मैंने अपने घर में हमेशा सुना है, “हमने अपने तीनों बच्चों को एक जैसी शिक्षा और सुविधाएं दी हैं।” लेकिन, मुझे ये नहीं समझ आता है कि अगर माता-पिता अपनी लड़कियों को पढ़ा रहे हैं, तो समाज उसे विशेषाधिकार की नज़र से क्यों देखता है? पैरेंट्स हमेशा ऐसा क्यों महसूस करवाते हैं कि उन्होंने सामान्य जिम्मेदारियों से कुछ बहुत अलग किया है। वहीं, इन सबके बावजूद भी लड़कियां कई तरीके की अप्रत्यक्ष भेदभाव का सामना करती ही हैं। यह भेदभाव वहीं से शुरू होता है जब कहा जाता है कि “तुम्हें तुम्हारे भाई की तरह रखा गया।” अगर किसी और घर में जन्म लेतीं, तो ऐसा नहीं होता। मेरी माँ ने सिखाया कि जहां गलत लगे, वहां चुप मत रहो—उसका विरोध करो। “उम्र में बड़े होने से कोई इंसान सही नहीं हो जाता, गलत तो गलत ही होता है।” यही सीख मेरे व्यक्तित्व का आधार बनी। कई बार माँ खुद कहती थीं, “अगर मैं भी गलत हूं तो मेरा भी विरोध करो।” इसी समर्थन ने मुझे गलत के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत दी।
बचपन से भेदभाव की शुरुआत
बचपन में मेरे पापा भाई को साइकिल पर आगे और मुझे पीछे बैठाते थे। सात साल की उम्र में ही समझ आ गया था कि समाज ने स्त्रियों और पुरुषों के बैठने, चलने, हँसने, यहां तक कि बोलने तक के तरीके तय कर रखे हैं। एक बार गांव में करीब 12-13 साल की उम्र में, मेरे चलने के तरीके, छोटे बाल और पैर फैलाकर बैठने पर लोग एतराज जताने लगे थे। “लड़का बनोगी? सभ्य लड़कियों की तरह चलना सीखो!” माँ से कहा जाता, “इसे घर का काम नहीं सिखाया, शादी कौन करेगा?” लेकिन माँ ने हमेशा कहा, “तुम पढ़ो, वही तुम्हारा जवाब होगा।”
मैं कभी भी समाज की अच्छी और आदर्श लड़कियों की पंक्ति में नहीं गिनी गई, क्योंकि मुझे वो दायरे पसंद नहीं थे। मेरा नारीवादी नजरिया समावेशिता पर टिका रहा, जिससे मैंने न खुद को कभी कमतर आँका और न किसी और को। आज मैं गांव की इकलौती लड़की हूं जिसने शहर से बाहर रहकर परास्नातक किया है। यह गर्व की बात है, लेकिन यह सोचकर दुख होता है कि आज भी मैं अकेली क्यों? जो लोग कभी कहते थे, “लड़की को मत पढ़ाओ, बिगड़ जाएगी,” वही अब गर्व से बताते हैं कि उनके गांव की लड़की ने परास्नातक किया और अपनी बेटियों को भी पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं।
मैंने 11वीं कक्षा में शौकिया छोटे बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। पहली फीस 50 रुपए मिले, जो मेरे एक महीने के मेहनत का फल था। उसके बाद और बच्चे पढ़ने लगे, जिससे मैंने अपनी कोचिंग की फीस भरी। यह स्वाभिमान उन तमाम सवालों का जवाब था जो समाज से पूछता है कि आखिर महिलाओं को हाशिए पर क्यों रखा जाता है और उन्हें दोयम दर्जे का क्यों समझा जाता है?
सवाल पूछना क्यों जरूरी है

मुझे बचपन से ही सवाल पूछना पसंद था। घर में माँ से, स्कूल में शिक्षकों से मैं हमेशा सवाल पूछती। कई बार विरोध भी करती। जैसे, “खाना पहले भाई को क्यों दिया?” या “मुझसे बर्तन क्यों धुलवाने हैं, भाई से क्यों नहीं?” लेकिन, जवाब मिलता कि “तुम लड़की हो।” पर यह जवाब मुझे कभी स्वीकार नहीं हुआ। यह सिलसिला यूनिवर्सिटी तक चलता रहा। फिर एक समय आया जब मैंने सवाल पूछना ही कम कर दिया। समझ आया कि समाज ने हमें चुप रहने की भी अच्छी ट्रेनिंग दी है। ऐसा अक्सर कहा जाता है कि “अच्छी लड़कियां ज्यादा बात नहीं करतीं।” लेकिन बाद में जब पढ़ाई और अनुभव बढ़ा, तो जाना कि तेज बोलने वाली लड़कियां ही अच्छी डिबेटर और स्पीकर होती हैं।
एक बार गांव में करीब 12-13 साल की उम्र में, मेरे चलने के तरीके, छोटे बाल और पैर फैलाकर बैठने पर लोग एतराज जताने लगे थे। “लड़का बनोगी? सभ्य लड़कियों की तरह चलना सीखो!” माँ से कहा जाता, “इसे घर का काम नहीं सिखाया, शादी कौन करेगा?” लेकिन माँ ने हमेशा कहा, “तुम पढ़ो, वही तुम्हारा जवाब होगा।”
मेरी नारीवादी खुशी

मुझे बुजुर्ग महिलाओं से बातें करना पसंद है, खासकर उनकी ज़िंदगी, उनके नजरिए से सुनना। मैं उनसे सीखती हूं और उनके बारे में बात करती हूं। मैंने जाना कि सवाल पूछना बहुत जरूरी है, क्योंकि जब तक सवाल नहीं होंगे, तब तक महिलाओं के हक पर बात नहीं होगी। मैंने 11वीं कक्षा में शौकिया छोटे बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। पहली फीस 50 रुपए मिले, जो मेरे एक महीने के मेहनत का फल था। उसके बाद और बच्चे पढ़ने लगे, जिससे मैंने अपनी कोचिंग की फीस भरी। यह स्वाभिमान उन तमाम सवालों का जवाब था जो समाज से पूछता है कि आखिर महिलाओं को हाशिए पर क्यों रखा जाता है और उन्हें दोयम दर्जे का क्यों समझा जाता है? मुझे घूमना पसंद है। जब अपने पैसों से टिकट बुक करती हूं या परिवार के साथ यात्रा का खर्च उठाती हूं, तो समझ आता है कि महिलाओं का भी उतना ही अधिकार और फ़र्ज़ है जितना कि पुरुषों का।
मैं सुबह 8 बजे कॉलेज निकलती और शाम 4 बजे लौटने के बाद ट्यूशन पढ़ाती। लेकिन फिर भी शाम 5 बजे के बाद बाहर निकलने की मुझे इजाज़त नहीं थी। धीरे-धीरे यह माहौल मेरे लिए दम घोंटने वाला बन रहा था। एक दिन हिम्मत कर मैंने अलग रहने का फैसला किया।
आज़ादी और स्वाभिमान दोनों मेरा हक
लखनऊ विश्वविद्यालय में स्नातक के दौरान, दूसरे सिमेस्टर में कोविड महामारी शुरू हो चुकी थी। कक्षाएं ऑनलाइन होने लगीं। लेकिन उस वक्त मेरे पास फोन नहीं था क्योंकि “अच्छी लड़कियां फोन नहीं चलातीं।” ट्यूशन पढ़ाकर मैंने पैसे जोड़े और स्कॉलरशिप के पैसे बचाकर आखिरकार फोन खरीदा। तब महसूस हुआ कि आर्थिक स्वतंत्रता का सीधा संबंध निजी जीवन में आज़ादी से है। गांव से शहर में पढ़ने आई लड़कियों को सुरक्षा के नाम पर रिश्तेदारों के घर रखा जाता है, जहां कई बार उन्हें मानसिक और शारीरिक शोषण सहना पड़ता है। मेरा अनुभव भी अलग नहीं था।
मैं सुबह 8 बजे कॉलेज निकलती और शाम 4 बजे लौटने के बाद ट्यूशन पढ़ाती थी। लेकिन, फिर भी मुझे शाम 5 बजे के बाद बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी। धीरे-धीरे यह माहौल मेरे लिए दम घोंटने वाला बन रहा था। एक दिन हिम्मत कर मैंने अलग रहने का फैसला किया। मेरी माँ ने मेरा समर्थन किया, लेकिन इसपर रिश्तेदारों के ताने भी मिले। माँ हमेशा कहती थीं, “इन सबका जवाब तुम्हारी डिग्रियां देंगी,” और यही मुझे हिम्मत देता रहा। मुझे नारीवादी सोच ने समाज के रूढ़िवादी दायरों से अलग रखा। वहीं, मेरी योग्यताएं मुझे स्वाभिमान और आज़ादी देती है। मैंने सीखा कि अगर हम समाज के बने-बनाए सांचे में फिट नहीं होते, तो भी कई जगह हमारे लिए खुली होती हैं, जहां हम आत्मनिर्भर होकर खड़े हो सकते हैं।