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समाजख़बर भारत में धार्मिक असहिष्णुता: त्योहारों के बहाने बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा

भारत में धार्मिक असहिष्णुता: त्योहारों के बहाने बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा

व्यक्ति की हत्या भारत में बढ़ती सांप्रदायिक दुश्मनी की एक और भयावह तस्वीर पेश करती है। मॉब लिंचिंग सामूहिक तौर पर हिंसा का एक क्रूर रूप है। यह तब तक नहीं हो सकता जब तक कि किसी समाज में बड़ी संख्या में लोग यह न मान लें कि वास्तविक या कथित दुश्मन के खिलाफ़ सामूहिक हिंसा का समय आ गया है।

भारत में धार्मिक असहिष्णुता की बढ़ती घटनाओं का एक दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण हाल ही में देखने को मिला, जब उत्तर प्रदेश के लखनऊ में एक मुस्लिम व्यक्ति की भीड़ ने पीट-पीटकर हत्या इसलिए कर दी क्योंकि उसे होली के त्योहार में भाग लेने से इनकार किया था। घटना होली के दिन की है, जब व्यक्ति नमाज़ अदा करने के लिए मस्जिद जा रहा था। रास्ते में कुछ लोगों ने उसे रंग लगाने की कोशिश की, जिसका उसने विरोध किया। यह विरोध जल्द ही हिंसक झड़प में बदल गई, और भीड़ ने उसे बेरहमी से पीटा। बाद में कुछ लोगों ने उसे बचाकर पानी पिलाया, लेकिन थोड़ी ही देर में वह बेहोश हो गया और उसकी मौत हो गई। बता दें कि इस साल होली का त्योहार रमज़ान के महीने में पड़ा था, जो कई वर्षों बाद हुआ था। इससे पहले इस विषय पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कुछ नेताओं और अधिकारियों ने बयान दिए थे, जिसमें मुसलमानों को सलाह दी गई थी कि अगर उन्हें रंगों से परहेज है तो वे घर से बाहर न निकलें। इन बयानों ने भी धार्मिक तनाव को और भड़का दिया, जिसका परिणाम था कि व्यक्ति की हत्या कर दी गई।

यह घटना केवल एक हत्या नहीं, बल्कि भारत में अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों, के खिलाफ़ बढ़ती हिंसा और नफरत का प्रतीक है। मौजूदा राजनीतिक माहौल में अल्पसंख्यक समूह लगातार हेट क्राइम, लिंचिंग और राज्य प्रायोजित उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं। व्यक्ति की हत्या भारत में बढ़ती सांप्रदायिक दुश्मनी की एक और भयावह तस्वीर पेश करती है। मॉब लिंचिंग सामूहिक तौर पर हिंसा का एक क्रूर रूप है। यह तब तक नहीं हो सकता जब तक कि किसी समाज में बड़ी संख्या में लोग यह न मान लें कि वास्तविक या कथित दुश्मन के खिलाफ़ सामूहिक हिंसा का समय आ गया है। इसलिए, लिंचिंग हिंसा के एक सहज कृत्य के रूप में दिखाई दे सकती है या भ्रामक रूप से पेश की जा सकती है। लेकिन वास्तव में, यह एक निरंतर घृणा, अभियान और संगठित प्रचार का परिणाम है, जिसमें मेनस्ट्रीम मीडिया भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। लिंचिंग एक समुदाय का सामूहिक अपमान भी है। जब किसी विशेष समुदाय के व्यक्ति की लिंचिंग की जाती है, तो उस समुदाय के अन्य सभी सदस्यों को यह संदेश दिया जाता है कि वे कमजोर हैं और उन्हें बहुमत की इच्छा के आगे झुकना चाहिए।

लिंचिंग एक समुदाय का सामूहिक अपमान भी है। जब किसी विशेष समुदाय के व्यक्ति की लिंचिंग की जाती है, तो उस समुदाय के अन्य सभी सदस्यों को यह संदेश दिया जाता है कि वे कमजोर हैं और उन्हें बहुमत की इच्छा के आगे झुकना चाहिए।

देश में बढ़ता धार्मिक असहिष्णुता

तस्वीर साभार: ORF

पिछले कुछ वर्षों से, भारत में धार्मिक असहिष्णुता का न सिर्फ उदय हुआ है बल्कि तेजी से बढ़ा है। एक ऐसे देश में जो खुदको धर्मनिरपेक्ष बताती है, धार्मिक उग्रवाद में खतरनाक वृद्धि जारी है जो मुख्य रूप से हिंदुत्व विचारधारा से उपजी है। मुसलमानों के खिलाफ़ नफरत फैलाने वाले भाषण और लक्षित हिंसा के अलावा भीड़ द्वारा हत्या की घटनाओं की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। धर्मों में त्योहारों का उद्देश्य लोगों के बीच में मेल-मिलाप बढ़ाना था। लेकिन आज उनका इस्तेमाल टकराव पैदा करने के लिए किया जा रहा है। ऐसी पहली बार नहीं है कि होली और रमजान आस-पास हो रहा है। लेकिन, इसे सांप्रदायिकता का रूप देना और आम जनता का उसमें शामिल होना नया दौर है। कट्टरपंथी हिंदू युवा जिन्होंने पिछले दस सालों में मुख्यधारा के टीवी, सोशल मीडिया और प्रिंट मीडिया के बड़े हिस्से के माध्यम से मुस्लिम विरोधी प्रचार में गहरी भागीदारी की है, अब रामनवमी जैसे त्योहारों को मस्जिदों के सामने स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक गीतों के संगीत और बोलों पर नाचकर ‘मनाते’ हैं। ये युवा उन मस्जिदों पर भगवा झंडे लगाने की भी कोशिश करते हैं और लोगों को भड़काने की पूरी कोशिश करते हैं।

क्या त्योहार का मतलब सांप्रदायिकता है?

आज के भारत में, हिंदू चरमपंथियों का कोई भी त्योहार मस्जिदों के सामने डीजे बजाने और नृत्य किए बिना पूरा नहीं होता है। हर त्योहार पर हिंदू चरमपंथी और विशेषकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कार्यकर्ता मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने और उन्हें भड़काने के उद्देश्य से मस्जिदों के ठीक बाहर गाते, नाचते या यहां तक कि होली जैसे त्योहार में मस्जिद पर होली के रंग फेंकते नजर आते हैं। ऐसा लगने लगा है कि त्योहारों के साथ-साथ देश में इस्लामोफोबिया और हिन्दुओं में हिंदुत्व की भावना भी बढ़ने लगी है। हिंदुत्व राजनीतिक जुलूसों में मस्जिदों के बाहर पूरी आवाज में डीजे बजाना हाल ही में सांप्रदायिक तनाव का कारण बन गया है। इसका सबसे ताजा मामला अक्टूबर में उत्तर प्रदेश के बहराइच में हुई हिंसा है। डीजे की आकर्षक बीट्स और ऊंची आवाज़ वाला संगीत गीतों को तब तक लगभग डुबो देता है, जब तक आप उन्हें वास्तव में नहीं सुन लेते। एक बार जब आप उन्हें सुन लेते हैं, तो अक्सर गीतों को भूलना मुश्किल होता है क्योंकि कई गाने मुस्लिम विरोधी बयानबाजी से भरे होते हैं।

कट्टरपंथी हिंदू युवा जिन्होंने पिछले दस सालों में मुख्यधारा के टीवी, सोशल मीडिया और प्रिंट मीडिया के बड़े हिस्से के माध्यम से मुस्लिम विरोधी प्रचार में गहरी भागीदारी की है, अब रामनवमी जैसे त्योहारों को मस्जिदों के सामने स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक गीतों के संगीत और बोलों पर नाचकर ‘मनाते’ हैं।

हालिया मामले में भी, महाराष्ट्र में कई हिंदू श्रद्धालुओं ने शिमगा उत्सव मनाते समय रत्नागिरी में एक मस्जिद के द्वार पर जबरन प्रवेश करने का प्रयास करने का एक वीडियो सोशल मीडिया पर सामने आया है। यह उत्सव कोंकण क्षेत्र में होली से एक दिन पहले मनाया जाता है। फुटेज में रत्नागिरी जिले के कई श्रद्धालुओं को शिमगा मनाते हुए दिखाया गया है, जिसमें वे एक बड़ी लकड़ी की संरचना के साथ राजापुर में जामा मस्जिद के गेट में घुसने की कोशिश कर रहे हैं। वहां पर मौजूद पुलिसकर्मी भी मूकदर्शक बने हुए खड़े दिखाई दे रहे हैं। शायद जो लोग त्योहारों को धार्मिक बंधनों में बांधना चाहते हैं, उन्हें 13वीं सदी के सूफी कवि और रहस्यवादी अमीर खुसरो के अपने आध्यात्मिक गुरु हजरत निजामुद्दीन औलिया के लिए गाई गई कव्वाली ‘आज रंग है’ याद होगी। किंवदंती है कि खुसरो होली के दिन अपने गुरु से मिले थे और उनके सम्मान में कव्वाली लिखी थी। अमीर खुसरो की ‘होली कव्वाली’ आत्मा द्वारा ईश्वर के साथ मिलन में आनंद, अर्थ और शांति पाने का एक उल्लासमय गीत है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए इंद्रजीत सिन्हा

सूफी परंपरा में सभी के प्रति सादगी, दयालुता और उदारता पर जोर दिया जाता है, चाहे वह किसी भी धर्म का हो। उनके लिए ईश्वर के प्रति प्रेम का अर्थ मानवता के प्रति प्रेम है। पिछले एक दशक में, नेताओं द्वारा मुसलमानों के खिलाफ़ नफरत फैलाने वाले भाषण और बहुसंख्यक के लक्षित हिंसा के अलावा मॉब लिन्चिंग जैसी घटनाओं की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। स्थानीय कट्टरपंथी मुसलमानों को विदेशी तत्वों के रूप में पेश करके इस दृष्टिकोण को उचित ठहराते हैं, जो अपनी मातृभूमि के खिलाफ खड़े हैं। त्योहारों पर हिंसा की दुखद घटनाओं के बाद धार्मिक अवसर सांस्कृतिक प्रभुत्व बनाए रखने के साधन बन गए हैं। होली का त्योहार भी अब उन मुसलमानों के खिलाफ़ सांप्रदायिक उत्पीड़न के साधन के रूप में काम करता है जो त्योहार की गतिविधियों में भाग नहीं लेते हैं क्योंकि वे अक्सर हमलों या उत्पीड़न का सामना करते हैं। देश में अल्पसंख्यकों को खतरनाक परिणामों का सामना करना पड़ता है, जब वे समुदाय में जारी प्रवृत्ति के रूप में बहुसंख्यक परंपराओं का पालन करने में विफल रहते हैं।

शायद जो लोग त्योहारों को धार्मिक बंधनों में बांधना चाहते हैं, उन्हें 13वीं सदी के सूफी कवि और रहस्यवादी अमीर खुसरो के अपने आध्यात्मिक गुरु हजरत निजामुद्दीन औलिया के लिए गाई गई कव्वाली ‘आज रंग है’ याद होगी। किंवदंती है कि खुसरो होली के दिन अपने गुरु से मिले थे और उनके सम्मान में कव्वाली लिखी थी।

अल्पसंख्यकों के खिलाफ व्यवस्थित उत्पीड़न

भारतीय अल्पसंख्यकों के खिलाफ बहुसंख्यकों और सरकार द्वारा व्यवस्थित उत्पीड़न का एक परेशान करने वाला पैटर्न अपनाया जा रहा है। भारत सरकार द्वारा लागू नागरिकता संशोधन अधिनियम और बुलडोजर न्याय नीति मुस्लिम शरणार्थियों से लड़ती है, जबकि मुस्लिमों के स्वामित्व वाली संपत्तियों को ध्वस्त करने की कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार करती है। भारतीय मुस्लिम आबादी आर्थिक भेदभाव और सामाजिक उत्पीड़न के साथ-साथ शारीरिक हमलों को भी झेलती है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से नफ़रत भरी गतिविधियों के साथ-साथ धार्मिक सीमा प्रथाओं के साथ-साथ आर्थिक बहिष्कार के प्रयासों ने समुदाय के सदस्यों के लिए जीवित रहने की कठिनाइयों को बढ़ा दिया है। इसमें उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा इस साल के कांवड़ यात्रा के मार्ग पर सड़क किनारे लगने वाले ठेलों सहित सभी भोजनालयों से मालिकों या स्वामियों के नाम प्रदर्शित करने को कहा है।

मीडिया की भूमिका

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

मुख्यधारा के मीडिया से समाज में चले जा रहे गलत के खिलाफ़ निगरानी रखने की अपेक्षा की जाती है, और सरकार से जरूरी सवाल पूछने की उम्मीद की जाती है। लेकिन, आम तौर पर मेनस्ट्रीम मीडिया मुसलमानों को हिंसा का कारण बताते हुए ख़तरनाक उपद्रवी के रूप में चित्रित करके दुष्प्रचार कर रहे हैं। भारत में एक-दूसरे के प्रति नफरत, शत्रुता, ईर्ष्या और जलन बढ़ाने में मीडिया एक बड़ी भूमिका निभाती नजर आती है। भारत के सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे को नष्ट करके समाज को धार्मिक आधार पर बांटने का दोष कथित तौर पर मेनस्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया को जाता है। पिछले कुछ सालों से ऐसा लग रहा है कि मीडिया औपचारिक पार्टी बनकर देश के मुसलमानों के खिलाफ नफरत का अभियान चला रहा है। चाहे शादी हो, तलाक हो या बहुविवाह, बढ़ती आबादी के मुद्दे पर चर्चा हो या कोविड-19 के संक्रमण को रोकने का अभियान हो, इन सभी मामलों में मीडिया एकतरफा भूमिका निभाती नजर आई है।

अब नौबत यहां तक ​​आ गई है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में होने वाली किसी भी घटना को इस्लाम और मुसलमानों से जोड़कर अल्पसंख्यकों के खिलाफ तस्वीर पेश करने की पुरजोर कोशिश होती है। नैशनल मीडिया पर मुसलमानों को दंगई और आतंकवादी जैसे नामों से पुकारा जाता है। भारत में कट्टर हिन्दुत्व विचारधारा के प्रति बढ़ते रुझान ने न सिर्फ मुस्लिम बल्कि अन्य अल्पसंख्यकों को खतरे और शक की नजरों से देखा है। देश के लोकतंत्र, सामासिक संस्कृति, सांप्रदायिक सद्भाव, राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय अखंडता की मांग है कि मीडिया द्वारा देश के अल्पसंख्यकों के खिलाफ इस विचारधारा को जल्द से जल्द समाप्त किया जाए। लोगों को भी यह समझने की जरूरत है किसी एक का धर्म या धार्मिक विचारधारा किसी दूसरे के लिए समस्या का कारण नहीं बनना चाहिए। एक लोकतान्त्रिक देश में सभी को अपने विचार खुलकर सामने रखने की छूट और सुरक्षा होनी चाहिए।

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