इंटरसेक्शनलजेंडर महिलाओं के कपड़ों पर नहीं, सोच पर हो बदलाव की बात!

महिलाओं के कपड़ों पर नहीं, सोच पर हो बदलाव की बात!

विनम्रता और नैतिकता के आदर्शों को अपनाने वाली पारंपरिक अपेक्षाएं अक्सर महिलाओं के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं। यह अवधारणा भारतीय समाज में गहराई से व्याप्त है। एक साड़ी या सलवार-कमीज़ को उपयुक्त माना जाता है, जबकि शॉर्ट्स, स्लीवलेस टॉप या रिप्ड जींस को अक्सर 'पश्चिमी' और अनुपयुक्त के रूप में लेबल किया जाता है। ऐतिहासिक रूप से समाज महिलाओं के शरीर और कपड़ों को पारिवारिक सम्मान, धार्मिक गौरव और राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक समझता रहा है।

हाल ही में केरल हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा कि महिलाओं के पहनावे की पसंद नैतिक पहरेदारियां निर्णय का विषय नहीं होना चाहिए, विशेष रूप से अदालतों द्वारा। यह टिप्पणी हाल ही में अपने बच्चों की कस्टडी और अपने पूर्व पति के ख़िलाफ़ एक महिला द्वारा दायर अपील को स्वीकार करते हुए अदालत ने अपने फैसले ने की है। एक तरफ हाईकोर्ट की प्रगतिशील टिप्पणी को देखकर हम खुश हो सकते हैं, लेकिन पारिवारिक कोर्ट ने महिला के कपड़े पहनने और डेटिंग ऐप्स पर अकाउंट होने के कारण बच्चों की कस्टडी न देने का कारण बताया। निचली अदालत के फैसले का आधार देखने पर सिस्टम में लिप्त स्त्रीद्वेष और लैंगिक पूर्वाग्रह दिखाई पड़ता है।

थेरसा एल. लेनन, शैरन जे. लेनन, और किम के.पी. जॉनसन अपने पेपर ‘इज क्लोथिंग प्रोबेटिव ऑफ एटीट्यूड और इंटेंट- इम्प्लिकेशन्स फॉर रेप और सेक्सुअल हैरेसमेंट केसेज’ में लिखते हैं कि महिलाओं के कपड़ों को उनके व्यवहार या इरादे का संकेत मानना न केवल अनुचित है, बल्कि न्यायिक प्रक्रियाओं और सामाजिक न्याय के लिए हानिकारक भी है। यह अध्ययन बताता है कि महिलाओं के पहनावे का उनके साथ हुए अपराधों के लिए दोषारोपण से कोई वास्तविक संबंध नहीं है। इसके बावजूद, भारतीय समाज, संस्थान, और अदालतें अक्सर इस मिथक को आधार बनाकर महिलाओं की स्वतंत्रता और अधिकारों पर सवाल उठाती हैं। केवल अदालत ही नहीं, सरकारी से लेकर प्राइवेट वर्कप्लेस, स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय, इन्हीं पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर महिलाओं के कपड़ों को लेकर खास तरह के नियम बनाते हैं और उनसे उसकी नैतिकता को जोड़ते हैं।

भारत में मोरल पुलिसिंग समान नहीं है। जहां दलित और पिछड़े समाज की महिलाओं के ‘आधुनिक परिधान’ को पारंपरिक सामाजिक व्यवस्थाओं के लिए चुनौती के रूप में देखा जाता है, वहीं तथाकथित उच्च तबके की महिलाओं की भारतीय मूल्यों को त्यागने के नाम पर आलोचना की जाती है।

साल 2023 में सोशल मीडिया पर महिलाओं से शालीनता से कपड़े पहनने की दरख्वास्त करते हुए एक पोस्टर वायरल हुआ। ‘मस्त समूह’ (कूल ग्रुप) के नाम से इस पोस्टर में महिलाओं को ऐसे कपड़े पहनने की सलाह दी गई है, जिससे उन पर कोई बुरी नज़र न डाले। इसके जवाब में ‘त्रस्त समूह’ के नाम से छपे पोस्टर में लिखा गया, ‘पुरुषों, अपना दिमाग इतना साफ़ रखो कि कोई महिला चाहे कुछ भी पहने, आपकी नज़र उस पर न पड़े।’ मस्त समूह का यह पोस्टर महिलाओं के शरीर और उनके कपड़ों को नैतिकता से जोड़ने वाले पितृसत्तात्मक समाज का ही प्रतिबिंब है। गौर से देखा जाए तो इस पोस्टर में कुछ खास कपड़ों की ओर इशारा किया गया है पर उनका विवरण नहीं है। तो फिर कौन से हैं ये कपड़े जो महिलाओं को बुरी नजर से बचाते हैं और क्यों हमारे समाज में ऐसे मानदंड महिलाओं के लिए ही हैं?

कैसे महिलाओं की मोरल पुलिसिंग को सामान्य बताया जाता है

विनम्रता और नैतिकता के आदर्शों को अपनाने वाली पारंपरिक अपेक्षाएं अक्सर महिलाओं के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं। यह अवधारणा भारतीय समाज में गहराई से व्याप्त है। एक साड़ी या सलवार-कमीज़ को उपयुक्त माना जाता है, जबकि शॉर्ट्स, स्लीवलेस टॉप या रिप्ड जींस को अक्सर ‘पश्चिमी’ और अनुपयुक्त के रूप में लेबल किया जाता है। ऐतिहासिक रूप से समाज महिलाओं के शरीर और कपड़ों को पारिवारिक सम्मान, धार्मिक गौरव और राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक समझता रहा है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, साड़ी औपनिवेशिक संस्कृति के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक बन गई। विडंबना यह है कि समकालीन समय में इसी सांस्कृतिक परिधान का उपयोग किसी महिला की नैतिकता का आकलन करने के लिए एक बेंचमार्क के रूप में किया जाता है, जिससे व्यक्तिगत पसंद के लिए बहुत कम जगह बचती है। भारत में मोरल पुलिसिंग समान नहीं है। जहां दलित और पिछड़े समाज की महिलाओं के ‘आधुनिक परिधान’ को पारंपरिक सामाजिक व्यवस्थाओं के लिए चुनौती के रूप में देखा जाता है, वहीं तथाकथित उच्च तबके की महिलाओं की भारतीय मूल्यों को त्यागने के नाम पर आलोचना की जाती है।

स्कूल में होता है लड़कियों की पहचान छीनने का पहला प्रयास

हमारे स्कूल शिक्षा देने के साथ-साथ सामाजिक संरचना के निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन जहां सामाजिक विज्ञान की किताबों में हमें समानता का पाठ पढ़ाया जाता है, वहीं लैंगिक भेदभाव पर आधारित स्त्रीद्वेषी नियमों द्वारा लड़कियों की मोरल पुलिसिंग की शुरुआत भी की जाती है। बचपन से लड़कियों के बालों और कपड़ों को लेकर स्कूल खास तरह के नियम बनाते हैं, जैसे बाल खुले न होना, केवल दो चोटी बनाकर आना, स्कर्ट और शर्ट की लंबाई का निर्धारण करना। इन सभी नियमों के पीछे पितृसत्तात्मक सोच होती है, जो लड़कियों को लड़कों के भटकाव का कारण बताती है। ऐसी दलीलें न केवल महिलाओं के वस्तुकरण का कारण बनती हैं, बल्कि लड़कों की उत्तेजना का कारण लड़कियों को बताकर, उन पर नियंत्रण को सही ठहराती हैं।

स्कूलों में छात्राओं के साथ-साथ शिक्षिकाओं के कपड़ों को लेकर भी नियम बनाए जाते हैं। इस विषय पर बात करते हुए वंशिका बताती हैं, “जब मैं हॉस्टल में रहती थी तब वहां लड़कियों को जीन्स पहनने की अनुमति नहीं दी जाती थी। अगर हम इसका विरोध करें, तो वे कहते हैं कि लड़कियां केवल ढीली जीन्स पहन सकती हैं, खासकर रविवार को, और वह भी इस शर्त पर कि जीन्स कसी हुई न हो, विशेष रूप से कमर के पास। उनका तर्क होता है कि इससे लड़कों का ध्यान भटक सकता है, और अगर लड़के कोई अभद्र टिप्पणी करें, तो उसकी पूरी जिम्मेदारी हमारी होगी।”

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

पिछले तीन सालों में, मैं जयपुर के एक गर्ल्स हॉस्टल में रही, जहां हमें हॉस्टल के बाहर शॉर्ट्स पहनने की सख्त मनाही थी। ऐसा मान लिया जाता है कि महिलाओं के कपड़े उनके चरित्र और उनकी सुरक्षा दोनों के लिए जिम्मेदार होते हैं। यह सोच महिलाओं के व्यक्तित्व और उनके अधिकारों को नकारती है और उनके जीवन के हर पहलू को सामाजिक स्वीकृति के दायरे में बांधती
है। लेडी श्रीराम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय की ग्रेजुएट नंदना कहती हैं, “एक बार मैंने शार्ट स्कर्ट पहने हुए एक तस्वीर सोशल मीडिया पर डाली जिस पर पूर्व में प्रधानाचार्या रह चुकी एक रिश्तेदार ने पापा को फ़ोन करके कहती है, “क्या आपने इस तरह अपनी बेटी को पाला है, ये रास्ते से भटक चुकी है। इसके बाद मेरे पापा ने मुझे फोटो डिलीट करने के लिए कहा, और मुझे करनी पड़ी ,वरना इस सब का दोष मेरी माँ को दिया जाता जिस तरह मेरे हर बार बाल छोटे कटवाने पर दिया जाता है। यह भी अजीब है कि हर बार कैसे इस सबके के लिए मेरी माँ को दोषी माना जाता है, पापा को नहीं। और यह उस दोषी माना जाता है जो कोई दोष ही नहीं है। बाद में मेरी दोस्त ने मुझे व्हाट्सएप डीपी चुनिंदा लोगो से हाईड करने की सलाह दी, और मैंने हालत को देखकर वही किया।” दरअसल सोशल मीडिया पर हाइड वाला समाधान अक्सर महिलाएं और लड़कियां मोरल पुलिसिंग से बचने के लिए करती हैं।

रेप को जस्टिफाइ करना और ब्लेम गेम

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

हमारे समाज में आम से लेकर ख़ास तक सब लैंगिक हिंसा के मामले में विक्टिम ब्लेमिंग करते हैं। महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा का दोष उनके कपड़ो पर डाल देते हैं। ब्लेम गेम में अक्सर इस तरह की बातें कही जाती है- ‘एक हाथ से ताली नहीं बजती’, ‘लड़कियां जीन्स पहन के घूमती हैं।’, उनके मुस्कराने को भी एक कारण माना जाता है। लड़कियों के कपड़े, बाल, चाल-ढाल, और मुस्कान को लोग कंसेंट समझ लेते हैं। इस तरह की बातें उस दकियानूसी सोच को दिखाती है कि महिलाएं अपने कपड़ों के कारण खुद को बलात्कार, यौन हमलों, और यौन उत्पीड़न का कारण बनती है। महिलाओं और लड़कियों को हर जगह मोरल पुलिसिंग का सामना करना पड़ता है, जिस वजह से उनके जीवन में आगे बढ़ने के कई विकल्प तक बंद हो जाते हैं। आपके सोशल मीडिया पर आप क्या पोस्ट कर रही हैं, इन सबको आधार बनाकर भी वर्कप्लेस से महिलाओं को नौकरी से बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है।

ऐसा ही कुछ हुआ 2022 में कोलकाता के सेंट जेवियर यूनिवर्सिटी में जहां एक पूर्व सहायक प्रोफेसर के सोशल मीडिया पर बिकिनी में अपनी तस्वीरें साझा करने के लिए अपनी नौकरी छोड़ने पर मजबूर किया गया था। इस घटना से यह स्पष्ट होता है कि महिलाओं के निजी जीवन और उनकी पसंद को सार्वजनिक और संस्थागत दायरे में घसीटकर कैसे उन्हें शर्मिंदा किया जा सकता है। इस पर बोलते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज से पीएचडी कर रही कर रही रेशम दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अपने इंटीग्रेटेड बीए-बीएड के समय की बात करते हुए बताती है कि किस तरह पूरा पूरे शिक्षा विभाग के शिक्षक हमेशा नैतिक पुलिसिंग में लगे रहते थे, यह बताते हुए कि क्या पहनना है, क्या नहीं पहनना है, क्या करना है, और क्या नहीं करना है। वह कहती है, “मैं स्लीवलेस टॉप और कुर्तियां पहनने की शौकीन थी, और मुझे मेरे प्रोफेसर ने 3-4 बार टोका। एक बार उन्होंने कहा, “रेशम, तुम एक शिक्षक बनने जा रही हो, वैसा ही व्यवहार करना शुरू करो।”

बचपन से लड़कियों के बालों और कपड़ों को लेकर स्कूल खास तरह के नियम बनाते हैं, जैसे बाल खुले न होना, केवल दो चोटी बनाकर आना, स्कर्ट और शर्ट की लंबाई का निर्धारण करना। इन सभी नियमों के पीछे पितृसत्तात्मक सोच होती है, जो लड़कियों को लड़कों के भटकाव का कारण बताती है।

कपड़े हमारी पर्सनालिटी का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। महिलाओं के पहनावे को केवल उनकी व्यक्तिगत पसंद के रूप में नहीं, बल्कि समुदाय की इज्जत और मूल्यों के सामूहिक प्रतीक के रूप में देखा जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि उन पर प्रतिबंधात्मक मानदंड थोपे जाते हैं, जिनमें अक्सर महिलाओं की वैयक्तिकता और स्वतंत्रता को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इसी तरह ईरान में महसा अमिनी की मृत्यु ने दिखाया कि महिलाओं पर कपड़ों के आधार पर नियंत्रण का उग्र रूप कितना खतरनाक हो सकता है। यह घटना एक चेतावनी है कि किसी भी समाज में, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों के खिलाफ लगाए गए पितृसत्तात्मक नियम अंततः मानवता के लिए घातक सिद्ध होते हैं। हमें व्यक्तिगत रूप से मोरल पुलिसिंग के खिलाफ आवाज उठाने की आवश्यकता है। जब भी हमारे आस-पास किसी महिला को उसके पहनावे या व्यक्तिगत पसंद के आधार पर जज किया जाए, तो उसका विरोध करना चाहिए। अपनी सोच और व्यवहार में बदलाव लाकर समानता और स्वतंत्रता के मूल्यों को बढ़ावा देना जरूरी है।


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content