संख्या से जुड़े सामाजिक और आर्थिक प्रभावों को स्वीकार किया। लेकिन इसे ठीक से हल नहीं कर पाई। इसकी सबसे बड़ी कमजोरी थी कि इसमें स्पष्ट लक्ष्य, बजट आवंटन, कार्यान्वयन के दिशा-निर्देश और प्रगति की समीक्षा का कोई ठोस तंत्र नहीं था। साल 2011 में वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक नई राष्ट्रीय नीति का ड्राफ्ट तैयार किया गया, लेकिन इसे कभी अंतिम रूप नहीं दिया गया। इसलिए, देश में 1999 की नीति ही लागू रही। वहीं, साल 2020 में खबरें आई कि बुजुर्गों के लिए एक नई नीति बनाई जा रही है, लेकिन इसका कोई विवरण सार्वजनिक नहीं किया गया।

वृद्ध महिलाओं ने वृद्ध पुरुषों की तुलना में एनीमिया और कैंसर के होने की भी ज्यादा जानकारी दी। मेटाबोलिक स्वास्थ्य के मामले में, 26 फीसद वृद्ध महिलाओं में अधिक वजन और मोटापे का प्रचलन पाया गया। वहीं यह वृद्ध पुरुषों में 17 फीसद था।

सरकार की नीतियों पर ध्यान दें तो देश में मौजूद नौ में से छह योजनाएं वृद्धों को वित्तीय सहायता या जीविका प्रदान करने पर केंद्रित हैं, जिसका एक अहम कारण ये भी है कि 40 फीसद से अधिक बुजुर्ग सबसे गरीब वर्ग में आते हैं, जिनमें से लगभग 18.7 फीसद बिना किसी आय के जीवन बीता रहे हैं। हालांकि पैसे के मदद जरूरी है, लेकिन ये इस सच को नजरन्दाज़ करती है कि बड़ी संख्या में वृद्ध कार्यबल में भागीदारी निभाते हैं। इंडिया एजिंग रिपोर्ट 2023 के अनुसार, 60 वर्ष या उससे अधिक आयु के आधे से अधिक पुरुष और एक चौथाई महिलाएं श्रम बाजार में सक्रिय थी।

भारत में वृद्ध महिलाओं के स्वास्थ्य पर ध्यान देना बेहद जरूरी है। पितृसत्तात्मक ढांचे, पोषण की कमी और सीमित स्वास्थ्य सेवाओं के कारण वृद्ध महिलाओं को जीवन भर स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का ज्यादा सामना करना पड़ता है। सरकार की नीतियों में सुधार और महिलाओं के लिए अधिक समावेशी स्वास्थ्य योजनाएं लागू करने से इस असमानता को कम किया जा सकता है। वृद्धावस्था के स्वास्थ्य में सुधार के लिए सशक्त नीतियों और समाज में लैंगिक असमानता को कम करने की जरूरत है। असल में सही नीति निर्माण से स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में लिंग आधारित असमानताओं को कम किया जा सकता है और सभी को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार दिया जा सकता है।  

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