राजधानी दिल्ली में सिरी फोर्ट की गिली सड़क पर सरपट दौड़ती दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) की बस अचानक रुक जाती है और चालक उतर जाता है। अन्य यात्रियों की तरह मुझे भी लगता है कि बस खराब हो गई और हम सवालिया मुंह लिए परिचालक की तरफ देखते हैं। एक हाथ में रंग-बिरंगी टिकट और दूसरे में पैसों से लटकते पर्स को दबाकर बैठा परिचालक खिड़की से बाहर झांक रहा था। उसकी नज़र का पीछा करने पर पता चला कि बस ठीक है, ड्राइवर साहब पेशाब करने के लिए उतरे हैं। सड़क किनारे मूत्र त्याग करता चालक मेरे लिए स्वच्छ भारत मिशन की हकीकत और सिविक सेंस की ज़रूरत से आगे की समस्या पर ध्यान दिला रहा रहा था।
मुझे अचानक डीटीसी बस की महिला चालकों का ध्यान आया कि अगर उन्हें अपने काम के दौरान वॉशरूम जाने की ज़रूरत पड़ती होगी तो वो क्या करती होंगी? वो तो इस पुरुष चालक की तरह सड़क किनारे पैंट नीचे कर बैठ नहीं सकती है। इस तरह की किसी घटना पर तुरंत हाय तौबा मच जाएगी और मीडिया में ख़बर छप जाएगी। अपने इसी सवाल को लेकर मैं दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में डीटीसी की बस चलाने वाली महिला चालकों के पास पहुंची, उन्होंने जो कुछ बताया, वो हैरान करने वाला है।
जहांगीरपुर-जीटीबी नगर रूट पर बस चलाने वाली नीतू देवी बताती है, “कई बार काम के दौरान भी हमें वॉशरूम जाने की ज़रूरत होती है लेकिन मेरे रूट में शौचालय की व्यवस्था नहीं है। पुरुष चालक तो बस रोककर कई भी पेशाब कर लेते है लेकिन हमें डिपो आने का इंतजार करना पड़ता है।”
महिला चालकों की चुनौतियां?
भारतीय, विशेषकर उत्तर भारतीय समाज आज भी महिला चालक को देखने का अभ्यस्त नहीं है। ड्राइविंग का क्षेत्र अभी भी समावेशी नहीं है। इसकी वजह पारंपरिक सोच और लिंग-आधारित रूढ़ियां हैं, जो लिंग के आधार पर काम को विभाजित करती हैं। कई जगहों पर ऐसा माना जाता है कि ड्राइविंग या अन्य कई काम केवल पुरुषों के लिए होते हैं, जबकि महिलाओं को घर के कामों तक सीमित रहना चाहिए। लेकिन दिल्ली बदल रही है और दुखद यह है कि बदलाव के सभी पहलू सुखद नहीं हैं।
पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली परिवहन निगम में महिला चालकों की हुई नियुक्ति को लेकर सरकार और समाज ने खूब अपनी पीठ थपथपाई। थपथपाहटों की गूंज में 8 से 9 घंटे तक बस चलाने वाली इन महिलाओं की असल पीड़ा कहीं गुम हो गई है। जिन पन्नों पर महिला चालकों की सशक्तिकरण की कहानी छपी, वहां यह नहीं छापा जा रहा है कि कैसे इन्हें घंटों पेशाब दबाकर बस चलाते रहना पड़ता है, कैसे मर्दों से भरे बस डिपो में उन्हें सुरक्षित कोना तलाशना पड़ता है, कैसे काम से पहले काम और काम के बाद भी काम करना पड़ता है?
डिपो में शौचायलों की खराब स्थिति
जहांगीरपुर-जीटीबी नगर रूट पर बस चलाने वाली नीतू देवी बताती है, “कई बार काम के दौरान भी हमें वॉशरूम जाने की ज़रूरत होती है लेकिन मेरे रूट में शौचालय की व्यवस्था नहीं है। पुरुष चालक तो बस रोककर भी पेशाब कर लेते है लेकिन हमें डिपो आने का इंतजार करना पड़ता है। कई बार रास्ते में कोई अस्पताल या ऑफिस नज़र आता है तो वहीं चले जाते है। लेकिन कई बार वो लोग भी हमें शौचालय नहीं इस्तेमाल करने देते हैं।” आगे एक अन्य घटना का ज़िक्र करते हुए नीतू देवी बताती है, “एक बार सड़क किनारे बस खड़ी कर मैं टॉयलेट चली गई थी, उतनी देर में एक पुलिस वाले ने बस की फोटो खींचकर उसे डिपो में भेज दिया, जिसकी वजह से मेरा 500 रूपये का चालान कट गया था। मैंने बहुत विनती की थी कि मेरा चलाना मत काटिए, मेरी तनख्वाह बहुत कम है लेकिन वो नहीं माने।”
ओखला वर्क शॉप सेंटर बस डिपो की महिलाओं की समस्याएं भी ठीक इसी प्रकार है। कुछ बस महिला चालक बताती है कि डिपो पर कुछ खास व्यवस्था नहीं है। शौचालय में न पानी आता है, न ही हाथ धोने की व्यवस्था है। तीन से चार महीने में एक बार सफाई होती है। कई बार शिकायत दर्ज कराने के बाद साफ-सफाई होती हैं। कुछ दिन मामला ठीक रहता है, फिर वही हाल हो जाता है। नीतू देवी की भी शिकायत कुछ ऐसी ही है। डिपो में शौचालय की व्यवस्था पर उनका कहना है, “जहांगीर पुरी बस डिपो पर शौचालय तो है लेकिन उसकी स्थिति दयनीय है। उसमें न पानी की सुविधा है, न ही पीरियड्स के लिए सैनेटरी पैड की व्यवस्था है।”
महिला चालकों के लिए रेस्ट रूम की हो व्यवस्था
बदरपुर-नोएडा रूट में बस चलाने वाली 31 वर्षीय सीमा अपनी बात जोड़ते हुई कहती है, “बस डिपो पर एक रेस्ट रूम की व्यवस्था नहीं है, जहां एक चक्कर की ड्यूटी पूरी करने के बाद थोड़ा आराम कर सके ताकि दूसरे चक्कर के लिए निकलने में थोड़ी आसानी हो। डिपो पर रेस्ट रूम की बहुत आवश्यकता है। हम बिलकुल भी आराम नहीं कर पाते। हमें भी आराम की जरूरत होती है।”
बदरपुर-नोएडा रूट में बस चलाने वाली निशा अपने साथ हुए हालिया घटना का जिक्र करती हैं, “मैं सुबह 5:30 बजे ओखला सेंट्रल वर्कशॉप बस डिपो से अपनी बस लेकर निकली, 11 बजे मेरी बस बदरपुर बॉर्डर पर खराब हो गई। मैं लौट कर डिपो वापस आ गई। बस ठीक होने में तीन घंटे से ज्यादा का वक्त लगा, तब तक मुझे इधर-उधर टहलना पड़ा। अगर रेस्ट रूम होता तो मैं वहां आराम कर लेती। डिपो पर पुरुषों के लिए तो रेस्ट रूम की व्यवस्था है लेकिन हमारे लिए नहीं है।”
बसों की खराब स्थिति पर बस चालक सीमा कहती हैं, “बसें इतनी खराब होती है, आए दिन ब्रेकडाउन हो जाती हैं। डिपो से ही तीन से चार घंटे हम लेट निकलते है। हमारी ड्यूटी ओके नहीं हो पाती है। पिछले एक महीने से तो बहुत परेशानी हो रही है मजबूरी में नौकरी कर रहे हैं।”
किलोमीटर सिस्टम में हो बदलाव
यह समस्याएं किसी एक चालक की नहीं है, तमाम महिलाओं की शिकायत एक जैसी है। डिपो पर उनके लिए बुनियादी सुविधाएं नहीं है। ऐसे में इन महिला चालकों को लगातार तनाव से गुजरना पड़ता है। दिल्ली सरकार ने सभी महिला चालकों को संविदा पर नियुक्त किया है। संविदा चालकों को प्रति किलोमीटर गाड़ी चलाने के लिए 8 रूपये 50 पैसे का भुगतान किया जाता है। उन्हें एक साप्ताहिक छुट्टी मिलती है लेकिन उसका पैसा मासिक वेतन से कटता है। इसके अतिरिक्त एक भी छुट्टी नहीं मिलती है। राष्ट्रीय अवकाश या त्यौहार के दिन भी काम करना पड़ता है। छुट्टी लेने का सीधा मतलब है वेतन में कटौती। हालांकि, राष्ट्रीय अवकाश वाले दिन काम करने पर दोगुने पैसे मिलते है।
निशा बताती हैं, “ट्रेनिंग के समय सरकार की तरफ से बोला गया था कि स्थायी नौकरी होगी, तभी बहुत सारी लड़कियां हरियाणा से नौकरी छोड़कर दिल्ली आईं। करीब एक साल पहले परिवहन मंत्री के साथ एक बार हमारी मीटिंग हुई थी जिसमें उन्होंने कहा था कि हमें हफ्ते में एक छुट्टी भी मिलेगी। लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ। शुरुआत में तो हमारी हर दो महीने में परिवहन मंत्री कैलाश गहलोत के साथ मीटिंग होती थी लेकिन अब एक साल होने वाला है कोई मीटिंग नहीं हुई है।”
डीटीसी में लंबे अंतराल बाद महिला चालकों की भर्ती
डीटीसी में पहली महिला चालक की नियुक्ति साल 2015 में हुई थी। उसके बाद लंबे अंतराल तक किसी महिला चालक की भर्ती नहीं हुई। साल 2022 में डीटीसी के लिए महिला चालकों की दोबारा नियुक्ति की शुरू हुई। पहले बैच में 11 महिलाओं को नियुक्ति पत्र सौंपा गया था। उसी वर्ष दिल्ली सरकार ने डीटीसी बसों में 200 महिला चालकों की नियुक्ति करने का फैसला लिया था। द हिंदू की एक रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 2024 में डीटीसी बस चलाने वाली महिला चालकों की संख्या 60 के करीब पहुंच गई थी। वहीं पुरुष चालकों की संख्या 9500 बताई गई थी। महिलाओं की कम संख्या होने के बावजूद पुरुष चालकों में भय पैदा हो गया है कि महिलाएं उनकी नौकरी छीन रही है।
डीटीसी की बस चालक लता बताती है, “शुरुआत के समय में पुरूष चालकों से काफी कुछ सुनने को मिलता था, वो बोलते थे कि महिलाओं ने हमारी नौकरी छीन ली है, हमसे तो बस चल नहीं पाती ये कैसे चला पाएंगी। लेकिन हमने इनकी सोच को गलत साबित कर दिया। जब महिलाएं रोड पर बस लेकर उतरी तो ये दंग रह गए कि महिलाएं कैसे बस चला सकती है। मर्दों का नजरिया हमारे प्रति अच्छा नहीं है। लेकिन अब तो हमें आदत हो गई है, डर भी नहीं लगता है। हम खुद को पुरुषों से कम नहीं समझते है क्योंकि हम भी उनके साथ काम कर रहे हैं। जब हम डिपो में वर्दी पहन कर पहुंचते है तो आत्मविश्वास से भर जाते हैं।”
एक अन्य महिला चालक अपना अनुभव बताती हैं, “एक पुरुष चालक ने मुझसे से कहा था कि जब से महिलाएं बस चला रही है तब से हमारी नौकरी खतरे में आ गई है क्योंकि वो अपनी जिम्मेदारी अच्छे से निभा रही है। हमें तो जब काम करने का मन नहीं होता तो बस में ‘ब्रेक डाउन’ दिखा कर बस खड़ी कर देते है है लेकिन महिलाओं की वजह से हमारे ऊपर ज्यादा प्रेशर बढ़ गया।”
बदरपुर-नोएडा रूट में बस चलाने वाली 31 वर्षीय सीमा अपनी बात जोड़ते हुई कहती है, “बस डिपो पर एक रेस्ट रूम की व्यवस्था नहीं है, जहां एक चक्कर की ड्यूटी पूरी करने के बाद थोड़ा आराम कर सके ताकि दूसरे चक्कर के लिए निकलने में थोड़ी आसानी हो।”
क्या है महिला चालकों की मांगें?
जितनी भी महिला चालकों से बात हुई सबकी पहली मांग यह है कि किलोमीटर का सिस्टम खत्म होकर उन्हें स्थायी नौकरी दी जाए ताकि एक तय वेतन मिल सके। किलोमीटर वाले सिस्टम में और भी कई खामियां हैं। महिला चालकों का कहना हैं कि किलोमीटर वाली व्यवस्था खत्म होने से किसी भी चालक के बीच कोई भेदभाव नहीं होगा। अगर किसी को अच्छी बस मिल जाती है उसके लिए तो बढ़िया रहता है, वहीं अगर किसी को खराब बस मिल जाती है, तो उसका पूरा दिन बर्बाद हो जाता है। इस वजह से पैसे कट जाते है। अगर स्थायी मासिक वेतन रहेगा तो हम भी टेंशन फ्री रहेंगे और अच्छे से अपनी जिम्मेदारी निभा पाएंगे।
बसों की खराब स्थिति पर बस चालक सीमा कहती हैं, “बसें इतनी खराब होती है, आए दिन ब्रेकडाउन हो जाती हैं। डिपो से ही तीन से चार घंटे हम लेट निकलते है। हमारी ड्यूटी ओके नहीं हो पाती है। पिछले एक महीने से तो बहुत परेशानी हो रही है मजबूरी में नौकरी कर रहे हैं।” इसके अलावा महिला चालकों की मांग है कि डिपो पर मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था हो। महिला चालकों की शिकायत है कि डिपो में सिर्फ पुरुष स्टाफ हैं, कोई महिला स्टाफ नहीं हैं जिससे महिलाएं अपनी समस्याएं उनको बता सकें। उनकी मांगे है कि डिपो को भी समावेशी बनाएं जा, जहां महिलाएं सहज और सुरक्षित महसूस कर सकें।
नोट – सभी महिला चालकों के नाम बदल दिए गए हैं।