समाजकानून और नीति मातृत्व अवकाश मौलिक अधिकार, दो बच्चों की नीति बाधा नहीं: सुप्रीम कोर्ट

मातृत्व अवकाश मौलिक अधिकार, दो बच्चों की नीति बाधा नहीं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाई कोर्ट के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें एक शिक्षिका को उसके तीसरे बच्चे के जन्म के लिए मातृत्व अवकाश देने से मना कर दिया गया था।

कामकाजी महिलाओं के कार्यस्थल अधिकारों पर एक बड़ा फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को मद्रास हाई कोर्ट के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें एक सरकारी स्कूल की शिक्षिका को उसके तीसरे बच्चे के जन्म के लिए मातृत्व अवकाश देने से मना कर दिया गया था। मामले में निर्णय देते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि मातृत्व अवकाश सिर्फ़ निष्पक्षता या सामाजिक न्याय के बारे में नहीं है, बल्कि यह संवैधानिक गारंटी भी है।

जस्टिस अभय एस ओका और उज्जल भुयान की पीठ ने कहा कि मातृत्व अवकाश कामकाजी महिलाओं के स्वास्थ्य और गरिमा को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पीठ ने कहा कि, महिलाएं अब कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा हैं, और उनके साथ सम्मान और गरिमा के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए। मातृत्व अवकाश महिलाओं को ऊर्जा हासिल करने, अपने बच्चे की देखभाल करने और काम के प्रदर्शन को बनाए रखने में मदद करता है। अदालत ने जोर देकर कहा कि गर्भावस्था एक महिला के शरीर और दिमाग दोनों को प्रभावित करती है और मातृत्व और बचपन दोनों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

कामकाजी महिलाओं के कार्यस्थल अधिकारों पर एक बड़ा फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को मद्रास हाई कोर्ट के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें एक सरकारी स्कूल की शिक्षिका को उसके तीसरे बच्चे के जन्म के लिए मातृत्व अवकाश देने से मना कर दिया गया था।

मातृत्व अवकाश पर दो-बच्चे नीति का विरोध

यह घटना एक महिला सरकारी कर्मचारी की है। पहले उसकी शादी हो चुकी थी और उससे दो बच्चे हुए थे। तलाक के बाद दोनों बच्चे अपने पिता के साथ रहने लगे। महिला ने 2018 में दूसरी शादी की और उसके बाद एक और बच्चे को जन्म दिया। सरकारी नौकरी में आने के बाद यह उसका पहला बच्चा था। जब महिला ने अपने विभाग में मातृत्व अवकाश के लिए आवेदन किया, तो उसे यह कहकर मना कर दिया गया कि यह उसका तीसरा बच्चा है। विभाग ने कहा कि राज्य की दो बच्चों की नीति के अनुसार वह मातृत्व लाभ की हकदार नहीं है। महिला ने छुट्टी से इनकार किए जाने के फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। शुरुआत में, मद्रास उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने महिला के पक्ष में फैसला दिया। न्यायमूर्ति वी. पार्थिबन ने कहा कि मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 की धारा 5 यह नहीं कहती कि कोई महिला कितने बच्चों के लिए मातृत्व अवकाश ले सकती है।

रितिका बैनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

यह अधिनियम केवल इस बात पर छुट्टी की अवधि तय करता है कि महिला के दो से कम जीवित बच्चे हैं या नहीं यानी बच्चों की संख्या के आधार पर पूरी छुट्टी से इनकार करना कानून के अनुसार सही नहीं है। न्यायाधीश ने यह भी कहा कि महिला ने अपने पहले दो बच्चों के लिए कोई मातृत्व अवकाश नहीं लिया था, क्योंकि वे उसके सरकारी सेवा में आने से पहले पैदा हुए थे। इसके अलावा, उन्होंने फैसला सुनाया कि भले ही राज्य के सेवा नियम दो बच्चों की सीमा लगाते हों, लेकिन वे मातृत्व लाभ अधिनियम के पक्ष में नहीं हैं और संविधान के अनुच्छेद 254 के तहत यह अमान्य हैं। राज्य ने इस फैसले के खिलाफ़ अपील की और उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने एकल न्यायाधीश के फैसले को पलट दिया। खंडपीठ ने निष्कर्ष निकाला कि महिला मौजूदा राज्य मानदंडों या कानूनों के तहत तीसरे बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश की हकदार नहीं थी। खंडपीठ ने तर्क दिया था कि मातृत्व अवकाश मौलिक अधिकार नहीं है, बल्कि सेवा नियमों से प्राप्त अधिकार है। उन्होंने यह भी कहा कि मातृत्व लाभ अधिनियम उन सरकारी कर्मचारियों पर लागू नहीं होता जो अलग सेवा नियमों के अंतर्गत आते हैं। 

खंडपीठ ने तर्क दिया था कि मातृत्व अवकाश मौलिक अधिकार नहीं है, बल्कि सेवा नियमों से प्राप्त अधिकार है। उन्होंने यह भी कहा कि मातृत्व लाभ अधिनियम उन सरकारी कर्मचारियों पर लागू नहीं होता जो अलग सेवा नियमों के अंतर्गत आते हैं। 

उच्च न्यायालय का आदेश किया गया खारिज

मद्रास उच्च न्यायालय ने पहले शिक्षिका की छुट्टी इस आधार पर खारिज कर दी थी कि तमिलनाडु सरकार की नीति तीसरे बच्चे के जन्म के लिए मातृत्व अवकाश की अनुमति नहीं देती है, जो जनसंख्या नियंत्रण के उद्देश्य से उठाया गया कदम है। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने इस व्याख्या को दृढ़ता से खारिज कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि प्रजनन के अधिकार या बच्चा पैदा करना या न करना को बहुत ही सीमित या तंग नजरिए से नहीं देखा जा सकता। स्थानीय नीतियों द्वारा प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है जो केंद्रीय कानून के साथ संघर्ष करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि शिक्षिका मातृत्व अवकाश की हकदार है क्योंकि उसका तीसरा बच्चा उसकी दूसरी शादी के दौरान पैदा हुआ था। न्यायालय ने रेखांकित किया कि मातृत्व लाभ अधिनियम जैसे केंद्रीय कानूनों को धारा 27 के तहत अधिभावी या सबसे ज्यादा अधिकार प्राप्त है।

प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच है जरूरी

पीठ ने कहा कि संविधान हस्तक्षेप के बिना प्रजनन संबंधी विकल्प चुनने के महिला के अधिकार की रक्षा करता है। इसने कहा कि प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच महिला की गरिमा का हिस्सा है। अदालत ने कहा, राज्य के अनुचित हस्तक्षेप के बिना प्रजनन संबंधी विकल्प चुनने का हर महिला का अधिकार मानवीय गरिमा के विचार का केंद्र है और प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य सेवा या भावनात्मक और शारीरिक भलाई तक पहुंच से वंचित होना भी महिला की गरिमा को चोट पहुंचाता है। यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के इस सोच को मजबूत करता है कि महिलाओं के स्वास्थ्य और काम करने की जगह पर उनके हक से जुड़ी नीतियां संविधान में दिए गए अधिकारों के मुताबिक होनी चाहिए यानि जो भी कानून या नीति बनाई जाए, वह महिलाओं के मौलिक अधिकारों का सम्मान और पालन करती हो।

सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि शिक्षिका मातृत्व अवकाश की हकदार है क्योंकि उसका तीसरा बच्चा उसकी दूसरी शादी के दौरान पैदा हुआ था। न्यायालय ने रेखांकित किया कि मातृत्व लाभ अधिनियम जैसे केंद्रीय कानूनों को धारा 27 के तहत अधिभावी या सबसे ज्यादा अधिकार प्राप्त है।

मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 (2017 में संशोधित) प्रसव से पहले और बाद में महिला कर्मचारियों को मातृत्व अवकाश और संबंधित लाभ प्रदान करता है। यह नियम कारखाने, खदानें, बागान, सरकारी प्रतिष्ठान, दुकानें और 10 या अधिक कर्मचारियों वाले अन्य कार्यस्थल पर लागू होता है। कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 के तहत कवर की गई महिलाओं को भी मातृत्व लाभ मिलता है। दो से कम जीवित बच्चों वाली महिलाओं के लिए 26 सप्ताह का वेतन सहित मातृत्व अवकाश और दो या अधिक बच्चों वाली महिलाओं के लिए 12 सप्ताह का वेतन सहित अवकाश का प्रावधान है।

दो बच्चों की नीतिजनसंख्या नियंत्रण क़ानून 

भारत में दो बच्चों की नीति, जिसे कुछ राज्यों ने लागू किया है इसका उद्देश्य जनसंख्या वृद्धि को रोकना और संसाधन आवंटन में सुधार करना है। नीति में अक्सर दो या उससे कम बच्चे वाले दम्पतियों को प्रोत्साहन और अधिक बच्चों वाले दम्पतियों को कुछ सुविधाएं नहीं दी जाती हैं, जो एक तरह से दंड के अनुरूप हैं, जिसमें सरकारी नौकरियों और राजनीतिक पदों के लिए पात्रता पर सीमाएं शामिल हैं। इसके पीछे यह सोच है कि कम जनसंख्या से जीवन की गुणवत्ता बेहतर हो सकती है, संसाधनों की उपलब्धता में सुधार हो सकता है और सार्वजनिक सेवाओं पर दबाव कम हो सकता है।

तस्वीर साभार: Down To Earth

मातृत्व अवकाश कानून महिलाओं की माताओं और श्रमिकों के रूप में दोहरी भूमिकाओं का समर्थन करके सामाजिक न्याय को बनाए रखने के लिए बनाया गया है, यह सुनिश्चित करता है कि वे एक आजाद और सम्मानजनक जीवन जी सकें। जबकि जनसंख्या नियंत्रण एक वैध नीतिगत उद्देश्य है, यह मौलिक प्रजनन अधिकारों को खत्म नहीं कर सकता है। न्याय, समानता और कल्याण के व्यापक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए एक तर्कसंगत संतुलन बनाया जाना चाहिए।

मातृत्व अवकाश कानून महिलाओं की माताओं और श्रमिकों के रूप में दोहरी भूमिकाओं का समर्थन करके सामाजिक न्याय को बनाए रखने के लिए बनाया गया है, यह सुनिश्चित करता है कि वे एक आजाद और सम्मानजनक जीवन जी सकें।

मानवाधिकार के रूप में प्रजनन अधिकार

पिछले कई दशकों से महिलाओं के प्रजनन अधिकारों को दुनियाभर में मान्यता मिलने लगी है। संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में भी महिलाओं के प्रजनन अधिकारों को मानव अधिकार के रूप में मान्यता दी जा चुकी है। इसमें स्वास्थ्य, गोपनीयता, सम्मान और समानता के अधिकार शामिल हैं। इसके आलावा इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाईजेशन में महिलाओं के प्रजनन अधिकार निहित हैं। भारतीय उच्चतम न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालय भी समय-समय पर महिलाओं के प्रजनन अधिकारों के अनुरूप फैसले दे कर उनके इस अधिकार को मजबूत बना रहे हैं। जिसमें सरोगेट महिलाओं के मातृत्व अवकाश हो या सरोगसी द्वारा पैदा किये गए बच्चे के लिए अवकाश, भारतीय न्यायालय कामकाजी महिलाओं के प्रति उदार रुख अपनाने लगे हैं । 

तस्वीर साभार: Canva

वर्तमान फैसले में, उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 के व्यापक दायरे पर जोर दिया, जो स्वास्थ्य, सम्मान और प्रजनन संबंधी विकल्प के अधिकार सहित जीवन के अधिकार की गारंटी देता है। न्यायालय ने कहा कि न्यायिक व्याख्या के अनुसार, यह माना गया है कि अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अर्थ है अपने पूर्ण अर्थ में जीवन । वह सब जो जीवन को अधिक सफल बनाता है, मनुष्य की तरह जीने लायक बनाता है। जीवन के अधिकार में मानव सभ्यता की सभी बेहतरीन खूबियां शामिल हैं, इस प्रकार यह मौलिक अधिकार विभिन्न मानवाधिकारों का भंडार बन जाता है। जीवन के अधिकार में स्वास्थ्य का अधिकार भी शामिल है। मानवीय सम्मान के साथ जीने का अधिकार और निजता का अधिकार अब अनुच्छेद 21 के स्वीकृत पहलू हैं। 

न्यायालय ने अनुच्छेद 42 का भी उल्लेख किया, जो काम की न्यायसंगत और मानवीय परिस्थितियों तथा मातृत्व राहत को अनिवार्य बनाता है तथा प्रशासनिक नियमों की कठोर व्याख्या की आलोचना की गई है, जो बच्चों की संख्या सीमा के आधार पर ऐसे लाभों से इनकार करते हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने साफ किया कि मातृत्व अवकाश कोई सेवा लाभ नहीं, बल्कि महिलाओं का संवैधानिक अधिकार है। यह निर्णय कामकाजी महिलाओं की गरिमा, स्वास्थ्य और समानता की रक्षा करता है। अदालत ने दो-बच्चों की नीति को मातृत्व लाभ पर लागू करने को असंवैधानिक माना और कहा कि प्रजनन का अधिकार महिलाओं की स्वतंत्रता और सम्मान का हिस्सा है। यह फैसला महिलाओं के कार्यस्थल अधिकारों को मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

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