नारीवाद मेरा फेमिनिस्ट जॉय: घर से बाहर बनी मेरी नारीवादी सोच और संघर्ष

मेरा फेमिनिस्ट जॉय: घर से बाहर बनी मेरी नारीवादी सोच और संघर्ष

मेरे लिए, बाहर जाकर पढ़ाई करना, खुद निर्णय लेना और दैनिक कामों को खुद पूरा करना, मेरी स्वतंत्रता का प्रतीक है। यह अनुभव न केवल आत्मनिर्भरता की भावना को सुदृढ़ करता है, बल्कि उस सामाजिक संरचना पर भी प्रश्न उठाता है, जो महिलाओं को हर छोटे काम के लिए पुरुषों पर निर्भर रहने के लिए बाध्य करती है।

महिलाओं का जीवन विशेषकर रसोईघर तक सीमित रहता है। मुझे जब बाहर निकलकर शैक्षणिक और वैचारिक दुनिया से जुड़ने का अवसर मिला, तब मैंने उन संरचनात्मक असमानताओं को समझना शुरू किया जिन्हें मैं सालों नहीं जानती थी। यह बौद्धिक स्वतंत्रता केवल एक व्यक्तिगत अनुभव नहीं थी, बल्कि यह अनुभव मेरे भीतर एक जिम्मेदारी की भावना भी पैदा करती है कि उन स्त्रियों तक यह विमर्श पहुंचाया जाए, जिन्हें अब भी घर की चार दीवारी में बंद रखा गया है या जिनकी आवाज़ें सार्वजनिक क्षेत्र में मौजूद नहीं है।

भारतीय समाज में ‘परिवार’ की संस्था अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, लेकिन यही संस्था स्त्री की स्वतंत्रता को सीमित करने का माध्यम भी बन जाता है। स्त्री की भूमिका, उसकी आकांक्षाओं, और उसके निर्णयों का निर्धारण पारिवारिक और सामाजिक ढांचे से किया जाता है, न कि उसकी अपनी इच्छा या स्वतंत्र चेतना से। पुरुष वर्चस्व की यह व्यवस्था सदियों से चली आ रही है और महिलाएं खुद इसे जीवन की सहज निष्कर्ष मानकर स्वीकार करती रही हैं। काम का बंटवारा, भूमिका की मर्यादा और सामाजिक अपेक्षाएं, इन सभी को ‘स्वाभाविक’ मानने की प्रक्रिया में महिला अपने ही अस्तित्व पर प्रश्न उठाने से वंचित रह जाती है और उन्हें वह अपना कार्य लगने लगता है।

मैं एक ऐसे सामाजिक परिवेश में पली-बढ़ी जहां पर्दा प्रथा, जातिवादी भेदभाव, घरेलू श्रम का लैंगिक वितरण और हाशिये के वर्गों का शोषण सामान्य सामाजिक व्यवहार का हिस्सा थे।

परिवार और पितृसत्तात्मक सोच

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

मैं एक ऐसे सामाजिक परिवेश में पली-बढ़ी जहां पर्दा प्रथा, जातिवादी भेदभाव, घरेलू श्रम का लैंगिक वितरण और हाशिये के वर्गों का शोषण सामान्य सामाजिक व्यवहार का हिस्सा थे। इन व्यवस्थाओं को देखकर बड़ा होना मेरे लिए स्वाभाविक अनुभव था, जैसे कि दलित समुदाय के लोगों के लिए अलग बर्तन का प्रयोग या उनसे बिना किसी शारीरिक संपर्क के शारीरिक श्रम करवा लेना। ऐसे अनेक प्रथाओं का कई सालों तक मैंने भी पालन किया है क्योंकि आस-पास के परवेश में भी यही चलता आ रहा था। इन बातों को समझना तब शुरू हुआ, जब मैं अपने घर की सीमाओं से बाहर निकली और सामाज के उन पाठों से रूबरू हुई जो हमें अपने ही अनुभवों को नए नजरिए से देखने की दृष्टि देते हैं।

पहले जो कुछ भी सहज और स्वाभाविक लगता था, वह धीरे-धीरे असहज और अन्यायपूर्ण लगने लगा। यह महसूस हुआ कि जाति और श्रम के बीच जो रिश्ता हमारे समाज में मौजूद है, वह सिर्फ भेदभाव नहीं, बल्कि एक गहराई से जड़ी हुई सत्ता संरचना है। दलित श्रमिक से काम करवाना लेकिन छुआछूत की भावना, यह न केवल जातीय शुद्धता की झूठी कल्पना को दिखाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि किस तरह इंसान को श्रम के माध्यम से वस्तु में बदल दिया गया है। इन ढांचों को तोड़ना आसान नहीं है। खासकर तब, जब अपने ही घर के भीतर सवाल खड़े करने पड़ें। लेकिन बदलाव की शुरुआत वहीं से होती है। जब हम बोलने का साहस करते हैं, चुप्पी को तोड़ते हैं और यह तय करते हैं कि अब अन्याय को सामान्य नहीं मानेंगे।

मेरी सोच में परिवर्तन तब संभव हो सका जब मुझे घर से बाहर निकलने और पढ़ाई करने का अवसर मिला। इस प्रक्रिया में मेरे परिवार का सहयोग एक निर्णायक कारक रहा। जिस सामाजिक परिवेश में मेरा पालन-पोषण हुआ, वहां महिलाओं की शिक्षा और उनकी भूमिका को सीमित दायरे में परिभाषित कर दिया जाता है।

बाहर जाने और शिक्षा के माध्यम से नारीवादी सोच

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

मेरी सोच में परिवर्तन तब संभव हो सका जब मुझे घर से बाहर निकलने और पढ़ाई करने का अवसर मिला। इस प्रक्रिया में मेरे परिवार का सहयोग एक निर्णायक कारक रहा। जिस सामाजिक परिवेश में मेरा पालन-पोषण हुआ, वहां महिलाओं की शिक्षा और उनकी भूमिका को सीमित दायरे में परिभाषित कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में परिवार का समर्थन केवल भावनात्मक सहारा नहीं, बल्कि एक राजनीतिक कार्रवाई के रूप में भी देखा जा सकता है, जिसने मुझे नारीवादी दृष्टिकोण से समाज को देखने और समझने की दिशा में आगे बढ़ने का अवसर दिया।

मेरे लिए, बाहर जाकर पढ़ाई करना, खुद निर्णय लेना और दैनिक कामों को खुद पूरा करना, मेरी स्वतंत्रता का प्रतीक है। यह अनुभव न केवल आत्मनिर्भरता की भावना को सुदृढ़ करता है, बल्कि उस सामाजिक संरचना पर भी प्रश्न उठाता है, जो महिलाओं को हर छोटे काम के लिए पुरुषों पर निर्भर रहने के लिए बाध्य करती है।

जब एक महिला अपने परिवार में संवाद करती है, सवाल उठाती है या तर्क देती है, तो यह केवल व्यक्तिगत साहस नहीं, बल्कि पितृसत्तात्मक मान्यताओं के प्रतिरोध का भी संकेत है। महिलाओं को पारंपरिक रूप से घरेलू कर्तव्यों तक सीमित कर दिया गया है, जहां स्वतंत्र निर्णय लेने और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी की संभावना न्यूनतम होती है। लेकिन, जब एक महिला अपने जीवन के निर्णय खुद लेने लगती है, चाहे वे शैक्षणिक हों, व्यावसायिक हों या व्यक्तिगत, तो यह उसकी निर्माण प्रक्रिया का हिस्सा बनता है। यह सब परिवर्तन कहीं न कहीं हमारे परिवार में भी दिखाई देने लगता है। कुछ बदलाव भी दिखते हैं। वो भी सोचने में मजबूर हो जाते हैं जो हम इतने सालों से कर रहे हैं क्या वह सही है?

मेरे लिए, बाहर जाकर पढ़ाई करना, खुद निर्णय लेना और दैनिक कामों को खुद पूरा करना, मेरी स्वतंत्रता का प्रतीक है। यह अनुभव न केवल आत्मनिर्भरता की भावना को सुदृढ़ करता है, बल्कि उस सामाजिक संरचना पर भी प्रश्न उठाता है, जो महिलाओं को हर छोटे काम के लिए पुरुषों पर निर्भर रहने के लिए बाध्य करती है। नारीवादी सोच उन अनुभवों को सिर्फ दुख या पीड़ा के रूप में नहीं देखती, बल्कि उन्हें महिलाओं की ताकत, पहचान और हक से जोड़कर समझती है। ये अनुभव संघर्ष के साथ-साथ आत्म-सम्मान, खुशी और बदलाव की उम्मीद भी लेकर आते हैं। मेरे लिए यह सोच सिर्फ़ संघर्ष नहीं, बल्कि मेरा फेमिनिस्ट जॉय और आत्मसम्मान का भी रास्ता है।

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