अगस्त, 2025 को कैम्ब्रिज डिक्शनरी में एक नया शब्द शामिल किया गया। यह शब्द है ‘ट्रैडवाइफ़’ जो कि ट्रैडिशनल वाइफ़ का शॉर्ट है। कैम्ब्रिज में अंग्रेज़ी में इसकी जो परिभाषा दी गई उसकी हिन्दी कुछ इस प्रकार है — एक शादीशुदा माँ जो खाना बनाती है, साफ़-सफ़ाई करती है और सोशल मीडिया पर पोस्ट करती है। कैम्ब्रिज शब्दकोष में इसे शामिल किए जाने की वजह टिकटॉक और इन्स्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर इसका बढ़ता हुआ चलन बताया जाता है। अब इस पर सवाल किया जा सकता है कि ट्रैडवाइफ़ जैसे विवादस्पद शब्द को कैम्ब्रिज शब्दकोष में आखिर वजह दी ही क्यों गई। इसके पीछे कहा जाता है कि इस शब्दकोष का उद्देश्य उपयोगकर्ताओं को ऐसे शब्दों से परिचित करवाना होता है जिनका सामना वे समकालीन परिदृश्य में कर रहे हों, चाहे भले ही ऐसे शब्द विवादस्पद ही क्यों न हों। बता दें कि ट्रैडवाइफ़ साल 2020 में ट्रैडवाइफ़ के चलन की शुरुआत हुई। ज़ाहिर है कि जब इस शब्द को कैम्ब्रिज जैसे विशाल शब्दकोष में जगह देने की ज़रूरत महसूस की गई तो हम समझ सकते हैं कि यह शब्द अब काफी चलन में है। बता दें कि हाउस हसबैंड पहले से ही इस शब्दकोश का हिस्सा है।
आखिर क्यों समस्याजनक है यह चलन?
थप्पड़ फिल्म का एक सीन है जिसमें रत्ना पाठक शाह अपने पति से अपने संगीत के शौक को मारने की बात कहती है और कहती है कि घर ज़्यादा ज़रूरी होता है। ऐसा उन्होंने अपनी माँ से सुना और उनकी माँ ने अपनी माँ से सुना। असल में इस सीन में रत्ना पाठक शाह औरत की पारम्परिक भूमिका में है और बता रही है कि किस तरह से औरत को यह सिखाया जाता है कि घर ज़्यादा ज़रूरी है और घर संभालने के लिए औरत को कई बार अपने सपनों को छोड़ना पड़ता है। अपने मन को मारना पड़ता है। लेकिन अभी चलन में आई ट्रैडवाइफ़ की अवधारणा घर के इर्द-गिर्द सिमटी हुई औरत की इसी भूमिका का महिमामंडन करती है।

भारतीय परिदृश्य में जहां घर महिला की ज़िन्दगी का न केवल केन्द्र बिंदु बनकर रह जाता है बल्कि कदम-कदम पर उसके करियर और उसकी पेशेवर तरक्की पर असर डालता है, वहां इसका गुणगान समस्याजनक है। इस वाहवाही के तहत इस चलन में इस बात पर ज़ोर डाला जा रहा है कि ट्रैडवाइफ़ के तौर पर जीवन जीना ज़्यादा सार्थक और सन्तोषजनक है। हालांकि इस बारे में कहा जा सकता है कि हाउसवाइफ़ के तौर पर जीवन जीने का फैसला लेना किसी महिला का व्यक्तिगत मसला हो सकता है और हर किसी को यह फैसला लेने का अधिकार है कि वह कैसा जीवन जीना चाहता है।
मैंने ध्यान दिया कि ट्रैडवाइफ़ को दिखाने के लिए जिन तस्वीरों का इस्तेमाल किया गया है, वे सभी अमरीकी महिलाओं की तस्वीरें हैं क्योंकि वहां गृहिणी होने का चलन नहीं है। भारतीय सन्दर्भ से यह मेल नहीं खाता क्योंकि यहां पहले से ही महिलाएं गृहिणियां हैं।
लेकिन, भारतीय परिदृश्य में अभी भी महिलाओं को एक तरह से हाउसवाइफ होने के लिए मजबूर और सोशल कन्डिशनिंग किया जाता है। करियर को लेकर आकांक्षाओं से भरी महिलाओं को अक्सर बुरा और आदर्श महिला नहीं माना जाता। ऐसे में यह चलन घर की चहारदीवारी लांघकर अपनी पहचान बनाने की कोशिश करने वाली महिलाओं की राह में रुकावट ही पैदा करेगा। घर के काम करना या घर संभालना आम तौर पर सभी महिलाएं सदियों से करती आ रही हैं। उनको न खुद की पहचान, न वित्तीय आत्मनिर्भरता मिलती है। उनकी पहचान किसी की पत्नी या किसी की माँ होने तक ही सिमटकर रह जाती है। आज अगर महिलाएं ख़राब शादियों से निकल पा रही हैं तो उसकी एक वजह उनकी वित्तीय आत्मनिर्भरता भी है। यह चलन महिलाओं को फिर से उसी दुश्चक्र में धकेलने की कोशिश करने वाला है जिससे वे काफी लम्बे समय के संघर्ष के बाद बाहर आई हैं और इसीलिए यह समस्याजनक है। भारत जैसे देश में अचानक से इसका चलन बढ़ना एक प्रगतिशील बात न होकर, पीछे की ओर ले जाने वाला कदम है।
इस चलन को लेकर महिलाओं की सोच

आगे उन्होंने कहा कि उन्हें इन इन्फ़्लुएंसर्स से यह दिक्कत है कि महिलाओं की पारंपरिक भूमिकाओं को ही बढ़ावा दे रहे हैं। और कुल मिलाकर, वो इस चलन को बढ़ता देखकर खुश नहीं हैं। वहीं बैंगलोर की रहने वाली स्नेहा इस चलन पर थोड़ा अलग नज़रिया रखती हैं। उनका कहना है, “मैंने ध्यान दिया कि ट्रैडवाइफ़ को दिखाने के लिए जिन तस्वीरों का इस्तेमाल किया गया है, वे सभी अमरीकी महिलाओं की तस्वीरें हैं क्योंकि वहां गृहिणी होने का चलन नहीं है। भारतीय सन्दर्भ से यह मेल नहीं खाता क्योंकि यहां पहले से ही महिलाएं गृहिणियां हैं।”
घर संभालने की ज़िम्मेदारी लेने का विकल्प महिला और पुरुष दोनों के पास होना चाहिए। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे कमतर माना जाए या फिर गुणगान किया जाए। इस भूमिका में काफी मेहनत और ऊर्जा लगती है। ये अकाउंट जिस तरह से घर के कामों को दिखाते हैं, उससे ऐसा लगता है कि घर पर रहकर बच्चों की देखभाल और खाना बनाना बहुत आसान काम है जबकि ऐसा है नहीं।
इस चलन के बारे में महिलाओं की सोच को समझने के लिए फेमिनिज़म ऑफ़ इंडिया ने कुछ महिलाओं से बात की। इस बारे में हैदराबाद की रहने वाली डेवेलपमेंटल प्रोफेशनल तथागता बासु कहती हैं, “घर संभालने की ज़िम्मेदारी लेने का विकल्प महिला और पुरुष दोनों के पास होना चाहिए। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे कमतर माना जाए या फिर गुणगान किया जाए। इस भूमिका में काफी मेहनत और ऊर्जा लगती है। ये अकाउंट जिस तरह से घर के कामों को दिखाते हैं, उससे ऐसा लगता है कि घर पर रहकर बच्चों की देखभाल और खाना बनाना बहुत आसान काम है जबकि ऐसा है नहीं। कोई अपनी मर्ज़ी से कर रहा है तो हो सकता है उसे ये काम आसान लगें।” कुछ इसी तरह के विचार चेन्नई की स्पेशल एजुकेटर महालक्ष्मी के भी हैं। वे कहती हैं, “कोई महिला अपनी ज़िन्दगी कैसे जीना चाहती है मुझे इसमें कोई दिक्कत नहीं लगती। मेरी खुद की बहन ने एमफिल करने के बाद और कुछ समय पढ़ाने के बाद गृहिणी बनना और बच्चों को पालने का विकल्प चुना क्योंकि उनका मानना था कि घर और जॉब दोनों संभालना मुश्किल भरा हो जाएगा।”
घरेलू काम का महिमामंडन बनाम समाज में गृहिणियों का दर्जा
सच तो यह है कि भले ही ये अकाउंट घर के कामों का महिमामंडन करें, लेकिन क्या हाउसवाइफ की समाज में वही दर्जा है जैसी किसी ऊंचे पद और रुतबे वाले पुरुष की होती है? हमारे समाज में एक तरफ घर के काम को तो काम माना ही नहीं जाता और यह भी माना जाता है कि इन्हें करने के लिए किन्हीं विशेष कौशल की ज़रूरत नहीं। दूसरी तरफ घर के कामों का महिमामंडन भी किया जाता है जो कि सदियों से ही किया जाता रहा है। इसमें कुछ नया नहीं है। घरेलू काम और देखभाल में लंबे समय से तल्लीन औरत कल को अगर नौकरी की तलाश करती है तो क्या उसे आसानी से नौकरी मिल जाएगी? बेशक नहीं मिलेगी। यही नहीं ट्रैडवाइफ़ के चलन की पैरवी करने वाले अकाउंट्स घर की देख-रेख के टिप्स देने के साथ-साथ एक मर्दाना रौब वाले आदमी को आकर्षित करने वाले टिप्स देते भी नज़र आते हैं। यानी महिला होने के नाते आप घर संभालिए, नाज़ुक रहिए, मुस्कुराती रहिए और अपने पार्टनर को आकर्षित करने के लिए सज-धजकर रहिए।
ट्रैडवाइफ़ के चलन की पैरवी करने वाले अकाउंट्स घर की देख-रेख के टिप्स देने के साथ-साथ एक मर्दाना रौब वाले आदमी को आकर्षित करने वाले टिप्स देते भी नज़र आते हैं। यानी महिला होने के नाते आप घर संभालिए, नाज़ुक रहिए, मुस्कुराती रहिए और अपने पार्टनर को आकर्षित करने के लिए सज-धजकर रहिए।
ट्रैडवाइफ़ को लेकर मचते हो-हल्ले के बीच बता दें कि काफी पहले से हाउस हसबैंड जैसा शब्द भी अस्तित्व में है, लेकिन इसे लेकर न तो आपको ज़्यादा इन्फ़्लुएंसर्स कंटेन्ट बनाते दिखेंगे और न ही कोई यह कहता दिखेगा कि इसे अपनाइए, इससे आपको ज़िन्दगी में सन्तुष्टि और शान्ति मिलेगी। इसके अलावा, आज के समय में जब महिलाएं विवाह की अनिवार्यता पर सवाल उठाने लगी हैं, अपनी मर्ज़ी से सिंगल रहना चुन रही हैं, और किसी खराब शादी को ज़िन्दगी पर ढोने की बजाय तलाक लेकर अलग रहना बेहतर समझ रही हैं, समान काम के लिए समान वेतन जैसी पहलें हो रही हैं और ऐसे बदलावों को सामाजिक रूप से स्वीकारने की पहलें भी दिखाई देने लगी हैं। तलाक को अब टैबू नहीं, बल्कि एक विकल्प की तरह देखा जाने लगा है। वहीं, मातृत्व के महिमामंडन से बाहर निकलने की कोशिशें भी जारी हैं, ताकि महिला की पहचान केवल ‘माँ’ के रूप में सीमित न रहे। ऐसे में, फिर से यह प्रचारित करना कि शादीशुदा महिला की ज़िन्दगी ही एकमात्र आदर्श है एक साज़िश जैसी ही लगती है, जो महिलाओं की आज़ादी और विकल्प चुनने के हक को दबाने की कोशिश है।

