‘मिसेज’ फ़िल्म के क्लिप्स सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं और महिलाओं के बीच चर्चा का विषय बन गए हैं। खासकर वे महिलाएं, जिनकी शादी की उम्र समाज के हिसाब से निकल चुकी है, पर्दे पर दिखाए गए इन अनुभवों से घबराई हुई हैं। यह घबराहट लाज़मी भी है क्योंकि यह फ़िल्म 2021 में आई मलयालम फ़िल्म ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ की रीमेक है, जिसे एक “किचन थ्रिलर” कहा जाता है। हालांकि इसके पोस्टर भ्रामक हो सकते हैं, लेकिन इसकी कहानी गहराई से महिलाओं के जीवन की सच्चाई बयान करती है।
7 फ़रवरी को ज़ी5 पर रिलीज़ हुई ‘मिसेज’ हर भारतीय घर की कहानी कहती है। आरती कदव निर्देशित और सान्या मल्होत्रा अभिनीत यह फ़िल्म शादी, पारिवारिक जिम्मेदारियों और सामाजिक अपेक्षाओं के बीच एक महिला की आत्म-खोज की यात्रा को दर्शाती है। दक्षिण भारतीय संदर्भों से निकलकर यह कहानी उत्तर भारतीय पृष्ठभूमि में ढली है, लेकिन इसका मूल संदेश वही है—पितृसत्ता के ताने-बाने में महिलाओं की भूमिका पर एक मार्मिक टिप्पणी।
आरती कदव निर्देशित और सान्या मल्होत्रा अभिनीत यह फ़िल्म शादी, पारिवारिक जिम्मेदारियों और सामाजिक अपेक्षाओं के बीच एक महिला की आत्म-खोज की यात्रा को दर्शाती है।
बहु से समाज की उम्मीदें और अवास्तविकता
प्रोफेशनल डांसर और इंस्ट्रक्टर ऋचा, जो शादी की संस्था में विश्वास रखती है, जल्द ही इससे मोहभंग महसूस करने लगती है। शादी के बाद, पत्नी और बहू के रूप में समाज की अपेक्षाएं उस पर हावी हो जाती हैं, जिससे वह खुद को एक अनपेड नौकर के रूप में पाती है। दिवाकर का साधारण सा सवाल—”एसी 21 पर रहता है, चलेगा न?”—शुरू से ही इस असमानता को उजागर करता है। फ़िल्म बारीकी से दिखाती है कि कैसे महिलाओं से अपनी पहचान छोड़कर ससुराल में ढलने की उम्मीद की जाती है, जबकि पुरुष और उनका परिवार कोई समझौता नहीं करते।
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शादी के बाद स्त्री का जीवन किचन तक सिमट जाता है, और उसकी चौखट लांघना असंभव सा लगता है। किचन को औरतों का डोमेन कहा जाता है, लेकिन खाना बनाने का ज्ञान मर्दों को ज़्यादा होता है। वे रोटी-फुल्के का अंतर बताते हैं, शिकंजी को आर्ट और खुद को आर्टिस्ट मानते हैं। मेहनत से बनी बिरयानी कुकर में पकने पर खिचड़ी कह दी जाती है। खाने की टेबल पर सराहना की उम्मीद में खड़ी औरत को सिर्फ़ नमक कम होने या “मम्मी की डिश बिगाड़ने” का ताना मिलता है। शौक़िया कूक भी ऐसे पेश आते हैं जैसे उन्हें सब पता हो।
यह फ़िल्म बेहद प्रामाणिकता के साथ एक महिला के जीवन को चित्रित करती है, जहां हर सीन जैसे कोई कविता हो और हर फ़्रेम एक तस्वीर, जो कई कहानियां कहती हैं। चाहे प्लेट में छोड़े खाने की बात हो, डाइनिंग टेबल पर फेंके कचरे की या फिर शौक़िया रसोइयों के बिखरे हुए किचन की—हर चीज़ एक गहरी सामाजिक सच्चाई को उजागर करती है।
घरों में सत्ता के खेल को बताती फिल्म
यह फ़िल्म बेहद प्रामाणिकता के साथ एक महिला के जीवन को चित्रित करती है, जहां हर सीन जैसे कोई कविता हो और हर फ़्रेम एक तस्वीर, जो कई कहानियां कहती हैं। चाहे प्लेट में छोड़े खाने की बात हो, डाइनिंग टेबल पर फेंके कचरे की या फिर शौक़िया रसोइयों के बिखरे हुए किचन की—हर चीज़ एक गहरी सामाजिक सच्चाई को उजागर करती है। फ़िल्म बारीकी से दिखाती है कि कैसे पुरुष खाने की बर्बादी के ज़िम्मेदार हैं और घर की महिलाओं की मेहनत को सराहने के बजाय उसे अपना श्रेय लेने में लगे रहते हैं।
ऋचा की शादी एक आधुनिक घर में होती है, लेकिन जल्द ही उसे एहसास होता है कि यह घर आधुनिकता की सिर्फ़ होड़ में है, असल में नहीं। फ़िल्म दिखाती है कि कैसे परंपरा और आधुनिकता की टकराहट में सबसे ज़्यादा औरतें ही पिसती हैं। अपर्णा घोषाल (ऋचा की सास) को जब उसकी प्रेग्नेंट बेटी कुछ दिन आराम के लिए बुलाती है, तब भी वह घर के कामों से मुक्त नहीं हो पाती। यह फ़िल्म गहरे सामाजिक मुद्दों को छोटे-छोटे दृश्यों के ज़रिए सामने लाती है और यह सवाल उठाती है कि घर की महिलाओं को कभी छुट्टी क्यों नहीं मिलती?
एक ओर जहां दिवाकर (निशांत दहिया) अपने पेशे में नई तकनीक का पैरोकार है, लेकिन वहीं दूसरी ओर किचन में तकनीक के इस्तेमाल से अगर खाना पके तो ये परिवार को परंपरा से अलग करती है। इसलिए उन्हें चटनी सिलबट्टे की पसन्द है, मिक्सी की नहीं। मां के हाथ का खाना कहकर ग्लोरीफ़ाई कर यह सुनिश्चित करना कि खाना वे ही बनाए, पितृसत्ता का सबसे अच्छा उदाहरण है।
फिल्म बारीकी से रोज़मर्रा की मिसोजिनी और अस्पृश्यता को दिखाती है। पीरियड्स के दौरान महिलाओं को किचन से दूर रखने की प्रथा को दिवाकर “तुम्हें आराम करना चाहिए” कहकर जस्टिफाई करता है, जबकि असल में यह सिर्फ़ किचन को ‘शुद्ध’ रखने का बहाना है।
महिलाओं के सेक्शुअल इच्छाओं का कोई सम्मान नहीं
धीरे-धीरे ऋचा पितृसत्तात्मक मूल्यों के सामने समर्पण करती जाती है, जहां महिलाओं को संगिनी नहीं, बल्कि केयरटेकर समझा जाता है। दिनभर की थकान के बाद भी पुरुषों की इच्छाएं सर्वोपरि होती हैं। सहमति की कोई परवाह नहीं। अगर वह फोरप्ले की माँग करे, तो कैरेक्टर पर सवाल उठते हैं—“डिज़ायर करने लायक भी हो?” वहीं शुरुआत में दिवाकर ने पत्नी से कहा था, “तुम किचन जैसी महक रही हो, और इससे अच्छा तुम कभी नहीं महकी।” पहले महिलाओं को सिर्फ घर और किचन के कामों में बांध दिया जाता है और फिर उसी से पूछा जाता है कि वह वहां गई ही क्यों?
रोज़मर्रा की मिसोजिनी और अस्पृश्यता को दिखाती फिल्म
फिल्म बारीकी से रोज़मर्रा की मिसोजिनी और अस्पृश्यता को दिखाती है। पीरियड्स के दौरान महिलाओं को किचन से दूर रखने की प्रथा को दिवाकर “तुम्हें आराम करना चाहिए” कहकर जस्टिफाई करता है, जबकि असल में यह सिर्फ़ किचन को ‘शुद्ध’ रखने का बहाना है। समस्या यह कि एक गायनेकॉलोजिस्ट भी पीरियड्स को छुआछूत से जोड़ता है। इन दिनों घर का काम सावी की मां, जो कथित निचली जाति से है, को सौंप दिया जाता है, और उनके बनाए खाने को स्वीकार करने के लिए ‘चूल्हे की आग अशुद्धियां जला देती है’ जैसी सफ़ाई दी जाती है। जियो बेबी के लेखन और निर्देशन की ख़ास बात कि उन्होंने दर्शकों की बुद्धिमत्ता को कहीं भी कम नहीं आंका।
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यही चीज़ आरती कदव की मिसेज में भी दिखती है। वो कहीं भी किसी मैसेज को ज़बरदस्ती के डायलॉग्स में पैक नहीं करती। वो अधिकतर चीज़ें एक्शंस से दर्शकों को समझा पाने में सफल हुई हैं। आप ऋचा के साथ-साथ वो सारी टेंशन और झुंझलाहट को महसूस कर पाते हैं। अगर आप महिला हैं तो और ज़्यादा रिलेट कर पाती हैं। इस टेंशन को बढ़ाने में सिलबट्टे, बर्तन, कुकर की सीटी, तड़के-छौंके, सिंक का खुलता पानी और नीचे लीक करते पाइप में से टप-टप चुते पानी की आवाज़, इन सबका बढ़िया इस्तेमाल किया गया है।
दिनभर की थकान के बाद भी पुरुषों की इच्छाएं सर्वोपरि होती हैं। सहमति की कोई परवाह नहीं। अगर वह फोरप्ले की माँग करे, तो कैरेक्टर पर सवाल उठते हैं—“डिज़ायर करने लायक भी हो?”
फिल्म में कैसी रही अदाकारी और गाने
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फ़िल्म में प्रतीकों का बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है। लीक करता किचन पाइप पितृसत्ता का प्रतीक है, जिससे ऋचा समझौता कर लेती है, जबकि दिवाकर इसे नज़रअंदाज़ करता है। घर में महिलाओं की हड़बड़ी और पुरुषों के आराम का कंट्रास्ट भी समाज की सच्चाई दिखाता है। सान्या मल्होत्रा ने ऋचा के हर भाव को बखूबी निभाया है, खासकर डांस में उनकी खुशी और अंत तक झुंझलाहट। निशांत दहिया और कंवलजीत सिंह ने भी अच्छा काम किया, लेकिन उनके किरदारों से उतनी नफ़रत नहीं होती क्योंकि असली विलेन पितृसत्ता ही है। सपोर्टिंग कास्ट में लवलीन मिश्रा की टाइमिंग शानदार है, उनकी वजह से गंभीर पलों में हल्की हंसी आ जाती है। सावी बनी नित्या मोयल का स्क्रीन टाइम कम है, लेकिन ऋचा के सफर में उनकी अहम भूमिका है। पूरी फ़िल्म जिस तरह से सारा टेंशन का माहौल बनाती है, उस हिसाब से गाने के साथ इसका अंत काफ़ी हद तक कमज़ोर लगता है। इसे और बेहतर किया जा सकता था।
अपना राह खुद चुनना
आखिर में ऋचा की जगह उस घर में एक दूसरी लड़की ने लिया, जिसके बाद ऋचा का वो डायलॉग याद आता है- “वो सॉलिड प्राइम नम्बर है, वो ख़ुद गुड लक है।” सावी का ऋचा से कहना कि तुम भी प्राइम नम्बर हो, जिसके बाद उसका ये एहसास करना कि इस पूरी व्यवस्था में वो जकड़कर नहीं रह सकती। ऋचा का ये एहसास कि वो इकोनॉमिक्स में पीएचडी कर चुकी अपनी सास की तरह किचन की सीमाओं में बंधकर नहीं रह पाएगी खूबसूरत है। जिस डांस का उसे पैशन है वो कभी नहीं कर पाएगी क्योंकि उसे तो घर की मर्यादा बचाने का भार दे दिया गया है। फिल्म का आख़िरी सीन यह संदेश देता है कि भले आप अकेले इस पूरी सामाजिक व्यवस्था को नहीं बदल सकते, लेकिन आप अपनी राह ज़रूर चुन सकते हैं। यह फ़िल्म महिलाओं के अनुभवों का जीवंत दस्तावेज़ है, लेकिन निर्देशक जियो बेबी ने फिल्म क्रिटिक सुचरिता त्यागी को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि द ग्रेट इंडियन किचन असल में महिलाओं की पीड़ा का केवल हल्का संस्करण है। क्या आप इससे सहमत हैं?