तकनीकी ने मनुष्य के जीवन को सहज किया है। उसके समय और ऊर्जा को बचाया है जिससे वो उस समय और ऊर्जा से अपने जीवन को बेहतर बना सके। सोशल मीडिया तकनीकी का आना मनुष्य के जीवन में बहुत बड़ी परिघटना है। आज का समय सोशल मीडिया का समय हो गया है। पहले जो खबरें मनुष्य तक देर से पहुँचती या बहुत बार कई क्षेत्रों में नहीं भी पहुँच पाती थीं आज इंटरनेट के माध्यम वे खबरें सोशल मीडिया पर तुरंत आ जाती हैं और लोगों तक पहुँच जाती हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में भी सोशल मीडिया की उतनी पैठ बन गयी है जितनी कि शहरी क्षेत्रों में। फार्चून इंडिया में छपी जानकारी के अनुसार इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के साल 2023 की रिपोर्ट के मुताबिक़ ग्रामीण भारत में 53 फीसदी से अधिक लगभग 442 मिलियन यूजर कई स्तर पर इंटरनेट का इस्तेमाल करते है।
इस समय ग्रामीण क्षेत्र का जनजीवन में सोशल मीडिया अपनी जगह बना चुका है। गांवों में हर उम्र के लोग सोशल मीडिया पर बहुत अधिक समय बिताते हैं। आज गांवों में बड़ी संख्या में लोगों के हाथ में स्मार्ट फोन दिखता है, जिससे वे जानकारियों में अपडेट रहते हैं। बात सोशल मीडिया के इस्तेमाल की करे तो भारत के ग्रामीण युवाओं के जीवन में भी सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के बदलाव लाए हैं। आज जहां काम-काज, खेती-किसानी में सोशल मीडिया से जानकारी मिल जाती है। रोजगार और शिक्षा में सहूलियत मिली है वहीं इस प्लेटफॉर्म पर अत्यधिक समय देने से समय और मानसिक ऊर्जा का नुकसान भी हो रहा है। सूचना के क्षेत्र में ग्रामीण क्षेत्रों में सोशल मीडिया का जहां सकारात्मक प्रभाव पड़ा है वहीं ग्रामीण जनजीवन में सहभागिता के जीवन पर काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। युवाओं के स्वास्थ्य को भी सोशल मीडिया ने प्रभावित किया है।
गाँव हो या शहर, कस्बा या महानगर युवाओं में स्मार्ट फोन का एडिक्शन बहुत तेजी से बढ़ा है जिसके कारण उन्हें कई मानसिक बीमारियों से भी जूझना पड़ रहा है। हाल ही में द हिंदू में छपी ख़बर के अनुसार अमेरिका और भारत में 13 से 17 वर्ष की आयु के 10,000 से अधिक किशोरों पर किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि मानसिक कल्याण का गहरा संबंध मोबाइल फोन के उपयोग की प्रारंभिक आयु से है।
ग्रामीण युवाओं पर सोशल मीडिया के प्रभाव को लेकर फेमिनिज़म इन इंडिया ने कुछ युवाओं से बातचीत की। उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के ग्रामीण क्षेत्र से इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में शोध करते छात्र शशांक अनिरुद्ध कहते हैं, “सोशल मीडिया का छात्रों पर प्रभाव कई तरह का है। यह जानकारी का एक कारगर साधन ज़रूर है, सूचनाओं के लिहाज से भी यह मददकारी है। वहीं इसका एक प्रभाव यह भी है कि जानकारियों, सूचनाओं और मनोरंजन की यह भरमार छात्रों की या किसी भी अन्य व्यक्ति की एकाग्रता को संकट में डाल रही है। आपकी किसी पहलू पर ठहर कर गहराई से सोचने की शक्ति कमजोर हो रही है साथ ही सस्ते किस्म का मनोरंजन व्यक्ति की चेतना को भी बहुत अलग तरीके से प्रभावित कर रहा है।”
इसी क्रम में उत्तरप्रदेश के जौनपुर जिले ग्रामीण क्षेत्र सुजानगंज में रहने वाले युवा पंकज शुक्ल कहते हैं, “पहले ग्रामीण युवा नियमित रूप से खेलों में शामिल होते थे। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने धीरे-धीरे उन्हें खेलों से एकदम काट दिया। सोशल मीडिया और इंटरनेट का ग्रामीण इलाकों में पहुंचना कई तरह के सकारात्मक बदलाव से भी जुड़ता है जिससे ग्रामीण युवाओं को सहूलियत मिली है- जैसे रोजगार या नौकरियों के लिए खुद से आवेदन फॉर्म भरना। पहले यही काम दूर कहीं जाकर जन सेवा केंद्र पर करवाना पड़ता था। ग्रामीण इलाकों में शिक्षा के क्षेत्र में सोशल मीडिया के उपयोग की सुविधा से युवा घर बैठे पढ़ाई करते हैं, एक्जाम की तैयारी करते हैं। इस तरह रोजगार के क्षेत्र में भी सोशल मीडिया से बदलाव आया है। बहुत सारे युवा घर बैठे क्लासेज चलाते हैं और अन्य व्यवसायिक क्षेत्रों में भी घर से सेवा दे सकते हैं।”
सोशल मीडिया का बढ़ता इस्तेमाल और उसका असर
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ग्रामीण क्षेत्रों में सोशल मीडिया और इंटरनेट का लाभकारी उपयोग कम ही हो रहा है क्योंकि रोजगार की कमी और आर्थिक स्थिति खराब होने से बहुत कम लोगों तक ये सुविधाएं पहुंचती हैं। वहीं दूसरी तरफ आज ग्रामीण इलाकों में स्मार्ट फोन में युवा फंसे हुए भी नज़र आ रहे हैं। सीमित क्षेत्रों में आवाजाही और मनोरंजन के अभाव में वे दिन-रात सोशल साइट्स पर कुछ न कुछ देख रहे होते हैं। यह दृश्य शहरों की तरह गाँव में भी आम हो गया है। गाँव की सड़कों से लेकर खेत की मेड़ और चकरोडो पर चलते हुए किशोर और युवा हाथ में मोबाइल लेकर उसे देखते चलते हैं। इतना ही नहीं रील्स और शार्ट्स बनाने का क्रेज भी बढ़ता ही जा रहा है। वायरल होने के लिए किसी भी हद तक जा रहे हैं। बहुत बार बहुत अश्लील कंटेंट और सांप्रदायिक तत्वों पर रील्स वीडियो बनाते हैं।
सोशल मीडिया की स्क्रीन पर जीवन के रंगों को तलाशना कभी-कभी भटकाव का कारण बनता है। युवाओं में फोन को लेकर एडिक्शन जैसी चीज आम हो गई है। गाँव हो या शहर, कस्बा या महानगर युवाओं में स्मार्ट फोन का एडिक्शन बहुत तेजी से बढ़ा है जिसके कारण उन्हें कई मानसिक बीमारियों से भी जूझना पड़ रहा है। हाल ही में द हिंदू में छपी ख़बर के अनुसार अमेरिका और भारत में 13 से 17 वर्ष की आयु के 10,000 से अधिक किशोरों पर किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि मानसिक कल्याण का गहरा संबंध मोबाइल फोन के उपयोग की प्रारंभिक आयु से है। सर्वेक्षण के अनुसार, जितनी कम उम्र में मोबाइल फोन का उपयोग शुरू किया जाता है, मानसिक स्वास्थ्य में उतनी ही अधिक गिरावट देखी जा सकती है।
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एक ओर इंटरनेट से युवाओं के जीवन मे सुविधा और सहूलियत आयी है वहीं कई तरह के निर्रथक और आपराधिक कार्यो में भी लिप्त कर दिया गया है। आज साइबर क्राइम के सारे अपराधों में लगभग युवाओं की भूमिका दिखती है। कम समय में अधिक पैसे के कारण बैठकर युवा साइबर क्राइम कर रहे हैं। इस तरह के आंकड़े अब बहुत बढ़ते जा रहे हैं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के शोधार्थी मनीष कुमार कहते हैं, “आज के पूंजीवादी समय में जो तकनीकी विकास होता है उसका सबसे ज्यादा लाभ सत्ता और कॉरपोरेट को ही जाता है क्योंकि वे तकनीकी को खरीद लेते हैं या ताकतवर उसे अपनी ताकतों से प्रभावित कर लेते हैं। आज हम देख सकते हैं कि वे सोशल मीडिया पर जानकारियों को प्रभावित करते हैं, मतलब लोगों तक वही जानकारी पहुंचेगी जो वो चाहेंगे जैसे आंदोलनों की खबरें सोशल मीडिया पर न आने देना और दंगो के वीडियो और नफरती चीजों को सोशल मीडिया पर अत्यधिक दिखाना।”
इंडिया टुडे में छपी जानकारी के अनुसार भारत में 398 मिलियन युवा सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं। इंटरनेट और मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (IAMAI) द्वारा 2023 में संकलित एक अध्ययन के अनुसार, किशोर इंस्टाग्राम और यूट्यूब जैसे प्लेटफ़ॉर्म पर 2-3 घंटे से अधिक समय बिताते हैं। आज के डिजिटल समय में मनुष्य काफी हद तक अकेला भी है। और ये किसी भी समाज के लिए संकट का संकेत हैं। और ये अकेलापन युवाओं में बहुत अधिक देखा जा रहा है ।कितने युवाओं को देखा गया वे सोशल मीडिया पर हँसते मुस्कुराते तस्वीरे डाल रहे हैं पोस्ट लिख रहे हैं अगले दिन उनकी आत्महत्या की भी खबर आ जाती है। अभी हाल ही में आरजे सिमरन की आत्महत्या और इसी तरह कई सोशल मीडिया स्टार की आत्महत्या की खबरों ने सबको चौका दिया है।
नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज (NIMHANS) की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में 27% किशोर सोशल मीडिया पर एकदम से निर्भर हैं। लगातार नोटिफ़िकेशन चेक करने, अपडेट रहने पोस्ट करने और फ़ीड स्क्रॉल करने से युवाओं में बेचैनी और अलगाव जैसी मानसिक बीमारी लगातार बढ़ती जा रही है। स्क्रीन के अत्यधिक संपर्क से नींद संबंधी विकार भी हो रहे हैं भारत में 40% से अधिक छात्रों का कहना है कि वे सोशल मीडिया के अत्यधिक देर तक उपयोग के कारण अच्छी नींद नहीं ले पाते हैं।
इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के साल 2023 की रिपोर्ट के मुताबिक़ ग्रामीण भारत में 53 फीसदी से अधिक लगभग 442 मिलियन यूजर कई स्तर पर इंटरनेट का इस्तेमाल करते है।
सामाजिक ताने-बाने में बदलाव
ग्रामीण जीवन हमेशा से एक सामूहिक और सामाजिक जीवन रहा है लेकिन आज इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव इस जीवन की नैसर्गिकता को काफी हद तक प्रभावित कर लिया है। आज जिसे देखी वहीं स्मार्ट फोन में आँख गड़ाये हुए है अपने आसपास के जीवन से कटता चला जा रहा है। युवाओं के हाथ में तो स्मार्ट फोन जैसे अलादीन के चराग की तरह क्रेज लेकर आया है लेकिन यथार्थ तो ये है कि ये स्क्रीन का चराग स्क्रीन तक रहता है। इसका शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर कोई सार्थक बदलाव नहीं आया। ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर आज भी डॉक्टर नहीं होते, दवाएं अन्य सुविधाएं नहीं होतीं। शिक्षा के क्षेत्र में भी कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ बल्कि निजी स्कूलों का व्यवसाय ग्रामीण इलाकों में खूब फैला।
एक बारगी इंटरनेट आ जाने से लगा था कि मनुष्य के जीवन को बेहतर बनेगा लेकिन सोशल मीडिया बाजार की बनायी हुई दुनिया थी इसलिए यहाँ सबकुछ सत्ता और पूँजी से प्रभावित हैं। व्यवस्था और गलत राजनीति से कभी जो युवाओं के भीतर तनाव उठता था आज वो रील्स और शॉर्ट्स से देखकर रिलीफ हो जाता है। रील्स और वीडियो देखने की आदत में वे फंस चुके हैं। वे चमकते बाजार की इस जगर-मगर दुनिया को ही असली दुनिया मान बैठे हैं। अक्सर यही चीजें उन्हें अवसाद की ओर ले जाती हैं।आज रील्स और वीडियो बनाने की हद तक बढ़ चुकी है कि बेरोजगारी और मंहगाई ने उन्हें और इस तरफ धकेल दिया है। इस रील्स वीडियो के अतिवादी चलन ने मनुष्य के नैसर्गिक जीवन को बाजार में उतार दिया।