समाजकानून और नीति पति के वित्तीय दावों पर पत्नी और बच्चों के अधिकारों की प्राथमिकता: सुप्रीम कोर्ट

पति के वित्तीय दावों पर पत्नी और बच्चों के अधिकारों की प्राथमिकता: सुप्रीम कोर्ट

न्यायालय ने कहा कि पत्नी और बच्चों के लिए भरण-पोषण का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार के समान है। यह अधिकार एक गरिमापूर्ण जीवन और जीविका सुनिश्चित करता है और इसलिए वसूली कानूनों के तहत लेनदारों के वैधानिक अधिकारों पर पूर्वता लेता है। एक पति द्वारा पत्नी और बच्चों की बुनियादी जरूरतों को सुनिश्चित करना लेनदारों द्वारा किए गए वित्तीय दावों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।

पिछले महीने, एक ऐतिहासिक फैसले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पति के पत्नी और बच्चों के लिए भरण-पोषण के अधिकारों के बुनियादी महत्व को सुदृढ़ किया, और इस बात पर जोर दिया कि इन अधिकारों को पति की संपत्ति पर लेनदारों के दावों पर प्राथमिकता दी जाएगी। यह निर्णय एक महत्वपूर्ण मिसाल है जो न्याय,  गरिमा और जीविका के अधिकार के सिद्धांतों को मजबूती देता है। यह मामला गुजरात उच्च न्यायालय के दिए गए भरण-पोषण के विवाद से शुरू हुआ था। गुजरात उच्च न्यायालय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत अपीलकर्ता एक हीरा व्यापारी की पत्नी और बच्चों को दी जाने वाली भरण-पोषण राशि में उल्लेखनीय वृद्धि की थी।

उच्च न्यायालय ने एक हीरा व्यापारी को अपनी पत्नी को हर महीने 1 लाख रुपये और दो बच्चों को 50,000-50,000 रुपये भरण-पोषण के रूप में देने का आदेश दिया। यह राशि फैमिली कोर्ट द्वारा तय की गई राशि से काफी ज्यादा थी। फैमिली कोर्ट ने पत्नी के लिए हर महीने ₹6,000 और हर बच्चे के लिए ₹3,000 तय किए थे। उच्च न्यायालय ने व्यापारी की आय का अनुमान लगाकर यह फैसला दिया। व्यापारी, जो एक हीरा फैक्ट्री चलाता है, आयकर दस्तावेज पेश करने में असफल रहा, जिससे अदालत ने यह मान लिया कि उसकी आय काफी अधिक है। बाद में व्यापारी ने सुप्रीम कोर्ट में व्यावसायिक असफलताओं और पत्नी की स्वतंत्र आय का हवाला देते हुए इस आदेश को चुनौती दी कि निर्धारित भरण-पोषण की राशि बहुत ज्यादा और वित्तीय रूप से अस्थिर थी।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

अपीलकर्ता ने कहा कि उसे भी व्यवसाय में असफलताओं का सामना करना पड़ा है और साथ ही वसूली की कार्यवाही का सामना करना पड़ा है। इसलिए वह अपनी पत्नी और बच्चों के रखरखाव का भुगतान करने की स्थिति में नहीं है। न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने हीरा व्यापारी की इस याचिका को खारिज कर दिया। पीठ ने कहा कि भरण-पोषण का अधिकार जीविका के अधिकार के अनुरूप है। यह अधिकार गरिमा और सम्मानजनक जीवन के अधिकार का एक उपसमूह है, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 से आता है।

उच्च न्यायालय ने एक हीरा व्यापारी को अपनी पत्नी को हर महीने 1 लाख रुपये और दो बच्चों को 50,000-50,000 रुपये भरण-पोषण के रूप में देने का आदेश दिया। यह राशि फैमिली कोर्ट द्वारा तय की गई राशि से काफी ज्यादा थी।

क्या है जीविका के मौलिक अधिकार

न्यायालय ने कहा कि पत्नी और बच्चों के लिए भरण-पोषण का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार के समान है। यह अधिकार एक गरिमापूर्ण जीवन और जीविका सुनिश्चित करता है और इसलिए वसूली कानूनों के तहत लेनदारों के वैधानिक अधिकारों पर पूर्वता लेता है। एक पति द्वारा पत्नी और बच्चों की बुनियादी जरूरतों को सुनिश्चित करना लेनदारों द्वारा किए गए वित्तीय दावों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने व्यापारी की वित्तीय स्थिति को समझते हुए भरण-पोषण की निर्धारित राशि को आधा कर दिया और अपीलकर्ता को तीन महीने के भीतर बकाया भुगतान करने का निर्देश दिया।

न्यायालय का यह फैसला अपनेआप में बहुत महत्वपूर्ण है। कई बार पति अपनी पत्नी और बच्चों के रखरखाव की ज़िम्मेदारी से बचने के लिए इस तरह के हथकंडों का उपयोग करते हैं। न्यायालय ने इसी को लेकर कहा कि एक तरह से रखरखाव का अधिकार मौलिक अधिकार के बराबर होने के कारण वित्तीय ऋणदाताओं, सुरक्षित ऋणदाताओं, परिचालन ऋणदाताओं या इसके अंतर्गत आने वाले ऐसे किसी भी अन्य दावेदारों को दिए गए वैधानिक अधिकारों से बेहतर होगा और इसका अत्यधिक प्रभाव होगा।

न्यायालय का यह फैसला अपनेआप में बहुत महत्वपूर्ण है। कई बार पति अपनी पत्नी और बच्चों के रखरखाव की ज़िम्मेदारी से बचने के लिए इस तरह के हथकंडों का उपयोग करते हैं।

न्यायालय के फैसले में संतुलन 

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला दिखाता है कि न्यायालय ने विभिन्न पक्षों के हितों को संतुलित करने की कोशिश की है। कोर्ट ने यह सुनिश्चित करते हुए कि भरण-पोषण का अधिकार सुरक्षित है, अपीलकर्ता की वित्तीय स्थिति के संबंध में साक्ष्य पर विचार करते हुए पूर्व निर्धारित राशि को कम किया। इससे पत्नी और बच्चों के मौलिक अधिकारों का हनन भी नहीं हुआ और न उसे भरण-पोषण से वंचित रहना पड़ा। कम की गई रखरखाव राशि अपीलकर्ता पर एक अस्थिर वित्तीय बोझ डाले बिना जीविका प्रदान करने के लिए एक अस्थायी उपाय के रूप में कार्य करती है। 

भारत में भरण-पोषण कानूनों का उद्देश्य 

पारिवारिक कानून में भरण-पोषण का उपयोग अक्सर पति-पत्नी के सहयोग या गुजारा भत्ते के पर्याय के रूप में किया जाता है, और यह शब्द वास्तव में गुजारा भत्ते की जगह ले रहा है। परंपरागत रूप से, गुजारा भत्ता पूरी तरह से पत्नी का अधिकार था जिसे पति द्वारा समर्थित किया जाता था। वर्तमान में, आश्रित पति या पत्नी और बच्चों को वित्तीय सहायता देने, उन्हें गरीबी और बर्बादी में जाने से रोकने के लिए भरण-पोषण कानूनों को सामाजिक न्याय उपाय के रूप में अपनाया गया है। एक महिला को अपनी और अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए अपने पति से भरण-पोषण का अनुरोध करने की अनुमति है। इसके द्वारा पत्नी के जीवन-यापन के खर्चों को कवर करने और नुकसान को कम करके उसे गरिमा के साथ जीवन जीने की पेशकश की जाती है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

न्यायालय द्वारा भरण-पोषण की राशि को निर्धारित करते समय आम तौर पर कुछ आवश्यक मानकों को ध्यान में रखा जाता है। जैसे- प्राप्तकर्ता की वित्तीय ज़रूरतें, भुगतानकर्ता की भुगतान करने की क्षमता, पार्टियों की उम्र और स्वास्थ्य, विवाह के दौरान प्राप्तकर्ता जिस जीवन स्तर का आदी हो गया था, विवाह की अवधि, प्रत्येक पक्ष की कमाने और स्वावलंबी बनने की क्षमता और शादी में प्राप्तकर्ता का गैर-मौद्रिक योगदान। ये प्रावधान आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 में धारा 125 से 128 के तहत, हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत, हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के तहत शामिल हैं।

घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम 2005, माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 के तहत भी भरण-पोषण का प्रावधान है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सभी नागरिकों को गरिमापूर्ण जीवन बिताने का मौलिक अधिकार दिया गया है। 

घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम 2005, माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 के तहत भी भरण-पोषण का प्रावधान है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सभी नागरिकों को गरिमापूर्ण जीवन बिताने का मौलिक अधिकार दिया गया है। इसके आलावा, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39 में यह भी कहा गया है कि राज्य, विशेष रूप से, अपनी नीतियों को यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देशित करेगा कि नागरिकों, पुरुषों और महिलाओं को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधन का अधिकार हो, बच्चों को अवसर और सुविधाएं दी जाएं। इसके अलावा नागरिकों का स्वस्थ तरीके से और स्वतंत्रता और गरिमा की स्थितियों में विकास करना और बचपन और युवावस्था को शोषण से और नैतिक और भौतिक परित्याग से संरक्षित किया जाना चाहिए।

न्यायालय का आर्डर बनाम भरण-पोषण राशि प्राप्त करना

महिलाओं को भरण-पोषण की राशि तक पहुंचने में कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है, भले ही अदालत इसके लिए आदेश दे चुकी हो। पितृसत्तात्मक मानसिकता तलाक को कलंकित करती है, जिससे पुरुष आदेश के बावजूद भुगतान से बचते हैं। भरण-पोषण कानून लिंग तटस्थ है, लेकिन इसका लाभ ज्यादातर महिलाएं ही मांगती हैं। फिर भी, कानूनी अधिकारों और कड़े कानूनों के बावजूद, महिलाएं अक्सर इस हक से वंचित रह जाती हैं। अमूमन पुरुष नए-नए तरीके अपनाकर महिलाओं को उनके अधिकार से दूर रखते हैं। सामाजिक और आर्थिक दबाव, सुविधाजनक तंत्र की कमी, और न्याय प्रक्रिया की जटिलता के कारण कई महिलाएं या तो समझौता कर लेती हैं या अपना दावा छोड़ देती हैं। इसलिए, न्यायालय का ये फैसला एक महत्वपूर्ण फैसला है, जो महिलाओं की सुरक्षा और गरिमा को सुनिश्चित करने का एक प्रयास है।

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