एक ही स्टोरी को खींच तानकर मुनाफा बटोरते सीक्वल वाले दौर में क्रिएटर्स सुदीप शर्मा और अविनाश अरुण ने पाताल लोक के सीक्वल के लिए बिल्कुल ताज़ा और यूनिक कहानी लेकर आए हैं। भले इस क्राइम थ्रिलर में कुछ पुराने किरदार हैं लेकिन स्टोरी बिल्कुल ताजा है, इसकी स्टोरी कई जटिल विषयों को छूती है जो समाज की तल्ख़ सच्चाइयों को जस का तस दर्शकों के सामने रखने की कोशिश करती है। इसकी कहानी ज़बरदस्त हिंसा और न्यूडिटी वाली बाक़ी क्राइम थ्रिलर ड्रामा सीरीज़ से काफ़ी अलग है। अपनी इंटेलीजेंट राइटिंग की वजह से यह सीज़न पिछले से भी बेहतर मालूम होती है जो दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करती है।
इस सीजन की कहानी की शुरुआत होती है नागालैंड के सुप्रीम लीडर जोनाथन थॉम के क़त्ल से। इस हाईप्रोफ़ाइल मर्डर केस की जांच नवनियुक्त एसीपी इमरान अंसारी (ईश्वक सिंह) के हाथ आती है जो कि पिछले सीज़न तक आउटर जमुना पार थाना के इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी (जयदीप अहलावत) के अंडर ट्रेनिंग पर था। उधर हाथीराम चौधरी एक लापता दिहाड़ी मज़दूर को ढूंढ़ रहे है वह सीसीटीवी में आख़िरी बार रोज़ लिज़ो के साथ नज़र आया था। वही रोज़ लिज़ो जो थॉम के मर्डर की प्राइम सस्पेक्ट है। एक व्यक्ति के लापता होने की घटना कैसे एक हाईप्रोफ़ाइल केस से जुड़ती है। क्या एसीपी अंसारी और इंस्पेक्टर हाथीराम मिलकर इस गुत्थी को सुलझा पाएंगे? केस सुलझाने की कड़ी में कौन-कौन से गहरे राज़ खुलते हैं और आख़िर तक सीरीज़ के किरदारों के साथ-साथ दर्शकों को भी यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि असली अपराधी कौन है; वो जो दिखते हैं या वो जो अक़्सर पर्दे के पीछे छिपे होते हैं?
पाताल लोक सीरीज़ के दूसरे सीजन में महिलाओं द्वारा झेली जाने वाली कठिनाइयों को दिखाने से नहीं कतराता। रोज़ लिज़ो ड्रग एडिक्शन और ट्रॉमा से जूझती है, फिर भी पूरे सीज़न में बहुत हद तक उसकी ख़ुद की आवाज़ अनसुनी ही रह जाती है। ये दर्शाता है कि कैसे महिलाओं की कहानियों को अक़्सर हाशिए पर रखा जाता है, भले ही वे प्लॉट के केंद्र में क्यों न हों।
जैसे-जैसे सीरीज़ आगे बढ़ती है वैसे-वैसे कहानी में मर्डर्स की संख्या बढ़ने के साथ ही गुत्थी उलझती जाती है। कहानी कैसे हाथीराम और अंसारी को दिल्ली की सड़कों से नागालैंड तक पहुंचाती है। दिल्ली और नागालैंड की पृष्ठभूमि पर आधारित यह सीरीज़ सत्ता, भ्रष्टाचार और मानव स्वभाव की जटिलताओं को गहराई से समझाने का प्रयास करती है। कैसे सत्ता और राजनीति अक़्सर अपराध से जुड़े होते हैं। कैसे नेता, बड़े उद्योगपति और अपराधियों के सांठगांठ से वो व्यवस्था स्थापित होती है जो हाशिए पर जी रहे लोगों का भरपूर शोषण करती है, चाहे वो मज़दूर वर्ग हो, दूसरे क्षेत्र के अल्पसंख्यक लोग हों या फिर महिलाएं ही क्यों न हों!
ये सीरीज़ इस मायने में ख़ास है कि इसमें आने वाले बिल्कुल गौण किरदारों (साइड कैरेक्टर्स) को भी पर्याप्त गहराई के साथ स्क्रीन पर लाया गया है, चाहे वो ग्रेस या अंसेला हो, रघु पासवान हो, बिट्टू रहमान हो, डेनियल हो या एस्थर हो। ख़ासकर जब बात महिला किरदारों की हो तो वे सिर्फ़ सहायक भूमिका भर में नहीं हैं बल्कि कहानी का अभिन्न अंग है। जिस जटिलता और बारीकी के साथ इन महिला किरदारों को स्क्रीन पर दर्शाया गया है वो तारीफ़ के काबिल है। यों तो सीरीज़ कई मुद्दों पर बात करती है लेकिन मेरे लिए पूरे शो की हाइलाइट वो छोटी-छोटी सटल डिटेल्स थीं जो पूरे शो में मेरा ध्यान खींच ले गईं।
मेघना बरुआ के किरदार में तिल्लोतमा शोम ने क्या बढ़िया काम किया है। ख़ासकर नागा में जो डायलॉग डिलीवरी की है वो काबिले तारीफ़ है। और जिस तरह से उन्होंने किरदार को पकड़ा है, एक महिला ऑफ़िसर के नाते वे एक पुरुष प्रधान (मेल डॉमिनेटेड) प्रोफ़ेशन में हैं जहां लगातार उनके साथ के और उनके जूनियर पुरुष कॉलीग द्वारा उनके काम को कम आंका जाता है। मेघना की कहानी उन संघर्षों को दर्शाती हैं जिनका सामना कई महिलाएं पेशेवर माहौल में करती हैं, जहां उन्हें सामाजिक पूर्वाग्रहों से जूझते हुए अपने अधिकार का दावा करना होता है।
इस समय में मेघना का वो डायलॉग याद आता है जब वे अपने जूनियर से कहती हैं, “मुझे मालूम है कि एक औरत से ऑर्डर्स लेना मुश्किल है।” यहां समाज का दोगलापन साफ़ झलकता है जहां वे औरतों के हक़ की बात करने का ढोंग तो कर सकते हैं लेकिन उन्हें कभी ख़ुद से आगे बढ़ते नहीं देख सकते। इसको अगर शुरुआत के एक छोटे सीन के कंट्रास्ट में देखें तो तस्वीर ज़्यादा साफ़ होती है। शुरुआत में ही हाथीराम चौधरी की एक सहयोगी पुलिस वाली किसी इंश्योरेंस कम्पनी में सर्वेयर की प्राइवेट नौकरी के लिए पुलिस की सरकारी नौकरी छोड़कर जाना चाहती है। इस पर उनके सुपीरियर उन्हें सरकारी नौकरी का हवाला देकर रोकना चाहते हैं जिस पर वो कहती है, “15-20 साल में इंस्पेक्टर बण जाऊंगी, उसते के होगा सर?” लेकिन वहीं जब एक महिला पूरे जज़्बे से इस पेशे में डंटी रही तो उसके लिए बिल्कुल ही विपरीत स्थिति है।
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रेणु चौधरी के किरदार में गुल पनाग इस कहानी में हर भारतीय महिला का प्रतिनिधित्व करती हैं जो बड़ी सहजता से परिवार की ज़रूरतों के अनुकूल ख़ुदको ढाल लेती हैं। लेकिन जब अपनी मर्ज़ी का कुछ करने की इच्छा ज़ाहिर करे तो उसे ये याद दिलाना पड़ता है कि “सोचकर बताओ! इन 20 सालों में कोई एक चीज़ है जो मैंने अपने लिए मांगी हो।” हाथीराम बेशक इस कहानी का हीरो है लेकिन वो भी एक रेगुलर इण्डियन हसबैंड ही है जिसे अपनी पत्नी के कमाने से झिझक होती है जिसका स्पष्ट कारण भी वो नहीं बता पाता। तभी तो वो बस कहता है, “कौनसा भूखी मरण लाग री तू!”
कांस्टेबल मंजू जब-जब स्क्रीन पर आती है, अपने ह्यूमरस अंदाज़ से हंसाती ज़रूर है लेकिन उसके किरदार पर गौर करें तो समझ आता है कि वो दरअसल एक ग़ैर ज़िम्मेदार या नॉन सीरियस पुलिस पर्सनल के रूप में चित्रित हुई है जिसके लिए अपने घर-परिवार पहले है, काम पर होते हुए भी काम उसकी दूसरी प्राथमिकता है। मंडी जोगी के बारे में पता करने जाती है लेकिन सस्ते टिंडे ख़रीद लाती है। ऐसा लगता है मानो उसके लिए मंडी जिस काम से गई थी वो सेकेंडरी हो गया। जबकि इसके उलट हाथीराम फ़्री मिल रही अनानास की पेटी को भी मना करता दिखाया गया है। चूंकि काम उसकी पहली प्राथमिकता है। सीरीज़ की सबसे ख़ास बात कि ये इंटरसेक्शनलिटी के मुद्दों को बहुत सहजता से स्क्रीन पर उतार पाने में सफल हुई है। चाहे वो नॉर्थ ईस्ट राज्य की कहानी बताने की बात हो या अंसारी के सेक्शुअलिटी अपनाने की घटना हो। कितनी सहजता से हाथीराम चौधरी ने अंसारी से कहा, “अगर तुझे अन्दर से लग रहा है कि ये सही है तो सही है। कतई टेंशन मत ले कि मैं या कोई और आदमी क्या सोचेगा।”
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शो में व्यंग्य को भी जिस तरह से चित्रित किया गया है, दर्शकों का ध्यान आकर्षित करता है। मैक्स रिज़ु जिसने सारे शहर को नशे की लत लगवाई उसका अपना घर भी नहीं बचता जब एक्सीडेंटली उसका बेटा ड्रग्स लेता है। इस सीन में मैक्स रिज़ु द्वारा घर में अपनी बीवी पर की जा रही हिंसा इस बात का सबूत है कि चाहे दुनिया का कोई-सा कोना हो, महिलाओं की स्थिति एक-सी है।इस बार किरदार भी बहुत जटिल हैं जिनको समझना थोड़ा पेचीदा काम है। स्नाइपर के रूप में प्रशान्त तमंग लगभग पूरी सीरीज़ में लोगों को मारते हुए नज़र आते हैं लेकिन जब एक बच्चे को तितलियों को डिब्बे में बन्द करता पाते हैं तो बस इतना ही कहते हैं, “तुम लोगों को जब ही मारते हो तब तुम्हारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता है!”
पाताल लोक सीरीज़ के दूसरे सीजन में महिलाओं द्वारा झेली जाने वाली कठिनाइयों को दिखाने से नहीं कतराता। रोज़ लिज़ो ड्रग एडिक्शन और ट्रॉमा से जूझती है, फिर भी पूरे सीज़न में बहुत हद तक उसकी ख़ुद की आवाज़ अनसुनी ही रह जाती है। ये दर्शाता है कि कैसे महिलाओं की कहानियों को अक़्सर हाशिए पर रखा जाता है, भले ही वे प्लॉट के केंद्र में क्यों न हों। इसके अलावा, अन्य महिला पात्रों के अनुभव व्यापक सामाजिक मुद्दों को दर्शाते हैं। गीता पासवान को अपने लापता पति के सम्बन्ध में मदद मांगने पर पहले तो नज़रअंदाज़ किया जाता है। यह दर्शाता है कि कैसे पर्सनल और प्रोफ़ेशनल, दोनों ही क्षेत्रों में महिलाओं की चिंताओं को अक़्सर महत्वहीन समझा जाता है। ये कई लोगों के लिए प्रासंगिक है जो इस तरह के सेम पैटर्न को पहचानते हैं।
तमाम कठिनाइयों के बावजूद ये कहानी महिलाओं के बीच आत्मीय संबंध/आपसी समझ और सॉलिडेरिटी पर भी ज़ोर देती है। ग्रेस रेड्डी-असेंला थॉम और रोज़-एस्थर के रिश्ते भावनात्मक गहराई प्रदान करते हैं जो उनके चारों ओर हो रही क्रूरता के विपरीत है। ये दिखाता कि महिलाएं कैसे संकट में एक-दूसरे का समर्थन कर, मिलकर आगे बढ़ती हैं वो भी एक ऐसी दुनिया में जो अक़्सर उन्हें विभाजित करने की कोशिश करती है। दूसरे सीज़न में जयदीप अहलावत, इश्वाक सिंह, गुल पनाग और तिल्लोतमा शोम के साथ इस हिन्दी सीरीज़ में नए चेहरे और प्रतिभाशाली कलाकार शामिल हैं, जिन्होंने क्या उम्दा प्रदर्शन किया है। ये सारे कलाकार प्रामाणिक, जमीनी ऊर्जा के साथ ही कहानी में कल्चरल डेप्थ और इंटेंसिटी लेकर आते हैं। यहां कास्टिंग डायरेक्टर निकिता ग्रोवर यानी मंजू जी और कम्पनी ‘कास्टिंग बे’ (अनमोल आहूजा और अभिषेक बनर्जी) की तारीफ़ करनी होगी जिन्होंने जाह्नू बरुआ (Jahnu Barua), नागेश कुकुनूर, मेरेनला इम्सांग, LC Sekhose, Theyie Keditsu, Rozelle Mero और प्रशान्त तमंग जैसे कमाल के आर्टिस्ट्स को एक साथ लेकर आए हैं। सिर्फ़ इतना ही नहीं, उन लोगों ने भी दमदार एक्टिंग की है जो बहुत कम समय के लिए स्क्रीन पर आए हैं।
जैसे-जैसे सीरीज़ आगे बढ़ती है वैसे-वैसे कहानी में मर्डर्स की संख्या बढ़ने के साथ ही गुत्थी उलझती जाती है। इस कहानी में कैसे हाथीराम और अंसारी को दिल्ली की सड़कें नागालैंड तक पहुंचाती है। दिल्ली और नागालैंड की पृष्ठभूमि पर आधारित यह सीरीज़ सत्ता, भ्रष्टाचार और मानव स्वभाव की जटिलताओं को गहराई से समझाने का प्रयास करती है।
कहानी के नैरेटिव के मुताबिक़ इसका साउंड डिज़ाइन भी काफ़ी बढ़िया है। साउंड इफ़ेक्ट सीरीज़ की गंभीर और डार्क थीम को और डेप्थ देती है जिससे कहानी और ज़्यादा प्रभावशाली लगती है। बैकग्राउंड स्कोर और विज़ुअल एलिमेंट्स का बेहतरीन तालमेल कहानी को और ज़्यादा इंगेजिंग बनाता है। सीरीज़ में साउंड डिज़ाइन पर काफ़ी मेहनत की गई है जिसे काफ़ी सराहा भी गया है। तीसरे एपिसोड के आख़िर में जो रैप सॉन्ग है वो मुझे ख़ासकर बहुत पसन्द आया। वो पूरा सीन गाने के साथ अब तक दिमाग़ में घूम रहा है। अब चूंकि कहानी नागालैंड की पृष्ठभूमि पर चलती है जो वहां की सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों को बारीकी से दिखाती है। सीरीज़ की ख़ासियत है कि इसमें नागालैंड और उसकी संस्कृति को बिना किसी रूढ़िवादिता के उसके अपने असली रूप में पेश करने की कोशिश की गई है जिसमें मेकर्स को सफलता भी मिली है।