संस्कृतिख़ास बात खास बात: लेखिका और जेएनयू प्रोफेसर निवेदिता मेनन से

खास बात: लेखिका और जेएनयू प्रोफेसर निवेदिता मेनन से

पिछले दस वर्षों में विश्वविद्यालय परिसरों में हिंदू राष्ट्र, ब्राह्मण पितृसत्ता और क्रोनी कैपिटलिज़्म के खिलाफ बड़ा प्रतिरोध देखा गया है। चाहे हैदराबाद यूनिवर्सिटी हो या इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, दिल्ली के लगभग हर विश्वविद्यालय में यह विरोध चला है। विश्वविद्यालय हमेशा से आलोचनात्मक चिंतन का केंद्र रहे हैं, और इसी कारण यहां प्रतिरोध खड़े होते आए हैं।

पिछले कुछ दशकों में नारीवादी चिंतन ने समाज, राजनीति और शिक्षा से जुड़े कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े किए हैं। नारीवाद केवल पुरुषों और महिलाओं के बीच संबंधों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उन संरचनात्मक असमानताओं पर भी सवाल उठाता है जो पितृसत्ता, जाति, वर्ग और राज्य व्यवस्था के जरिए बनाए और बनाए रखे जाते हैं। इस संदर्भ में, नारीवादी दृष्टिकोण से समाज को देखने और समझने का महत्व और भी बढ़ जाता है। इन्हीं विषयों को फेमिनिज़म इन इंडिया ने जेएनयू प्रोफेसर और लेखिका निवेदिता मेनन से जानने और समझने की कोशिश की। निवेदिता देश की प्रमुख नारीवादी, लेखिका और शिक्षिका हैं। वे राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर हैं और विशेष रूप से नारीवाद, जेंडर, यौनिकता, लोकतंत्र और समाज में सत्ता संरचनाओं पर अपने विचारों के लिए जानी जाती हैं। पेश है बातचीत के कुछ अंशः

फेमिनिज़म इन इंडियाः आप एक नारीवादी हैं। ये भावना आपके अंदर कैसे बनी? कोई ऐसा वाकया जिसने आपको एक नारीवादी होने के लिए प्रेरित किया?

निवेदिता मेनन: जैसे-जैसे लोग जीवन के अनुभवों से गुजरते हैं, उन्हें कभी अपने विशेषाधिकारों का एहसास होता है, तो कभी अपनी अस्मिता से जुड़े भेदभाव का। कई लोग अपने उत्पीड़न को नहीं समझ पाते, तो कई अपने विशेषाधिकारों से अनजान रहते हैं। लेकिन संवेदनशील व्यक्ति अपने विशेषाधिकार और अस्मिता दोनों को समझने की कोशिश करता है। मैं एक उच्च जाति और मध्यवर्गीय परिवार से आती हूं, जहां सांस्कृतिक पूंजीवाद (Cultural Capitalism) का प्रभाव था। हमारे परिवार की स्थिति ठीक थी, जिससे मुझे अपने विशेषाधिकारों का एहसास बचपन से ही होने लगा था। बच्चों को विशेषाधिकार के बारे में सिखाने की ज़रूरत नहीं होती, वे खुद इसे महसूस करने लगते हैं।

उदाहरण के लिए, एक बच्चा कार में बैठा है और ट्रैफिक सिग्नल पर खड़े कुछ बच्चे भीख मांग रहे हैं—ऐसे में कई मध्यवर्गीय बच्चे सवाल करने लगते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है। इस पर माता-पिता की प्रतिक्रिया मायने रखती है—कुछ इसे टाल देते हैं, तो कुछ समझाते हैं कि हमारे पास सुविधाएं हैं, जबकि उनके पास नहीं हैं। बचपन में मैं भी ऐसे ही अनुभवों से गुज़री और अपने विशेषाधिकारों के बारे में जानने लगी। मेरे घर में भेदभाव का माहौल नहीं था, लेकिन समाज में मौजूद असमानता को मैं महसूस कर सकती थी। मैं एक गर्ल्स स्कूल में पढ़ती थी, जिससे लड़कों के साथ कम बातचीत होती थी। लेकिन धीरे-धीरे यह एहसास होने लगा कि समाज लड़कियों को किस नज़रिए से देखता है और उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाता है। जब हम दस-बारह साल की उम्र के होते हैं, तब यह समझ आने लगता है कि कुछ गड़बड़ है।

मेरे घर में खुले तौर पर भेदभाव नहीं था, लेकिन लैंगिक असमानता के सूक्ष्म रूप मौजूद थे। मुझसे घर के काम करने की अपेक्षा की जाती थी, खासकर किचन के कामों की। वहीं, मेरे छोटे भाई से ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जाती थी। अगर वह कभी किचन का कोई काम कर देता, तो लोग यह कहकर आश्चर्य व्यक्त करते कि “लड़कों से ऐसे काम नहीं करवाने चाहिए।”

मेरे घर में खुले तौर पर भेदभाव नहीं था, लेकिन लैंगिक असमानता के सूक्ष्म रूप मौजूद थे। मुझसे घर के काम करने की अपेक्षा की जाती थी, खासकर किचन के कामों की। वहीं, मेरे छोटे भाई से ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जाती थी। अगर वह कभी किचन का कोई काम कर देता, तो लोग यह कहकर आश्चर्य व्यक्त करते कि “लड़कों से ऐसे काम नहीं करवाने चाहिए।” नारीवादी हम सभी होते हैं, बस फर्क इतना है कि कुछ लोग इसे पहचान पाते हैं और कुछ नहीं। मैंने अपने विशेषाधिकारों और एक लड़की होने के कारण हुए भेदभाव दोनों को जिया है—यही अनुभव मुझे नारीवादी विचारधारा के करीब लेकर आए।

फेमिनिज़म इन इंडियाः आपकी किताब ‘सीइंग लाइक ए फेमिनिस्ट’ किस नज़रिए पर ज़ोर देती है? आपको क्या लगता है कि महिलाओं की सेक्शूएलिटी के बारे में हमारी धारणा पुरुष नज़रिए के प्रभुत्व से कितनी प्रभावित होती है और नारीवादी की तरह ‘देखने’ का क्या मतलब है?

निवेदिता मेनन: मेरी किताब सीइंग लाइक ए फेमिनिस्ट का शीर्षक जेम्स सी. स्कॉट की किताब सीइंग लाइक ए स्टेट से प्रेरित है। स्कॉट की किताब में यह विचार था कि राज्य जनसंख्या को किस नज़रिए से देखता है और उसे किस तरह नियंत्रित और वर्गीकृत करता है। राज्य लोगों को अलग-अलग श्रेणियों में रखता है—जैसे जनगणना में आपको अपना धर्म, वर्ग, जाति, आर्थिक स्थिति आदि बतानी पड़ती है। इस प्रक्रिया के ज़रिए राज्य यह तय करता है कि किसी व्यक्ति की पहचान किन सीमाओं के भीतर परिभाषित होगी। सीइंग लाइक ए स्टेट का मूल विचार यह था कि विविधताओं को व्यवस्थित करके एक विशिष्ट सामाजिक ढांचा तैयार किया जाता है।

तस्वीर साभार: Wikipedia

सीइंग लाइक ए फेमिनिस्ट इसी सोच को नारीवादी दृष्टिकोण से देखने का प्रयास है। नारीवादी नज़रिए से देखने का मतलब है कि हम समाज की विविधताओं को समझें और उनके साथ संघर्ष करने के तरीके खोजें। यह सिर्फ लैंगिक असमानता तक सीमित नहीं है, बल्कि वर्ग, समुदाय और पहचान से जुड़ी विविधताओं को भी शामिल करता है। मेरी किताब में यही विचार है कि हम इन विविधताओं को कैसे समझें, उनसे कैसे जूझें और अपने जीवन को उनके साथ संतुलित तरीके से कैसे आगे बढ़ाएं। हम सभी के पास कई तरह की अस्मिताएं होती हैं—लिंग, जाति, वर्ग, धर्म, यौनिकता और समुदाय से जुड़ी हुईं। सीइंग लाइक ए फेमिनिस्ट का सार यही है कि इन अस्मिताओं को पहचानकर हम यह समझ सकें कि समाज हमें किस तरह देखता है, और एक नारीवादी दृष्टिकोण से इन असमानताओं से कैसे निपटा जाए।

अगर हमको पितृसत्तात्मक समाज में गाली नहीं दी गयी तो हम समझेंगे हमारा काम हम ठीक से नहीं कर रहे हैं। गाली तो मिलेगी ही मिलेगी। इसलिए फेमिनिस्म को टॉक्सिक कहने का मतलब कुछ नहीं है। आपको प्रॉब्लम फेमिनिस्म से है। नारिवादिता से है। टॉक्सिक बोलना महज एक गाली है और हमको गाली से कोई लेना-देना नहीं। 

फेमिनिज़म इन इंडियाः ‘टॉक्सिक नारीवाद’ टर्म किस तरह समाज को प्रभावित कर रही है?

निवेदिता मेनन: मैं एक सोच बनाना चाहूंगी कि नारीवाद में केवल हम स्त्री-पुरूष की बात नहीं कर रहे हैं हम नज़रिये और ढांचों की बात कर रहे हैं। टॉक्सिक नारीवाद टर्म के समाज में फैलने का सीधा मतलब यही है कि नारीवादी विचारधारा से समाज में कोई न कोई बदलाव हो रहा है लोगों को बदलाव दिख रहा है। भारत में जब किसी पर कोई असर पड़ता है, तो उसको एंटी नेशनल कहा जाता है या फिर खालिस्तानी। जब थॉमस मूवमेंट ज़ोर-शोर से सड़क पर निकला तो क्या कुछ नहीं कहा गया उनके बारे में। उनको कहा गया कि सौ-सौ रुपये मिले हैं इनको और ये खालिस्तान से हैं, राष्ट्रीय विरोधी हैं। यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को कितना कुछ कहा गया। अगर हमको पितृसत्तात्मक समाज में गाली नहीं दी गयी तो हम समझेंगे हमारा काम हम ठीक से नहीं कर रहे हैं। गाली तो मिलेगी ही मिलेगी। इसलिए फेमिनिस्म को टॉक्सिक कहने का मतलब कुछ नहीं है आपको प्रॉब्लम फेमिनिस्म से है। नारिवादिता से है। टॉक्सिक बोलना महज़ एक गाली है और हमको गाली से कोई लेना देना नहीं। 

फेमिनिज़म इन इंडियाः आपके अनुसार वे कौन से पहलू हैं जो महिलाओं को अपने लिए एक मजबूत राजनीतिक आधार तैयार करने में मदद कर सकता है?

निवेदिता मेनन: पॉलिटिक्स में हर किसी की भूमिका होनी चाहिए। जैसे समाज में सब लोगों को अधिकार है, वैसे ही पॉलिटिक्स में सभी लोगों को सारे अधिकार मिलना चाहिए। सारी औरतें फेमिनिस्ट नहीं हैं। लेकिन, औरतें भी एन्टी फेमिनिस्ट और पितृसत्तात्मक हो सकती हैं। ऐसे ही उनका जिस तरह का नज़रिया है, वे उसी तरीके से  पॉलिटिक्स में आएंगी।  

फेमिनिज़म इन इंडियाः क्वीयर समुदाय के विकास के लिए आप क्या सुझाव देंगी?  

निवेदिता मेनन: मैं किसी को कोई उपदेश नहीं देती। एक सोशल एक्टिविस्ट होने के नाते मेरा काम नहीं कि मैं किसी को उपदेश दूं। मैं सबके साथ हूं, मैं खुद इसका भाग हूं। मैं विशेषाधिकार प्राप्त, सामाजिक, और संघर्षों के प्रोसेस का भाग हूं। मैं इन सारे तथ्यों के साथ जुड़ती हूं और मैं उनसे सीखती हूं। लोग मुझसे सीखते हैं और मैं लोगों से सीखती हूं। ऐसे में हम सब एक-दूसरे के साथ जुड़ते हैं। ये म्यूचल प्रोसेस है। 80 के दशक में हम क्वीयर आंदोलन को भी नारीवादी आंदोलन से जोड़ कर देखते थे, मगर 90 के दशक तक आते-आते लोग बाहर आने लगे और देखने, समझने लगे कि होमोसेक्सयूअलिटी क्या है? जब 1996 में फायर मूवी आई तब लोगों को पता लगा कि ऐसी भी कोई टर्म होती है।  

पिछले आठ वर्षों से यह आईसीसी पूरी तरह से वाइस चांसलर द्वारा नामित सदस्यों से संचालित है, जबकि जीएसकैश में चुनाव के ज़रिए सदस्य चुने जाते थे। यह बदलाव 2013 के यौन उत्पीड़न कानून के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है। इस कारण, यौन उत्पीड़न की शिकायत करने वाली महिलाओं को न्याय पाना बेहद मुश्किल हो गया है।

फेमिनिज़म इन इंडियाः एक प्रोफेसर होने के नाते आपका जुड़ाव देश के नामी यूनिवर्सिटी से रहा है, तो वहां विशेषकर लड़कियों के लिए सरकार द्वारा बनाए गए नियम-कानून किस तरह लागू हैं?  

निवेदिता मेनन: सरकार द्वारा लागू किए गए नियम और कानूनों की स्थिति मिश्रित रही है। कुछ नीतियां लागू की गई हैं, लेकिन कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान हाशिए पर चले गए हैं। उदाहरण के लिए, जेएनयू में जीएसकैश  जो विशाखा गाइडलाइंस के तहत यौन उत्पीड़न की शिकायतों की सुनवाई के लिए बनी स्वतंत्र समिति थी, उसे हटा दिया गया। इसके ऑफिस को बंद कर दिया गया और उसकी जगह आईसीसी स्थापित कर दिया गया। पिछले आठ वर्षों से यह आईसीसी पूरी तरह से वाइस चांसलर द्वारा नामित सदस्यों से संचालित है, जबकि जीएसकैश में चुनाव के ज़रिए सदस्य चुने जाते थे। यह बदलाव 2013 के यौन उत्पीड़न कानून के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है। इस कारण, यौन उत्पीड़न की शिकायत करने वाली महिलाओं को न्याय पाना बेहद मुश्किल हो गया है। आईसीसी न केवल पूरी तरह नामित संस्था बन गई है, बल्कि इसकी कार्यशैली भी सर्वाइवरों के प्रति संवेदनशील नहीं है।

फेमिनिज़म इन इंडियाः पिछले कुछ सालों में खास तौर से 10 सालों में संस्थाओं और उनकी स्वायत्तता को खत्म करने की कोशिश हुई है। उसको लेकर आप क्या कहना चाहेंगी?

निवेदिता मेनन: पिछले दस वर्षों में विश्वविद्यालय परिसरों में हिंदू राष्ट्र, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और क्रोनी कैपिटलिज़्म के खिलाफ बड़ा प्रतिरोध देखा गया है। चाहे हैदराबाद यूनिवर्सिटी हो या इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, दिल्ली के लगभग हर विश्वविद्यालय में यह विरोध चला है। विश्वविद्यालय हमेशा से आलोचनात्मक चिंतन का केंद्र रहे हैं, और इसी कारण यहां प्रतिरोध खड़े होते आए हैं। लेकिन अब इस स्वायत्तता को खत्म करने की कोशिश की जा रही है, क्योंकि आरएसएस शिक्षा को बहुत गंभीरता से लेता है।

विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता खत्म करने के लिए कई हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, जैसे—छात्रों के प्रवेश को सीमित करना, उनके पाठ्यक्रम को संकुचित करना और शिक्षा की अवधि को छोटा करना। इसके अलावा, प्रवेश परीक्षाओं में बदलाव किया गया है। पहले हर विश्वविद्यालय अपनी परीक्षा आयोजित करता था, तब पेपर लीक जैसी समस्याएं नहीं होती थीं।

आरएसएस कभी चुनाव नहीं लड़ा और न ही चुनाव लड़ने की ताकत या हिम्मत रखता है, लेकिन वह सरकार को चला रहा है। प्रधानमंत्री और आरएसएस के बीच मतभेद हो सकते हैं, लेकिन आखिरकार यह एक ही विचारधारा की फैमिली है। पिछले दस वर्षों से आरएसएस ही देश को चला रहा है और उनके लिए शिक्षा को नियंत्रित करना बेहद महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि वे विश्वविद्यालयों को कमजोर करने की नीति अपना रहे हैं। वे चाहते हैं कि पब्लिक यूनिवर्सिटीज़ को खत्म कर दिया जाए, पढ़ाई को अधिक ऑनलाइन कर दिया जाए, एमफिल को समाप्त कर दिया जाए और पीएचडी को संक्षिप्त कर दिया जाए। उनका मकसद है कि छात्र जितनी जल्दी हो सके, डिग्री लेकर निकल जाएं और ज्यादा समय तक विश्वविद्यालय में टिककर राजनीतिक चेतना विकसित न कर सकें।

तस्वीर साभार: Ashoka University

यूजीसी के मौजूदा चेयरपर्सन को इसीलिए इनामस्वरूप यह पद दिया गया क्योंकि उन्होंने जेएनयू को कमजोर करने में बड़ी भूमिका निभाई थी। अब उन्हें पूरे देश की विश्वविद्यालय प्रणाली को उसी दिशा में ले जाने की जिम्मेदारी दी गई है। विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता खत्म करने के लिए कई हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, जैसे—छात्रों के प्रवेश को सीमित करना, उनके पाठ्यक्रम को संकुचित करना और शिक्षा की अवधि को छोटा करना। इसके अलावा, प्रवेश परीक्षाओं में बदलाव किया गया है। पहले हर विश्वविद्यालय अपनी परीक्षा आयोजित करता था, तब पेपर लीक जैसी समस्याएं नहीं होती थीं।

लेकिन अब एनटीए को यह जिम्मेदारी दे दी गई है, जो सरकारी नहीं बल्कि एक सेमी-ऑटोनॉमस संस्था है। इससे परीक्षा प्रणाली में भारी भ्रष्टाचार आया है, जैसाकि नीट में सामने आया। अब विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर स्वयं अपने परीक्षा प्रश्नपत्र सेट नहीं कर सकते, बल्कि यह एनटीए द्वारा तय होता है कि छात्रों से क्या पूछा जाएगा। सामाजिक विज्ञान में मल्टीपल चॉइस क्वेश्चन बिल्कुल अप्रासंगिक हैं, क्योंकि यह विषय सूचनात्मक ज्ञान से अधिक आलोचनात्मक सोच पर आधारित होता है। लेकिन सरकार इसे भी नियंत्रित कर रही है ताकि छात्रों की स्वतंत्र चिंतन-शक्ति को कम किया जा सके।

पिछले दस वर्षों में विश्वविद्यालय परिसरों में हिंदू राष्ट्र, ब्राह्मण पितृसत्ता और क्रोनी कैपिटलिज़्म के खिलाफ बड़ा प्रतिरोध देखा गया है। चाहे हैदराबाद यूनिवर्सिटी हो या इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, दिल्ली के लगभग हर विश्वविद्यालय में यह विरोध चला है। विश्वविद्यालय हमेशा से आलोचनात्मक चिंतन का केंद्र रहे हैं, और इसी कारण यहां प्रतिरोध खड़े होते आए हैं।

स्वायत्तता को खत्म करने का तीसरा बड़ा तरीका फैकल्टी में मनमानी नियुक्तियां करना है। दिल्ली विश्वविद्यालय में वर्षों से पढ़ा रहे प्रोफेसरों को हटाकर ऐसे लोगों को नियुक्त किया जा रहा है, जिनकी शैक्षणिक योग्यता पर संदेह है। उन्हें केवल उनकी विचारधारा के आधार पर नौकरियां दी जा रही हैं, न कि उनकी शिक्षण क्षमता के आधार पर। इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर गहरा असर पड़ा है, क्योंकि ऐसे लोग पढ़ाना नहीं जानते, वे सिर्फ सरकार की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए लाए गए हैं।

अब विश्वविद्यालयों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी समाप्त कर दी गई है। पहले जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में निर्णय एकेडमिक काउंसिल से होकर आते थे, लेकिन अब सीधे वाइस चांसलर के आदेशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि विश्वविद्यालयों का प्रशासन कॉरपोरेट गवर्नेंस की तर्ज पर चले, जहां केवल शीर्ष प्रबंधन के आदेशों का पालन किया जाएगा। इसका उद्देश्य अगली पीढ़ी को नियंत्रित करना है—सरकार तय करेगी कि छात्र किन विषयों पर रिसर्च करेंगे और कौन-से टॉपिक्स पढ़ाए जाएंगे।

सरकार की इस दमनकारी नीति का असर यह है कि जो भी छात्र, स्कॉलर, पत्रकार या बुद्धिजीवी आवाज उठा रहे हैं, उन्हें राजनीतिक अपराधों के तहत जेल में डाला जा रहा है। जेलों में बंद अधिकांश लोग या तो छात्र हैं, या फिर वे लोग जो सत्ता के खिलाफ़ सच बोलने की हिम्मत रखते हैं। विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को खत्म करने का सीधा मकसद ही यही है—आने वाली पीढ़ियों को आलोचनात्मक सोच से वंचित कर देना और शिक्षा को सत्ता के नियंत्रण में ले आना।

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