कुछ समय पहले एक दोस्त से मेरी बात हो रही थी। उस दोस्त का कहना था कि पैसा अपने साथ एक क़िस्म की ताकत लेकर आता है। जब आप अच्छा कमाते हो तो घर में आपका मूल्य और सम्मान बढ़ जाता है। अगर महिलाएं ज़्यादा कमाएंगीं तो परिवार में उनका रुतबा बढ़ जाएगा। आम धारणा के उलट, अगर इस बात पर गौर करें, तो किसको सामाजिक तौर पर कितना सम्मान मिलता है इसके पीछे बहुत से कारक काम करते हैं। वास्तव में नौकरीपेशा महिलाओं को समाज और परिवार कितना महत्त्व देते हैं, इसे समझने के लिए न सिर्फ आंकड़ों पर ध्यान देने की जरूरत है बल्कि नौकरीपेशा महिलाओं के अनुभवों को समझने को दर्ज करने की ज़रूरत है। आज से कुछ साल पहले तक नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी काफ़ी कम थी। लेकिन अब पहले की अपेक्षा कई महिलाएं नौकरीपेशा हैं।
वे घर के खर्चों में भी योगदान दे रही हैं। उनमें से कुछ ऐसी भी हैं, जो अपने घर में इकलौती कमानेवाली हैं और उन्हीं के कमाए पैसों से घर चलता है। हाल ही में गोडैडी के किए गए एक अध्ययन के मुताबिक 37 प्रतिशत महिलाएं लघु व्यवसायों की मालिक हैं और अपने घरों की प्राथमिक कमानेवाली हैं। यह अध्ययन बताता है कि महिलाएं छोटे उद्यमों के ज़रिए नेतृत्व वाली भूमिकाओं में आ रही हैं। वे न केवल नए-नए कौशल सीख रही हैं बल्कि आर्थिक रूप से अपने परिवारों का भी समर्थन कर रही हैं। ऐसे परिदृश्य में हमें यह समझना होगा कि क्या सच में कमाने से महिलाओं को उतनी ही इज़्ज़त और मान-सम्मान मिल जाता है, जितना आम तौर पर पुरुषों को मिलता है? क्या सच में कमाने पर वे घर से जुड़े फ़ैसले ले सकती हैं और उनके फ़ैसलों को महत्त्व दिया जाता है? क्या नौकरीपेशा होने पर घर-परिवार और समाज की नज़र में उनकी इज़्ज़त बढ़ जाती है? इसे समझने के लिए फेमिनिज़म ऑफ़ इंडिया ने कुछ महिलाओं से बात की।
अगर एक महिला और पुरुष एक ही ओहदे पर हैं तो अक्सर यह मान लिया जाता है कि पुरुष के पास महिला की तुलना में बेहतर कौशल होंगे। इस मानसिकता के चलते टीम में शामिल लोग उनसे ऊपर के ओहदे पर मौजूद महिला, जो असल में पुरुष के बराबर की ही योग्यता रखती है, के बजाए उनसे ऊपर के ओहदे पर मौजूद पुरुष की राय लेना और उनसे सलाह लेना ज़्यादा पसन्द करते हैं।
महिलाओं की राय को महत्त्व न देना

परिवारों में वैसे तो ज़्यादातर मामलों में महिलाओं की कोई राय नहीं ली जाती, फिर चाहे वो कोई अशिक्षित घरेलू महिला हो या फिर पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा महिला। परिवार के सदस्य उनकी राय को कुछ खास महत्त्व नहीं देते। यह मान लिया जाता है कि कुछ मुद्दों पर उन्हें बिल्कुल जानकारी या ज्ञान नहीं है। इस बारे में महाराष्ट्र के सोलापुर की रहनेवाली ज्योति पटाले कहती हैं, “अगर घर में केवल दो ही बेटियां हों, बेटा हो ही नहीं और दोनों बेटियां नौकरीपेशा हों तो भी परिवार के सदस्य ज़मीन-ज़ायदाद से जुड़े मसलों और निवेश से जुड़े मसलों पर यही मानते हैं कि हमें इनके बारे में क्या ही पता होगा।”
ज्योति की एक बहन और है उन्होंने बताया कि परिवार में उनसे और उनकी बहन से इन मसलों पर कोई चर्चा नहीं की जाती। ज्योति ने एक दो बार अपने घर की डिज़ाइन में बदलाव को लेकर भी घरवालों को कुछ सुझाव दिए और उनकी राय पर उनके घरवालों का कहना था कि उन्हें इस घर के बारे में सोचने की ज़रूरत नहीं है। ज्योति का अनुभव दिखाता है कि घरवालों के मन में यह रचा-बसा रहता है कि बेटी का घर तो उसका ससुराल है। उसके माता-पिता ख़ुद उसके निर्णयों और उसकी राय को उतना महत्त्व नहीं देते, जितना बेटे की राय और निर्णयों को दिया जाता है।
हाल ही में गोडैडी के किए गए एक अध्ययन के मुताबिक 37 प्रतिशत महिलाएं लघु व्यवसायों की मालिक हैं और अपने घरों की प्राथमिक कमानेवाली हैं। यह अध्ययन बताता है कि महिलाएं छोटे उद्यमों के ज़रिए नेतृत्व वाली भूमिकाओं में आ रही हैं। वे न केवल नए-नए कौशल सीख रही हैं बल्कि आर्थिक रूप से अपने परिवारों का भी समर्थन कर रही हैं।
घर के ख़र्चों में हिस्सेदारी के बाद भी भेदभाव का सामना
कानपुर की रहनेवाली एकता (बदला हुआ नाम) एक प्राइवेट कंपनी में काम करती हैं। उनका भाई भी नौकरी करता है। एकता बताती हैं, “मैं घर के काम भी करती हूं और घर के ख़र्चों में भाई से दोगुना योगदान करती हूं। भाई घर के कामों में मेरी कोई मदद नहीं करता, उल्टा रौब जमाता है। घर पर काफ़ी पैसा ख़र्च करने के बावजूद घर में मेरा वो स्थान नहीं जो भाई का है। मुझसे किचन के काम करने की ज़्यादा अपेक्षा रहती है। मैं जब घर में नहीं रहती तो माँ इन कामों को करती है, भाई नहीं।” एकता ने आगे बताया कि उसके घरवाले उससे ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उसे नौकरी करने देकर वे उस पर कोई एहसान कर रहे हैं और उनके भाई के मामले में यह मान लिया जाता है कि कमाना तो उसका काम है। एकता के अनुभव से पता चलता है कि अधिकतर घरों में नौकरीपेशा महिलाओं को घर-परिवार में उस तरह की सहूलियत नहीं मिलती, जैसा नौकरीपेशा पुरुषों को मिलता है। महिलाओं के मामले में यह अपेक्षा रहती है कि वे किचन से जुड़े काम भी करें और इन्हीं कामों को करते हुए जैसे-तैसे अपनी नौकरी करें।
अगर घर में केवल दो ही बेटियां हों, बेटा हो ही नहीं और दोनों बेटियां नौकरीपेशा हों तो भी परिवार के सदस्य ज़मीन-ज़ायदाद से जुड़े मसलों और निवेश से जुड़े मसलों पर यही मानते हैं कि हमें इनके बारे में क्या ही पता होगा।” ज्योति की एक बहन और है उन्होंने बताया कि परिवार में उनसे और उनकी बहन से इन मसलों पर कोई चर्चा नहीं की जाती।
क्या कार्यस्थल पर महिलाओं के नेतृत्व की अहमियत है

आज के समय में महिलाएं कई नेतृत्व वाले पदों पर काम करती हैं। उनमें से कई महिलाओं में औरों का मार्गदर्शन करने की असाधारण क्षमता है। लेकिन क्या उन्हें घरों और दफ्तरों में पुरुषों के बराबर के अवसर और सम्मान मिल रहा है? इस बारे में अलवर, राजस्थान स्थित एक गैर सरकारी संगठन के साथ काम कर रही खुर्शीदा परवीन कहती हैं, “अगर एक महिला और पुरुष एक ही ओहदे पर हैं तो अक्सर यह मान लिया जाता है कि पुरुष के पास महिला की तुलना में बेहतर कौशल होंगे। इस मानसिकता के चलते टीम में शामिल लोग उनसे ऊपर के ओहदे पर मौजूद महिला, जो असल में पुरुष के बराबर की ही योग्यता रखती है, के बजाए उनसे ऊपर के ओहदे पर मौजूद पुरुष की राय लेना और उनसे सलाह लेना ज़्यादा पसन्द करते हैं।”
कामकाजी महिला का भी क्यों नहीं है महत्व
जहां कुछ परिवार ऐसे हैं जो घर ख़र्च का बोझ तो काफ़ी हद तक कमानेवाली बेटी पर डाल देते हैं, लेकिन उसे सम्मान नहीं देते। वहीं ऐसे परिवार भी हैं जो बेटी के पैसे को इस्तेमाल करने से पूरी तरह इंकार कर देते हैं। इस मामले में ज्योति अपनी एक दोस्त का उदाहरण देते हुए बताती हैं, “मेरी दोस्त अच्छा कमाती है, हमेशा टॉपर रही है और फिलहाल अच्छे ओहदे पर है। इस बार उसने माता-पिता से अपने पैसे लगाकर घर को रिनोवेट करने की बात की। इसपर उसके माता-पिता ने जवाब दिया कि क्योंकि वह इस घर में नहीं रहनेवाली है, इसलिए उसे इस घर के बारे में सोचने की कोई ज़रूरत नहीं है।” ज्योति बताती हैं कि कि इसपर उसकी दोस्त को बहुत बुरा महसूस हुआ था। बेटी के कमाए पैसों को लेकर समाज में और भी तरह-तरह की सोच प्रचलित है। जहां समाज बेटे की कमाई का महिमामण्डन करता है वहीं ऐसे घर जिनमें कोई महिला ही पूरे घर का खर्च चला रही है, उन्हें ‘औरत की कमाई पर पलनेवाले’ कहकर नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है।

असल में ये दोनों ही दृष्टिकोण समस्याजनक हैं। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि नौकरीपेशा महिलाओं की संख्या बढ़ तो रही है और वे घर के ख़र्चे वहन कर रही हैं और कार्यक्षेत्र में महत्त्वपूर्ण निर्णयों में अहम योगदान भी दे रही हैं। लेकिन इसके बाद भी अक्सर उन्हें पुरुषों के बराबर सम्मान और हैसियत नहीं मिलती। केवल परिवार में ही नहीं उनके कार्यक्षेत्र में भी उनकी निर्णय लेने और नेतृत्व की क्षमता को सन्देह की नज़रों से देखा जाता है। असल बराबरी तभी संभव है जब नौकरी में महिलाओं का न केवल उनकी आर्थिक भागीदारी के लिए, बल्कि वैचारिक रूप से स्वतंत्र और निर्णय लेने में कुशल व्यक्ति के तौर पर सम्मान किया जाए—चाहे घर हो या कार्यस्थल पर। मानसिकता में बदलाव आवश्यक है और महिलाओं की कमाई को उनकी गरिमा कम किए बिना और रूढ़िवादिता को बढ़ावा दिए बिना महत्त्व दिया जाना चाहिए। तभी एक बेहतर और ऐसा समाज बनाया जा सकता है, जहां स्त्री और पुरुष दोनों की नौकरियों और उनकी आर्थिक भागीदारी को बराबर महत्त्व दिया जाता हो।