समाजराजनीति क्वीयर समुदाय की अनकही समस्याओं को क्या दिल्ली सरकार सुन रही है?

क्वीयर समुदाय की अनकही समस्याओं को क्या दिल्ली सरकार सुन रही है?

भले ही 2018 में धारा 377 को खत्म कर दिया गया और 2019 में ट्रांसजेंडर (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम लागू हुआ, फिर भी कार्यस्थलों पर भेदभाव और पूर्वाग्रह जारी हैं।

आज से 16 साल पहले साल 2008 में दिल्ली का पहला क्वीर प्राइड मार्च 30 जून को हुआ था। आज दिल्ली में हर साल प्राइड परेड का सिर्फ आयोजन ही नहीं होता, बल्कि यह एक जश्न है-जीत का, प्यार का और समावेशिता का। क्वीयर समुदाय या प्राइड हमेशा से निजी विषय होते हुए भी एक राजनीतिक विषय रहा है। आम तौर पर राजनीतिक पार्टियां भी सिर्फ ट्रांस समुदाय के लिए आधार या वोटर कार्ड जैसे बुनियादी अधिकार तक के वादे करती है। जब जमीनी स्तर पर हम समुदाय के लोगों को देखते हैं तो समझ आता है कि आज भी राजधानी दिल्ली भले प्राइड का जश्न मना रही हो, क्वीयर समुदाय के हालात जस के तस हैं।   दिल्ली आगामी विधानसभा चुनाव के लिए पूरी तरह तैयार है। लेकिन, सरकार एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को आज भी दरकिनार क्यों करती है, इसी सच्चाई को हमने पता लगाने की कोशिश की।

सरकार की कोई भी योजना हो, युवाओं और महिलाओं के लिए ढेरों संकल्प लिए गए हैं। लेकिन, बात की जाए एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की घोषणापत्रों में सिर्फ ट्रांस समुदाय के लिए आधार, वोटर कार्ड और ज्यादा से ज्यादा मुफ़्त बस सेवा दिया गया है। रोजगार और स्वास्थ्य दो ऐसे मुद्दे हैं जहां एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। समुदाय के लोग अमूमन रोजगार की मारामारी और स्वास्थ्य सेवाओ में चुनौतियों का सामना करते हैं। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के विकास में अवरोधक के रूप में ऐसे कई आयाम हैं जिन्हें अक्सर नजरदांज किया जाता रहा है। जिनमें विशेष रूप से रोजगार और स्वास्थ्य सेवायों की चुनौतियां हैं, जहां न सिर्फ सुविधाओं तक पहुँच बल्कि सामाजिक रूढ़िवाद काम करती है।

जब मैंने उसकी हालत देखी तो मुझे शक हुआ कि उसका सही इलाज नहीं हो रहा। बाद में पता चला कि डॉक्टर ने बिना पूरी जांच किए उसका पाइल्स का इलाज शुरू कर दिया था। वह दो महीने तक यही सोचता रहा कि उसे पाइल्स है और दवाएं खाता रहा। लेकिन असल में उसकी बीमारी कुछ और थी।

स्वास्थ्य सेवा में भेदभाव और पूर्वाग्रह

स्वास्थ्य सेवा प्रोवाइडर कई बार जानबूझकर या अनजाने में पूर्वाग्रह दिखा सकते हैं, जिससे उपचार या देखभाल  करने से बचने जैसी समस्याएं हो सकती हैं। कई बार इस भेदभाव और पूर्वाग्रह के डर से क्वीयर समुदाय के लोग स्वास्थ्य देखभाल लेने से कतराते हैं और सही समय पर अपना इलाज नहीं करवा पाते। ऐसे में वे स्वास्थ्य के बुनियादी अधिकार से दूर हो जाते हैं। राशि दिल्ली में रहने वाली एक ट्रांसवुमन हैं। वह कहती हैं, “कुछ महीने पहले मैं एक डेटिंग ऐप के माध्यम से एक लड़के से जुड़ी। चूंकि मैंने बायो में दे रखा था कि मैं स्वास्थ्य के मामले में समुदाय के लोगों की मदद कर सकती हूँ, तो ऐप की मदद से उस लड़के ने मुझसे मदद मांगी। उसने बताया कि वह एचआईवी पाज़िटिव है और उसे कई यौन संचारित रोग भी हैं। क्या मैं उसकी मदद कर सकती हूं?”

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

वह लड़का पहले से कई प्राइवेट क्लीनिक में इलाज करवा रहा था। उसने मुझे बताया कि उसे ऐनल घाव और फोड़े हो गए हैं। राशि आगे बताती हैं, “जब मैंने उसकी हालत देखी तो मुझे शक हुआ कि उसका सही इलाज नहीं हो रहा। बाद में पता चला कि डॉक्टर ने बिना पूरी जांच किए उसका पाइल्स का इलाज शुरू कर दिया था। वह दो महीने तक यही सोचता रहा कि उसे पाइल्स है और दवाएं खाता रहा। लेकिन असल में उसकी बीमारी कुछ और थी।” इलाज के दौरान उसे एक पुरुष डॉक्टर से भेदभाव का सामना भी करना पड़ा। उसने राशि को बताया कि डॉक्टर सब जानते हुए भी उसे बोले कि ये कैसे हुआ? उसके कुछ जवाब न देने पर डॉक्टर ने आपत्तिजनक टिप्पणी भी की। इसी तरह न जाने कितने लोग होंगे जो ऐसी प्रताड़ना झेल रहे होंगे और शोषण से भरा जीवन जीने पर मजबूर होंगे।

प्रशिक्षण की कमी

कई स्वास्थ्य पेशेवरों को एलजीबीटीक्यू+ लोगों के विशेष स्वास्थ्य जरूरतों और समस्याओं जैसे ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए हार्मोन थेरेपी या यौन स्वास्थ्य पर प्रशिक्षण की कमी भी है। पबमेड सेंट्रल के एक शोध मुताबिक अधिकांश चिकित्सक एलजीबीक्यू युवाओं को गुणवत्तापूर्ण देखभाल प्रदान करने के लिए पर्याप्त रूप से तैयार महसूस नहीं करते थे, और कई जो जानकार महसूस करते थे, उन्होंने एलजीबीक्यू रोगियों की देखभाल के कार्यस्थल के अनुभवों से अपना ज्ञान प्राप्त किया था। औपचारिक प्रशिक्षण कार्यक्रम को लागू करने के लिए चिकित्सकों की सिफारिशों के बारे में निष्कर्षों ने तीन विषयों को उजागर किया। पहला, मेडिकल स्कूल प्रशिक्षण, प्रशिक्षण सामग्री (एलजीबीक्यू-विशिष्ट स्वास्थ्य आवश्यकताएं, लोगों में मौजूद पूर्वाग्रहों की आत्म-जागरूकता, साक्षात्कार तकनीक और संसाधन), और प्रशिक्षण रणनीतियां।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

दिल्ली में नज़र डालें, तो अमूमन यहां के नामी अस्पतालों में केवल शुक्रवार को ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को सीमित समय के लिए ओपीडी का लाभ मिलता है। लेकिन समस्या सिर्फ इतनी ही नहीं है। दिल्ली का आरएमएल अस्पताल में ट्रांस समुदाय के लिए ओपीडी हर शुक्रवार को दोपहर 2 बजे से शाम 4 बजे तक खुलता है। इसके लिए एक समर्पित पंजीकरण काउंटर पैनल है, और विभिन्न विभागों के 10-12 डॉक्टरों का एक पैनल है। द क्विन्ट की एक रिपोर्ट अनुसार चिकित्सा के अलावा, विभिन्न विभागों – मनोचिकित्सा, त्वचा विज्ञान, मूत्रविज्ञान, बर्न्स, एंडोक्रिनोलॉजी और बाल रोग के डॉक्टर हर हफ्ते रोटेशन पर ओपीडी में तैनात रहते हैं। इसका मतलब यह है कि मरीजों को अपनी विशिष्ट समस्याओं के इलाज के लिए ओपीडी के बाद भी विभिन्न विभागों में जाना पड़ेगा।

मैं जब अपने ब्रेस्ट इम्प्लांट के लिए दिल्ली के सरकारी अस्पताल में गई, तो डॉक्टर ने मेरे सीने को छुआ, दबाया और हालांकि ब्रेस्ट और कंधे का अल्ट्रासाउंड नहीं होता है, मुझे अल्ट्रासाउंड के लिए कहा गया। मैं उस समय बिल्कुल अनजान थी और मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी। डॉक्टर ने ये भी बोला कि क्या तुम ट्रांसजेंडर बनने जा रहे हो, तुम्हारा ब्रेस्ट भी नहीं है।

डॉक्टरों में पूर्वाग्रहों की बात पर दिल्ली के शाहीन बाग की रहने वाली परी कहती हैं, “मैं जब अपने ब्रेस्ट इम्प्लांट के लिए दिल्ली के सरकारी अस्पताल में गई, तो डॉक्टर ने मेरे सीने को छुआ, दबाया और हालांकि ब्रेस्ट और कंधे का अल्ट्रासाउंड नहीं होता है, मुझे अल्ट्रासाउंड के लिए कहा गया। मैं उस समय बिल्कुल अनजान थी और मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी। डॉक्टर ने ये भी बोला कि क्या तुम ट्रांसजेंडर बनने जा रहे हो, तुम्हारा ब्रेस्ट भी नहीं है। उनकी बात से मैं आहत हुई थी और मेरा मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित हुआ था।”

कार्यस्थल पर भेदभाव  

इसके साथ-साथ भारत में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को रोजगार के क्षेत्र में कई प्रकार के भेदभाव और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। भले ही 2018 में धारा 377 को खत्म कर दिया गया और 2019 में ट्रांसजेंडर (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम लागू हुआ, फिर भी कार्यस्थलों पर भेदभाव और पूर्वाग्रह जारी हैं। एलजीबीटीक्यू+ कर्मचारियों को कई बार नौकरियों से वंचित किया जाता है या उनके साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जाता है। कई लोग इस डर से अपने लैंगिक पहचान छुपाते हैं कि उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाएगा। दिल्ली भी इससे अछूता नहीं है। इस विषय से जुड़ा निजी अनुभव बताऊँ तो, “2016 में मैं दिल्ली के एक नामी स्कूल में टीचर के तौर पर एपॉइंट हुआ। इसके बावजूद मैं उस स्कूल में केवल पांच दिन काम कर पाया क्योंकि मैं एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से था। वहां के इंचार्ज को मेरा वहां नौकरी करना अच्छा नहीं लगा। उनके कहने पर मुझे पूरे स्टाफ के सामने खड़ा किया गया और मुझे चलकर दिखाने को कहा गया। इसके बाद उन्होंने मुझे लगभग 6 दिन बाद नौकरी से निकाल दिया। यह घटना आहत करने वाला था।”

2016 में मैं दिल्ली के एक नामी स्कूल में टीचर के तौर पर एपॉइंट हुआ। इसके बावजूद मैं उस स्कूल में केवल पांच दिन काम कर पाया क्योंकि मैं एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से था। वहां के इंचार्ज को मेरा वहां नौकरी करना अच्छा नहीं लगा। उनके कहने पर मुझे पूरे स्टाफ के सामने खड़ा किया गया और मुझे चलकर दिखाने को कहा गया।

दिल्ली में ट्रांस समुदाय की जमीनी हालत

ट्रांसजेंडर लोगों को सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण नौकरी पाने में सबसे अधिक कठिनाई होती है। कई बार उन्हें सेक्स वर्क या भीख मांगने के लिए मजबूर होना पड़ता है। समाज में मौजूद होने के बावजूद, इनकी गिनती सरकार भी नहीं करना चाहती है। साल 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले, मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने घोषणा की कि देश भर में 97 करोड़ पात्र मतदाताओं में से केवल 48,000 ट्रांसजेंडर मतदाता हैं, जिनमें से दिल्ली में केवल 1,176 हैं। हालांकि द वायर में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि ये संख्या समुदाय के अनुमानों से बिल्कुल अलग है। कार्यकर्ताओं का कहना है कि अकेले दिल्ली में एक लाख से ज़्यादा ट्रांसजेंडर व्यक्ति हैं, जो 2011 की जनगणना में दर्ज 4,213 से कहीं ज़्यादा है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

2019 का ट्रांसजेंडर कानून समान रोजगार के अवसर प्रदान करने की बात करता है, लेकिन जमीनी स्तर पर दूसरे राज्यों में ही नहीं, बल्कि दिल्ली में भी लंबा रास्ता तय करना है। आज भी दिल्ली के ट्राफिक सिंगनल पर हजारों ट्रांस व्यक्ति भीख मांगते हुए दिख जाएंगे। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के ऐसे न जाने कितने ही लोग अनगिनत भेदभाव का सामना कर रहे हैं और परेशानियों में अपना जीवन गुज़ार रहे हैं। आने वाले दिनों में  दिल्ली में चुनाव होने जा रहे हैं। हर बार की तरह इस बार भी क्वीयर समुदाय एक बार फिर उम्मीद लगाए हुए है। हालांकि चुनाव से पहले हर साल न कोई न कोई अपनी बात जरूर रखने आते हैं विकास की बात करते हैं। आने वाले 1,2 सप्ताह के लिए संपर्क में भी रहते हैं लेकिन इसके बाद आम जनता उनसे समपर्क नहीं लार पाती। वहीं, पिछले 2 महीने से सरकारी अस्पतालों में हर दिन एचआईवी टेस्ट हो रहे हैं लेकिन आम दिनों में इन्हीं टेस्ट की डेट्स तीन-तीन महीनों में दी जाती है।

दिल्ली जैसे शहर में जहां हर साल प्राइड परेड का जश्न मनाया जाता है, वहां एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की समस्याएं अभी भी अनसुनी हैं। स्वास्थ्य सेवा में भेदभाव, रोजगार के अवसरों की कमी और सामाजिक पूर्वाग्रह इनकी जिंदगी को मुश्किल बना रहे हैं। सरकारें चुनावों से पहले संकल्प पत्र में गिने-चुने वादे करती हैं, लेकिन न तो सामाजिक पूर्वाग्रहों को मिटाने की बात होती है न रूढ़िवाद की। क्वीयर समुदाय के लिए न केवल समावेशिता की जरूरत है, बल्कि रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा और सम्मानजनक जीवन की गारंटी भी जरूरी है। आगामी चुनावों में यह उम्मीद की जा रही है कि सरकार इस समुदाय की वास्तविक जरूरतों पर ध्यान देगी और सिर्फ प्रतीकात्मक घोषणाओं से आगे बढ़कर ठोस समाधान पेश करेगी।

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