इतिहास बिनोदिनी दासी: भारत की पहली महिला थिएटर सुपरस्टार| #IndianWomenInHistory

बिनोदिनी दासी: भारत की पहली महिला थिएटर सुपरस्टार| #IndianWomenInHistory

रंगमंच ने बिनोदिनी को न केवल आज़ादी दी बल्कि उन्हें एक ऐसा समुदाय भी दिया, जहां दोस्ती, प्रतिस्पर्धा और सहयोग था। उनके थिएटर में आने की प्रेरणा एक गायिका गंगामनी थीं, जो स्टार थिएटर की प्रसिद्ध कलाकार बनीं। वे दोनों एक-दूसरे को "गोलाप" (गुलाब) कहकर बुलाती थीं, जो उनके गहरे रिश्ते को दिखाता था।

भारतीय थिएटर के इतिहास में महिलाओं की भूमिका अक्सर पुरुषों के पीछे छिपी रही है। लेकिन अगर इस इतिहास को ध्यान से देखें, तो यह महिलाओं के संघर्ष, उनकी प्रतिभा और साहस के बिना अधूरा लगता है। खासकर बंगाली रंगमंच की बात करें तो नोटी बिनोदिनी वह नाम है जिसने अपने अद्वितीय अभिनय और अटूट संकल्प से इस इतिहास में अमिट छाप छोड़ी। उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत में, महिलाओं का थिएटर में प्रवेश लगभग असंभव माना जाता था। समाज ने “सम्मानित” महिलाओं को मंच से दूर रखा, और केवल सेक्स वर्क से आई महिलाओं को ही इसमें स्थान मिला। लेकिन बिनोदिनी ने इन सामाजिक बाधाओं को तोड़ते हुए न केवल रंगमंच पर अपनी जगह बनाई बल्कि उसे एक नई ऊंचाई भी दी। गिरीश चंद्र घोष, जो बंगाली रंगमंच के स्तंभ माने जाते हैं, ने बिनोदिनी की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें “मंच की आत्मा” कहा। बिनोदिनी सिर्फ एक अभिनेत्री नहीं थीं, बल्कि वे उन महिलाओं की मिसाल बनीं जो अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रही थीं।

बचपन और रंगमंच की शुरुआत

तस्वीर साभार: Wikicommons

बिनोदिनी का जन्म साल 1863 में कोलकाता में हुआ था। उन्होंने 11 साल की उम्र में पहली बार मंच पर अभिनय किया। बिनोदिनी ने अपना बचपन कोलकाता के 145, कॉर्नवालिस स्ट्रीट में अपनी दादी, माँ और छोटे भाई के साथ बिताया। यह घर उनकी मातृकुल से विरासत में मिला था और उनके अंतिम दिनों तक उनके पास रहा। उनके बचपन के दिन गरीबी और मानसिक संघर्ष से घिरे रहे, खासकर उनके छोटे भाई की मृत्यु के बाद, जिसने उन्हें गहरे आघात में डाल दिया। उनके गुरु गिरीश चंद्र घोष थे, जिन्होंने उनकी प्रतिभा को तराशा। उनके अभिनय ने न केवल दर्शकों को प्रभावित किया बल्कि प्रसिद्ध लेखक बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने भी उनकी प्रशंसा की। सबसे बड़ा सम्मान उन्हें तब मिला जब उन्होंने “श्री चैतन्य” की भूमिका निभाई और श्री रामकृष्ण परमहंस से आशीर्वाद प्राप्त किया। उन्हें लगा कि यह आशीर्वाद उनके जीवन के संघर्षों को कम करेगा।

बिनोदिनी ने अपनी आत्मकथा में उस संघर्ष को दर्ज किया है, जिससे थिएटर में काम करने वाली महिलाओं को गुजरना पड़ता था। अभिनय उनके लिए केवल एक कला नहीं, बल्कि आत्म-अभिव्यक्ति और पहचान का माध्यम था।

उन्नीसवीं सदी में थिएटर में महिलाओं की भूमिका पुरुष निभाते थे। बाद में, ब्रिटिश थिएटर से प्रेरित होकर, भारतीय रंगमंच में भी महिलाओं को मंच पर स्थान मिला। लेकिन शुरुआती दौर में अधिकतर अभिनेत्रियां समाज के हाशिए पर थीं और उन्हें ‘सार्वजनिक महिलाएं’ कहा जाता था। धीरे-धीरे, इन महिलाओं ने अपने अभिनय और मेहनत से थिएटर में अपनी पहचान बनाई। बंगाली थिएटर में 1870 के दशक में जब पुरुषों द्वारा महिला किरदार निभाने की परंपरा खत्म हुई, तब असली महिलाओं को मंच मिला।

बिनोदिनी का सपना और ‘बिनोदिनी मंच’

आज, उनकी मृत्यु के वर्षों बाद, कोलकाता के ऐतिहासिक स्टार थिएटर का नाम बदलकर ‘बिनोदिनी मंच’ किया गया है। यह सिर्फ एक इमारत का नामकरण नहीं, बल्कि उन अनगिनत महिलाओं के योगदान का सम्मान है, जिन्होंने समाज की बंदिशों को तोड़कर थिएटर को समृद्ध किया। बिनोदिनी ने अपनी आत्मकथा में उस संघर्ष को दर्ज किया है, जिससे थिएटर में काम करने वाली महिलाओं को गुजरना पड़ता था। अभिनय उनके लिए केवल एक कला नहीं, बल्कि आत्म-अभिव्यक्ति और पहचान का माध्यम था। हालांकि, समाज ने उन्हें बार-बार नीचा दिखाने की कोशिश की। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि उन्होंने अपने जन्म के लिए कई बार माफी मांगी, लेकिन अपने अभिनय पर उन्हें हमेशा गर्व रहा।

रंगमंच की दोस्ती, थिएटर में बदलाव और उनकी भूमिका

तस्वीर साभार: Wikicommons

जब बिनोदिनी नौ साल की थीं, तो उनकी माँ ने उन्हें गंगा बैजी से संगीत सीखने के लिए प्रेरित किया, जो उस समय उनके साथ रह रही थीं और एक प्रसिद्ध गायिका और पेशेवर रंगमंच कलाकार थीं। गंगामोनी, जैसा कि बिनोदिनी उन्हें बुलाती थीं, उन्हें अपनी संगीत अभ्यास और रिहर्सल सत्रों में साथ ले जाती थीं। गंगा और उनके रंगमंच साथियों को देखते हुए, बिनोदिनी को गीतिनाट्य (ऑपेरा) और “सीता वनवास” जैसे नाटकों से परिचित होने का अवसर मिला। बिनोदिनी ने 1870 के दशक की शुरुआत में कलकत्ता में दो प्रमुख रंगमंचों का उल्लेख किया—श्री भुवनमोहन नेगी का ग्रेट नेशनल थिएटर और शरतचंद्र घोष का बंगाल थिएटर। बिनोदिनी का मंच पर पहला अभिनय “बेनी संहार” (द ब्राइड की बांधने) नामक नाटक में एक छोटी भूमिका थी, जो नेशनल थिएटर द्वारा प्रस्तुत किया गया था। हालांकि, बिनोदिनी की पहली महत्वपूर्ण भूमिका “हेमलता” थी, जो हारलाल राय के नाटक “हेमलता” में थी। अपनी आत्मकथा में बिनोदिनी ने नाटक के अभ्यास सत्रों और ड्रेस रिहर्सल्स के बारे में विस्तार से बात की है, जो नाट्य मंदिर में आयोजित किए जाते थे।

उनके गुरु गिरीश चंद्र घोष थे, जिन्होंने उनकी प्रतिभा को तराशा। उनके अभिनय ने न केवल दर्शकों को प्रभावित किया बल्कि प्रसिद्ध लेखक बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने भी उनकी प्रशंसा की। सबसे बड़ा सम्मान उन्हें तब मिला जब उन्होंने “श्री चैतन्य” की भूमिका निभाई और श्री रामकृष्ण परमहंस से आशीर्वाद प्राप्त किया।

रंगमंच ने बिनोदिनी को न केवल आज़ादी दी बल्कि उन्हें एक ऐसा समुदाय भी दिया, जहां दोस्ती, प्रतिस्पर्धा और सहयोग था। उनके थिएटर में आने की प्रेरणा एक गायिका गंगामनी थीं, जो स्टार थिएटर की प्रसिद्ध कलाकार बनीं। वे दोनों एक-दूसरे को “गोलाप” (गुलाब) कहकर बुलाती थीं, जो उनके गहरे रिश्ते को दिखाता था। बंगाल में थिएटर सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि राष्ट्रवादी विचारधारा को मजबूत करने का माध्यम भी था। महिला कलाकारों की जरूरत दो कारणों से महसूस की गई—थिएटर को कला के रूप में स्थापित करने और इसे आर्थिक रूप से सफल बनाने के लिए। बिनोदिनी इस बदलाव का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनीं। उन्होंने समाज की रूढ़ियों को चुनौती दी और साबित किया कि महिलाएं भी रंगमंच का अभिन्न हिस्सा बन सकती हैं। धीरे-धीरे, थिएटर में महिलाओं की स्थिति बदली और वे समाज में अपनी पहचान बनाने लगीं। बिनोदिनी और उनके जैसी कई अभिनेत्रियों ने यह साबित किया कि थिएटर केवल पुरुषों की दुनिया नहीं है।

उनकी विरासत

बिनोदिनी ने अपनी आत्मकथा ‘अमर कथा’ (1913) में अपने संघर्ष और थिएटर में महिलाओं की स्थिति का वर्णन किया। उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने गरीबी और मानसिक आघात के बीच अपना जीवन बिताया। उनके घर में कई किरायेदार थे, जिनका व्यवहार उन्हें पसंद नहीं था। नोटी बिनोदिनी भारतीय थिएटर की एक अद्वितीय और प्रेरणादायक शख्सियत थीं। उन्होंने न केवल अभिनय किया, बल्कि समाज की रूढ़ियों को तोड़ते हुए थिएटर में महिलाओं के लिए एक नई राह बनाई। उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि कला सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव का माध्यम भी हो सकती है। आज भी उनकी कहानी महिलाओं के संघर्ष और उपलब्धियों का प्रतीक बनी हुई है। उनकी विरासत हमें यह सिखाती है कि साहस और प्रतिबद्धता के साथ कोई भी बाधा पार की जा सकती है।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content