समाजकानून और नीति जानें, जेल में बंद महिला कैदियों के यौन-प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार के बारे में

जानें, जेल में बंद महिला कैदियों के यौन-प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार के बारे में

नागरिक समाज में जेलें मानवाधिकारों का सबसे संवेदनशील क्षेत्र हैं, खासकर महिलाओं के लिए। जेल की ख़राब स्थितियां जिनमें कैदियों को रखा जाता है, उनके मौलिक मानवाधिकारों का खुलेआम उल्लंघन करती हैं, जिनमें अक्सर भीड़भाड़, बुनियादी सुविधाओं की कमी और अपर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल शामिल होती हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले सप्ताह पश्चिम बंगाल में कई महिला कैदियों के हिरासत के दौरान गर्भवती होने के आरोप पर संज्ञान लिया था। वरिष्ठ अधिवक्ता गौरव अग्रवाल, जो ‘1,382 जेलों में अमानवीय स्थितियां’ शीर्षक मामले में अदालत में एमिक्स क्यूरी (न्याय मित्र) हैं, ने अदालत को बताया कि उन्हें हिरासत के दौरान महिला कैदियों से पैदा हुए बच्चों के संबंध में ‘अतिरिक्त महानिदेशक और महानिरीक्षक, सुधारात्मक सेवाएं, पश्चिम बंगाल’ से जानकारी मिली है। डेक्कन हेराल्ड में छपी ख़बर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया गया है कि पिछले चार वर्षों में पश्चिम बंगाल की जेलों में 62 बच्चों का जन्म हुआ और जिन महिला कैदियों ने उन्हें जन्म दिया, उनमें से अधिकांश जेल में लाए जाने पर गर्भवती थीं।

वकील गौरव अग्रवाल ने अदालत में दायर किये गए अपने एक एफिडेविट में कहा कि, “ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश महिला कैदी उस समय पहले से ही गर्भवती थीं जब उन्हें जेलों में लाया गया था। कुछ मामलों में, महिला कैदी पैरोल पर बाहर गई थीं और फिर गर्भधारण के साथ वापस लौट कर आईं। 9 फरवरी को शीर्ष न्यायालय ने देश भर की जेलों में महिला कैदियों के बीच होने वाली गर्भधारण की चिंताजनक संख्या पर स्वत: संज्ञान लिया था। यह घटनाक्रम कलकत्ता उच्च न्यायालय के समक्ष एक महत्वपूर्ण याचिका लाए जाने के एक दिन बाद आया, जिसमें पूरे पश्चिम बंगाल में सुधार गृहों में हिरासत के दौरान महिला कैदियों के गर्भवती होने की परेशान करने वाली प्रवृत्ति की ओर ध्यान आकर्षित किया गया था।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा संकलित 2022 के लिए भारत की जेल सांख्यिकी रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार 31 दिसंबर, 2022 तक 1,764 बच्चों के साथ 1,537 महिला कैदी भारतीय जेलों में थीं। रिपोर्ट के अनुसार 31 दिसंबर, 2022 तक उत्तर प्रदेश में बच्चों वाली महिलाओं की संख्या सबसे अधिक है (365 बच्चों वाली 325 महिलाएं), इसके बाद बिहार (331 बच्चों वाली 300 महिलाएं) और पश्चिम बंगाल (213 बच्चों वाली 160 महिलाएं) हैं।

अक्सर जेल कर्मचारियों या अधिकारियों द्वारा सजा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। हिरासत में बलात्कार, जेल में महिलाओं द्वारा सामना की जाने वाली एक अन्य प्रकार की यातना है जो इस तथ्य से जटिल है कि महिला जेलें अक्सर शहरी केंद्रों से दूर स्थित होती हैं और उनमें स्टाफ की भी कमी होती है।

कारावास और मानवाधिकार

पिछली शताब्दी में मानवाधिकारों का काफी विकास हुआ है। इसकी पहुँच न केवल स्वतंत्र व्यक्तियों बल्कि कारावास में रहने वाले व्यक्तियों तक भी बढ़ा दी गयी। पिछली शताब्दी में यह मान्यता बढ़ी कि कारावास का उद्देश्य केवल सज़ा नहीं है, बल्कि पुनर्वास और समाज में पुनः शामिल होना भी है। इस बढ़ती प्रवृत्ति की वजह से जेल सुधारों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया, जिसका उद्देश्य कारावास की स्थितियों में सुधार करना, दोबारा अपराध करने की प्रवृत्ति को कम करना और यह सुनिश्चित करना है कि कैदियों के मानवाधिकारों की रक्षा की जाए।

Indian judicial system and women
फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी।

कैदियों के मानवाधिकारों की सुरक्षा, जेल सुधार का एक अनिवार्य तत्व है। कैदियों के मानवाधिकारों की सुरक्षा को बढ़ावा देने वाले जेल सुधार, आपराधिक न्याय प्रणाली और बड़े पैमाने पर समाज पर महत्वपूर्ण सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। इस तरह के सुधार जेलों में भीड़भाड़ को कम करने, अपराध की पुनरावृत्ति की दर को कम करने और कानून के शासन और मानवीय गरिमा के लिए अधिक सम्मान को बढ़ावा देने में मदद करते हैं। इसके विपरीत, कैदियों के मानवाधिकारों की उपेक्षा से हिंसा, दुर्व्यवहार और सामाजिक नुकसान बढ़ सकता है। लंबे समय से, भारतीय जेल प्रणाली में मानवाधिकारों के उल्लंघन की कई रिपोर्टें आती रही हैं जैसे कि पुलिस की बर्बरता, दुर्व्यवहार, यातना और हिरासत में हिंसा के कारण कैदियों की मौत।

क्या जेल बुनियादी मानवाधिकारों को पूर्ण रूप से जब्त कर लेती हैं?

नागरिक समाज में जेलें मानवाधिकारों का सबसे संवेदनशील क्षेत्र हैं, खासकर महिलाओं के लिए। जेल की ख़राब स्थितियां जिनमें कैदियों को रखा जाता है, उनके मौलिक मानवाधिकारों का खुलेआम उल्लंघन करती हैं, जिनमें अक्सर भीड़भाड़, बुनियादी सुविधाओं की कमी और अपर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल शामिल होती हैं। वास्तव में, जेलों में अधिकांश मानवाधिकार उल्लंघन, मानवाधिकार प्रबंधन में शामिल पुलिस और जेल कर्मचारियों और समाज में अपराधों को रोकने वाले लोगों द्वारा किए गए मानवाधिकारों के उल्लंघन का परिणाम हैं। दुर्भाग्य से, वे क़ैदियों से जुर्म मनवाने प्राप्त करने या जानकारी निकालने के लिए अमानवीय तरीके अपनाते हैं। यह शारीरिक हमलों से लेकर मौखिक दुर्व्यवहार, उत्पीड़न और यातना तक हो सकता है।

तस्वीर साभारः Daily Guardian

विशेष रूप से महिला कैदियों को यौन शोषण, बलात्कार और यौन उत्पीड़न होने का अधिक खतरा होता है, जिसे अक्सर जेल कर्मचारियों या अधिकारियों द्वारा सजा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। हिरासत में बलात्कार, जेल में महिलाओं द्वारा सामना की जाने वाली एक अन्य प्रकार की यातना है जो इस तथ्य से जटिल है कि महिला जेलें अक्सर शहरी केंद्रों से दूर स्थित होती हैं और उनमें स्टाफ की भी कमी होती है। जेल में महिलाओं के खिलाफ हिरासत में बलात्कार और यौन हिंसा के कृत्य से उनके बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन होता है, जिसमें उनके जीवन का अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, गरिमा और सम्मान शामिल है। हिरासत में बलात्कार से अवांछित गर्भधारण और यौन संचारित संक्रमण सहित कई प्रकार के नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम हो सकते हैं।

कई मामलों में, इस दुर्व्यवहार के परिणामस्वरूप सर्वाइवर की अप्राकृतिक मृत्यु भी हो जाती है। महिलाएं साथी कैदियों द्वारा यौन हिंसा और दुर्व्यवहार का भी सामना करना पड़ता हैं। जेल में बंद महिलाओं को अक्सर समाज द्वारा हाशिए पर रखा जाता है और कलंकित किया जाता है, जिससे सामाजिक बहिष्कार और कई अन्य चुनौतियां पैदा होती हैं। इससे महिला कैदियों के लिए उनकी रिहाई के बाद समाज में फिर से शामिल होना मुश्किल हो सकता है, जिससे आगे चुनौतियां और कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं। संसाधनों की कमी, आवास और बुनियादी ढांचे की कमी, यौन और प्रजनन सुविधाओं की उपेक्षा महिला क़ैदियों के बुनियादी मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं।

महिला कैदियों के अधिकार से संबंधित भारतीय कानून

1894 का कारागार अधिनियम भारत में जेलों को विनियमित करने वाला पहला कानून था, जिसमें कैदियों के सुधार और उनके अधिकारों पर ध्यान केंद्रित किया गया था। इस अधिनियम की धारा 24 जेल में भर्ती के समय महिला कैदियों की चिकित्सा जांच के लिए नियम बताती है। इसमें कहा गया है कि जेल में आने के बाद एक महिला कैदी की चिकित्सा जांच एक महिला चिकित्सा अधिकारी द्वारा ही की जानी चाहिए और कोई भी चिकित्सा उपचार एक महिला नर्स या परिचर द्वारा किया जाना चाहिए। इसी अधिनियम की धारा 27 महिला कैदियों को पुरुष कैदियों से अलग करने का आदेश देती है। इसमें कहा गया है कि महिला कैदियों को पुरुष कैदियों से अलग बैरक में अंदर रखा जाना चाहिए। पर्यवेक्षण या अन्य किसी कार्य के लिए महिला अधिकारी के अलावा महिला कैदियों की कोठरी में पुरुषों के प्रवेश की अनुमति नहीं है।

जेल में बंद महिलाओं को अक्सर समाज द्वारा हाशिए पर रखा जाता है और कलंकित किया जाता है, जिससे सामाजिक बहिष्कार और कई अन्य चुनौतियां पैदा होती हैं। इससे महिला कैदियों के लिए उनकी रिहाई के बाद समाज में फिर से शामिल होना मुश्किल हो सकता है, जिससे आगे चुनौतियां और कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं।

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार, द्वारा जारी की गयी रिपोर्ट, ‘जेलों में महिलाएं, इंडिया’ में भारतीय जेलों में बंद महिला कैदियों को उनकी आवश्यकता के अनुसार बिना किसी अधिकतम सीमा के स्टरलाइज्ड सैनिटरी पैड निःशुल्क जारी किए जाने का प्रावधान किया गया। सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी कैदी के मौलिक अधिकार “जेल के गेट पर कैदी से अलग नहीं होते” हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कुछ वर्षों में कई निर्णयों में इस दृष्टिकोण को दोहराया है और कैदियों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की है। पिछले दशक में, जेल में बंद महिला कैदियों के प्रजनन अधिकारों को भी प्रमुखता मिली है। जेल में बंद महिला कैदियों के प्रजनन अधिकारों के संबंध में अदालतों के समक्ष कई मुद्दे उठे हैं, जिनमें अबॉर्शन का अधिकार, बच्चे पैदा करने का अधिकार आदि शामिल है। जेल में मातृ कैदियों और बच्चों दोनों के लिए प्रसवपूर्व और प्रसवोत्तर उपचार की सभी आवश्यकताओं के साथ न्यूनतम और बुनियादी चिकित्सा सुविधाएं होनी चाहिए।

ऑन इट्स ओन मोशन बनाम महाराष्ट्र राज्य 4 , में कोर्ट ने कहा कि एम्टीपी अधिनियम के अंतर्गत शब्द ‘गर्भवती महिलाएं’ एक सामान्य श्रेणी बनाती हैं जिसमें गर्भवती ‘महिला कैदी’ भी शामिल हैं। सभी गर्भवती महिलाओं को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रजनन विकल्प का मौलिक अधिकार है जिसमें गर्भावस्था को समाप्त करने का अधिकार भी शामिल है। इस वाद में न्यायालय ने निर्देश दिया कि प्रजनन आयु की प्रत्येक महिला कैदी का जेल में प्रवेश पर ‘मूत्र गर्भावस्था’ (urine pregnancy test) परीक्षण किया जाना चाहिए और यदि वह गर्भवती पाई जाती है, तो चिकित्सा अधिकारी को एमटीपी अधिनियम के तहत अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने के विकल्प के बारे में महिला को सूचित करना चाहिए। केस में यह भी कहा गया कि एक बार जब एक गर्भवती महिला कैदी गर्भावस्था को समाप्त करने की अपनी इच्छा बताती है, तो उसे तुरंत अस्पताल भेजा जाना चाहिए और उसकी गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए सभी सहायता प्रदान की जानी चाहिए। एक महिला का अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने का निर्णय कोई तुच्छ नहीं है, बल्कि “सावधानीपूर्वक विचार किया गया”
निर्णय है।

जेलों में गर्भवती महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान

आर. डी. उपाध्याय बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, में सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में बंद गर्भवती महिलाओं के इलाज के संबंध में दिशानिर्देश जारी किए। दिशानिर्देश गर्भवती महिला कैदियों को प्रदान की जाने वाली चिकित्सा सुविधाओं, गर्भवती महिलाओं और उनके बच्चों की आहार आवश्यकताओं, प्रसव के उपायों (यह ध्यान में रखते हुए कि जहां तक ​​संभव हो महिला को जमानत पर रिहा किया जाना चाहिए ताकि वह जेल के बाहर प्रसव करा सके) और बच्चों को जेल में रखने से संबंधित हैं।
गुजरात राज्य बनाम जादव, जतिन भगवानभाई प्रजापति और अन्य, में गुजरात उच्च न्यायालय ने गर्भवती महिलाओं को जेल के बाहर अपने बच्चों को जन्म देने के लिए जमानत देने के संबंध में आर.डी. उपाध्याय मामले में दिशानिर्देशों में से एक को लागू किया। आरोपी महिला को दोषी करार देने के बाद उसके गर्भवती होने की जानकारी मिलने पर कोर्ट ने उसकी सजा निलंबित कर दी और ग्यारह महीने के लिए जमानत दे दी। इस प्रकार, इससे उसे न केवल जेल के माहौल के बाहर और हिरासत में न होते हुए भी अपने बच्चे को जन्म देने का समय मिला, बल्कि शुरुआती महीनों में बच्चे की देखभाल करने का भी समय मिला। अदालत ने जेल अधिकारियों को यह भी निर्देश दिया कि वह महिला को अपने बच्चों को तब तक जेल में अपने साथ रखने की अनुमति दे जब तक कि वे संबंधित जेल मैनुअल द्वारा निर्धारित उम्र तक नहीं पहुंच जाते।

जेल में बंद महिला कैदियों के प्रजनन अधिकारों के संबंध में अदालतों के समक्ष कई मुद्दे उठे हैं, जिनमें अबॉर्शन का अधिकार, बच्चे पैदा करने का अधिकार आदि शामिल है।

प्रजनन और वैवाहिक मुलाक़ातों का अधिकार

पिछले कुछ वर्षों में, जेल में बंद व्यक्तियों ने अपने दाम्पत्य अधिकारों को मान्यता देने और लागू करने की मांग करते हुए भारतीय उच्च अदालतों का दरवाजा खटखटाया है। इन्ही में एक मुख्य केस में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने माना कि संतानोत्पत्ति और वैवाहिक मुलाकात का अधिकार गरिमा के साथ जीने के अधिकार का एक घटक है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत जीवन के अधिकार में निहित है। संतानोत्पत्ति का अधिकार कारावास के बावजूद बचा रहता है। एक अन्य मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने माना कि एक क़ैदी की पत्नी को संतान उत्पन्न करने का अधिकार है, और यह अधिकार उसके पति को आजीवन कारावास की सज़ा से समाप्त नहीं होता है।


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