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ग्राउंड ज़ीरो से पितृसत्ता और असुरक्षा के बीच महिला स्ट्रीट वेंडर्स की चुनौतियां

पितृसत्ता और असुरक्षा के बीच महिला स्ट्रीट वेंडर्स की चुनौतियां

स्ट्रीट वेंडर्स क्षेत्र में हम अक्सर ऐसा देख सकते हैं कि पुरुष स्ट्रीट वेंडर अपने ठेले शहर के अलग-अलग जगहों पर लगाकर सामान बेचते हैं। वहीं महिला वेंडर्स अक्सर किसी एक स्थायी जगह पर लगातार काम करती हैं। इसके पीछे सुरक्षित कार्यक्षेत्र की कमी होना भी एक कारण है। इसका असर महिला वेंडर्स की आमदनी पर भी पड़ता है। 

एक लंबे समय से पारंपरिक-समाजिक तौर पर जेंडर के आधार पर काम को महिला और पुरुष में बांटा गया है। इसमें महिलाओं का काम सिर्फ घर पर रह कर परिवार, बच्चों  के लिए खाना पकाना, पालना आदि तक ही सीमित रहा है। पुरुषों को घर के बाहर काम करके परिवार को चलाने की हमेशा से आजादी रही है। इतना ही नहीं  इतिहास के प्रागैतिहासिक समय से ही महिलाओं को खाना बनाने और बच्चों के पालन- पोषण  के काम में दिखाया गया हैं। वही पुरुषों को शिकार करने वाले के तौर पर लिखा गया हैं। जबकि हाल ही का रिसर्च और पुरततात्विक साक्ष्य दिखाते हैं कि महिलाएं बच्चे पालने और खाना पकाने के साथ पुरुषों की भांति शिकार भी करती थी। इस तरीके से बदलते समय और सामाजिक बदलावों के चलते महिलाएं अपने साहस और सघर्षों से इन पारंपरिक जेंडर के आधार पर  निर्धारित कामों के पीछे की पितृसत्तात्मक सोच को खत्म कर रही  है।

आज लगभग हर क्षेत्र में हिम्मत और लगन से अपनी हिस्सेदारी सुनश्चित कर रही  है। इसमें स्ट्रीट फूड वेंडर महिलाएं एक बेहतरीन उदाराहण है। दिल्ली में स्ट्रीट फूड वेंडर के रूप में काम कर रहीं महिलाएं पारंपरिक जेंडर भूमिकाओं को तोड़ते हुए आत्मनिर्भर बन रही हैं। पहले इस क्षेत्र में पुरुषों का वर्चस्व था, लेकिन अब महिलाएं भी बड़ी संख्या में शामिल हो रही हैं। सेवा दिल्ली के अनुसार, दिल्ली में लगभग तीन लाख स्ट्रीट वेंडर्स हैं, जिनमें एमसीडी के आंकड़ों के अनुसार करीब 30 फीसद महिलाएं हैं। महिलाओं को प्रशासनिक अड़चनों और सुरक्षा संबंधी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। फिर भी, वे हिम्मत से हर दिन काम कर रही हैं और अपने परिवारों को संभालते हुए सामाजिक-आर्थिक रूप से सशक्त बन रही हैं। इन महिलाओं ने अनौपचारिक क्षेत्र में भी अपनी मजबूत मौजूदगी दर्ज कराई है।   

बीस सालों से दिल्ली में हूं। दिल्ली चुनावों में वोट भी करती हूं। लेकिन हमें सरकार की 200 यूनिट फ्री बिजली और पानी किराये के घरों में नहीं मिलता है। मुझे 10 यूनिट के हिसाब से बिजली और पानी का बिल मकान मालिक को देना ही पड़ता है।

अनौपचारिक कार्यक्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी 

पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे 2017-18 के अनुसार देश में  लगभग 11.9 मिलियन स्टीट वेंडर्स  हैं, जिसमें से 1.2 मिलियन महिलाएं  हैं। सिर्फ दिल्ली शहर में 2.7-1.3 फीसद महिलाएं स्ट्रीट वेंडर के रूप में कार्यरत हैं। महिलाएं एक बड़ी संख्या मे अनौपचारिक कार्यक्षेत्र में कार्यरत हैं। महिलाओं की अनौपचारिक कार्यक्षेत्र में समय के साथ बढ़ती संख्या के पीछे उनका सामाजिक-आर्थिक स्थिति एक मुख्य कारण हैं। नैशनल सैम्पल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के हिसाब से देश का लगभग 82 फीसद रोजगार अनौपचारिक कार्यक्षेत्र के अंदर आता है। नैशनल कमिशन ऑफ वुमन (एनसीडब्ल्यू) के सर्वे को देखा जाए तो कुल 94 फीसद कामकाजी महिलाएं  अनौपचारिक कार्यक्षेत्र में कार्यरत है। अनौपचारिक कार्यक्षेत्र में  एक महिला की आमदनी अक्सर पुरुष  की तुलना में काम होती है।

शालू अटवाल, स्ट्रीट फूड विक्रेता, तस्वीर साभार: राखी यादव

स्ट्रीट वेंडर्स क्षेत्र में हम अक्सर ऐसा देख सकते हैं कि पुरुष स्ट्रीट वेंडर अपने ठेले शहर के अलग-अलग जगहों पर लगाकर सामान बेचते हैं। वहीं महिला वेंडर्स अक्सर किसी एक स्थायी जगह पर लगातार काम करती हैं। इसके पीछे सुरक्षित कार्यक्षेत्र की कमी होना भी एक कारण है। इसका असर महिला वेंडर्स की आमदनी पर भी पड़ता है। मिनिस्ट्री ऑफ अर्बन डेवलपमेंट एण्ड पावर्टी अलीवीऐशन के हिसाब से अनौपचारिक कार्यक्षेत्र में पुरुषों की हर दिन के हिसाब से कमाई 70 रुपये हैं। वहीं महिलाएं एक दिन के हिसाब से सिर्फ 50 रुपए ही कमा  पाती हैं। दिल्ली में  एक स्ट्रीट फ़ूड वेंडर के तौर पर काम करते हुए इन महिला वेंडर्स  को बहुत-सी परेशानियों का सामना हर रोज करना पड़ता है, जिसमें विभिन्न सामाजिक, प्रशासनिक और व्यक्तिगत चुनौतियां शामिल हैं। 

मिनिस्ट्री ऑफ अर्बन डेवलपमेंट एण्ड पावर्टी अलीवीऐशन के हिसाब से अनौपचारिक कार्यक्षेत्र में पुरुषों की हर दिन के हिसाब से कमाई 70 रुपये हैं। वहीं महिलाएं एक दिन के हिसाब से सिर्फ 50 रुपए ही कमा  पाती हैं।

हिमाचल प्रदेश की 40 वर्षीय शालू अटवाल दिल्ली में एक स्ट्रीट फ़ूड वेंडर हैं। उनके पति ड्राइवर हैं। शालू अटवाल लगभग तीन साल से दिल्ली के मोतीबाग में  पराठा का ठेला लगा रही है। पहले लोगों के घरों में खाना बनाने का काम करती थी। शालू बताती हैं, “मुझे खाना तैयार करने में  पानी और बिजली की कमी एक समस्या का कारण बनती है। बीस सालों से दिल्ली में हूं। दिल्ली चुनावों में वोट भी करती हूं। लेकिन हमें सरकार की 200 यूनिट फ्री बिजली और पानी किराये के घरों में नहीं मिलता है। मुझे 10 यूनिट के हिसाब से बिजली और पानी का बिल मकान मालिक को देना ही पड़ता है। पिछले साल ही  पानी की समस्या के चलते ही मैंने किराये का घर मोतीबाग के पास मोची गांव से बदलकर मुनीरिका में  ले लिया था। अब मैं मुनीरिका से मोतीबाग ठेला लगाने हर रोज अकेले आती हूं। पानी की समस्या वहां भी है लेकिन कम है।”

दुर्गावती देवी, दिल्ली विश्वविद्यालय साउथ कैंपस, तस्वीर साभार: राखी यादव

दिल्ली शहर में महिला स्ट्रीट वेंडर की समस्यों को जोड़ते हुए शालू अटवाल बताती हैं, “मुझे यहां काम करते वक्त वॉशरूम की समस्या होती है। घर यहां से बहुत दूर है, इसकी वजह से सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक वॉशरूम नहीं जा पाती हूं। दिल्ली नगर निगम के सार्वजनिक वॉशरूम में अक्सर ताले लगे रहते हैं। जब ज्यादा परेशानी होती तो ठेले को छोड़कर पास के गांव में एक रिश्तेदार के घर जाना पड़ता है। बिहार की रहने वाली 48 वर्षीय दुर्गावती देवी दिल्ली में एक फ़ूड वेंडर हैं। साल 1994 से दिल्ली के मोतीबाग की झुग्गियों में रहकर परिवार को चलाने के लिए काम कर रही हैं। पहले कपड़े सिलने का काम करती थी। इसके बाद अब लगभग दस सालों से दिल्ली विश्वविधालय के साउथ कॅम्पस के आस-पास खाने का ठेला लगा रही हैं। दुर्गावती देवी बताती हैं,  “प्रशासन की ओर से परेशानियां तो बहुत होती हैं, जब टाइम से महीना का पैसा नहीं दे पाती हूं। नगर निगम वाले जब आते हैं तो ठेला लेकर भागना पड़ता है, नहीं तो ठेला ही ले जाते हैं। फिर तीन या चार हजार रुपये देकर ठेला छुड़वाना पड़ता है।” 

मुझे यहां काम करते वक्त वॉशरूम की समस्या होती है। घर यहां से बहुत दूर है, इसकी वजह से सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक वॉशरूम नहीं जा पाती हूं। दिल्ली नगर निगम के सार्वजनिक वॉशरूम में अक्सर ताले लगे रहते हैं। जब ज्यादा परेशानी होती तो ठेले को छोड़कर पास के गांव में एक रिश्तेदार के घर जाना पड़ता है। 

पार्वती देवी, बिहार से हैं और पिछले बारह सालों से दिल्ली में रह रही हैं। दिल्ली के दुर्गा बाई साउथ कैंपस मेट्रो स्टेशन के पास वो शाम को मोमोज का ठेला लगाती हैं। वह बताती हैं, “शुरुआत में मुझे सुरक्षा को लेकर बहुत डर लगता था, लेकिन अब काम करते-करते हिम्मत आ गई है। कॉलेज के बच्चों से बात करते-करते दुनिया की थोड़ी समझ भी बन गई है, तो अब डरती नहीं हूं। समय पर काम खत्म करके घर चली जाती हूं।”

क्या महिला फ़ूड वेंडर्स में स्ट्रीट वेंडर एक्ट को लेकर है जागरूकता

पार्वती देवी, दुर्गाबाई देशमुख साउथ कैंपस मेट्रो स्टेशन, नई दिल्ली, तस्वीर साभार: राखी यादव

48 वर्षीय दुर्गावती देवी, जो दिल्ली में स्ट्रीट फूड वेंडर के तौर पर काम करती हैं, स्ट्रीट वेंडर एक्ट 2014 को लेकर अपनी बात स्पष्ट शब्दों में कहती हैं। वे कहती हैं, “हम जैसे छोटे-मोटे और बिना पढ़े-लिखे लोगों को क्या पता नए कानून के बारे में। हमें तो कुछ समझ ही नहीं आता। मैं बिल्कुल भी पढ़ी-लिखी नहीं हूं, इसलिए सरकारी चीजें समझ में नहीं आती। इसी वजह से प्रशासन और कमेटी (नगर निगम) वाले हमें परेशान करते हैं। हमारे पास न सरकारी कागज़ हैं और न कोई मोहर, जिससे हम साबित कर सकें कि हम यहां कानूनी तौर पर काम कर रहे हैं।” वहीं तमिलनाडु की 27 वर्षीय दीपा, जो बचपन से दिल्ली में रह रही हैं, पहले इडली-डोसा का ठेला लगाती थीं। अब उन्होंने दुकान किराए पर ले ली है। स्ट्रीट वेंडर एक्ट को लेकर दीपा कहती हैं, “मेरे पास सर्टिफिकेट था, फिर भी प्रशासन वाले परेशान करते थे। कुछ दिन पहले मैंने ठेला हटाकर दुकान किराए पर ले ली है, लेकिन फिर भी कभी-कभी प्रशासन से दिक्कत होती है। मैं ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हूं। इसलिए कुछ कर भी नहीं सकती। काम तो करना ही है, अब हर बात पर झगड़ा करेंगे तो और दिक्कत होगी। इसलिए चुपचाप काम करती हूं।”

शुरुआत में मुझे सुरक्षा को लेकर बहुत डर लगता था, लेकिन अब काम करते-करते हिम्मत आ गई है। कॉलेज के बच्चों से बात करते-करते दुनिया की थोड़ी समझ भी बन गई है, तो अब डरती नहीं हूं। समय पर काम खत्म करके घर चली जाती हूं।

दिल्ली की स्ट्रीट फूड वेंडर महिलाएं न केवल रोज़मर्रा की सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों से जूझ रही हैं, बल्कि पितृसत्तात्मक सोच और पारंपरिक जेंडर भूमिकाओं को तोड़ते हुए आत्मनिर्भर बनने की मिसाल भी पेश कर रही हैं। इन महिलाओं की कहानियां यह दिखाती हैं कि शिक्षा, संसाधनों और कानूनी जानकारी की कमी के बावजूद उन्होंने अपने साहस, मेहनत और जज्बे से एक ठोस पहचान बनाई है। लेकिन, प्रशासनिक अड़चनों, असुरक्षा, पानी-बिजली की कमी और सार्वजनिक शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं की अनुपलब्धता के बावजूद वे लगातार अपने परिवारों की जिम्मेदारी निभा रही हैं। यह जरूरी है कि सरकार और स्थानीय प्रशासन इन महिला स्ट्रीट वेंडर्स को सुरक्षित, सम्मानजनक और स्थायी कार्यक्षेत्र उपलब्ध कराए। साथ ही स्ट्रीट वेंडर एक्ट 2014 के तहत उन्हें कानूनी सुरक्षा, प्रमाण पत्र और अधिकारों की जानकारी देकर सशक्त बनाया जाए, ताकि ये महिलाएं न सिर्फ खुद, बल्कि समाज की भी दिशा बदल सकें।

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