स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य महिलाओं के शरीर पर उनका अधिकार और संवेदनशीलता की ज़रूरत

महिलाओं के शरीर पर उनका अधिकार और संवेदनशीलता की ज़रूरत

आज भी समाज में महिलाओं के शरीर को केवल एक साधन के रूप में देखता है। जैसे वह केवल बच्चे पैदा करने और शारीरिक ज़रूरतें पूरी करने के लिए ही है। विवाह के बाद बहू के रूप में घर लाई गई महिला पर लगातार गर्भधारण का दबाव डाला जाता है, जिसके कारण उसे शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

भारतीय समाज में गर्भावस्था और प्रसव के बाद महिलाओं की देखभाल को अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाता है। प्रसव केवल बच्चे के जन्म तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके बाद महिला के शरीर और मन को स्वस्थ करने की लंबी प्रक्रिया भी है। इस समय महिला को आराम, पौष्टिक भोजन, सम्मान और भावनात्मक सहयोग की सबसे अधिक ज़रूरत होती है। लेकिन पितृसत्तात्मक सोच और सामाजिक दबाव अक्सर महिलाओं के अधिकार को अहमियत नहीं देते। उनके शरीर और प्रजनन से जुड़े निर्णय भी वही लेते हैं, जो या तो परिवार चाहता है या समाज थोपता है। ऐसे में महिलाओं के अनुभव और उनकी कहानियां हमें यह समझने का मौका देती हैं कि प्रसव के बाद संवेदनशीलता और सम्मान कितना अहम है।

गर्भावस्था के बाद यौन संबंध बनाने का समय हर महिला के शरीर और स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। आम तौर पर डॉक्टर सलाह देते हैं कि डिलीवरी के 6 से 8 हफ्ते बाद ही यौन संबंध बनाए जाएं। स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. सुचित्रा के अनुसार, “बच्चे के जन्म के बाद दंपति को कम से कम छह से आठ सप्ताह तक यौन संबंध बनाने से बचना चाहिए। इसका कारण यह है कि प्रसव के दौरान महिला की योनि और गर्भाशय का आकार बढ़ जाता है, कई बार टांके भी आते हैं और इस समय तक शरीर पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हो पाता। इस अवधि में दर्द, थकान और रक्तस्राव जैसी स्थितियां भी बनी रहती हैं। इसलिए शरीर को पूरी तरह से ठीक होने के लिए समय देना ज़रूरी है। छह सप्ताह के बाद भी यदि यौन संबंध बनाए जाएं, तो सावधानी बरतना और गर्भनिरोध का इस्तेमाल करना आवश्यक है, ताकि संक्रमण से बचा जा सके और महिला के स्वास्थ्य की सुरक्षा हो सके।”

डिलीवरी के बाद भी मुझे पैदल सफर करना पड़ा। दूसरी बेटी के जन्म के बाद पति ने न तो परहेज़ किया और न ही मेरा ख्याल रखा, बल्कि ज़बरदस्ती यौन संबंध बनाए और शारीरिक हिंसा भी की।

कम उम्र में शादी, बच्चे और मैरिटल रेप

हरियाणा के रोहतक की निवासी 45 वर्षीय मीना पारासर बताती हैं, “मेरी शादी महज 16 साल की उम्र में कर दी गई थी। 17 वर्ष की उम्र में पहली बेटी को जन्म दिया और 19 वर्ष की उम्र तक दूसरी बेटी की माँ बन गईं। उस समय मैं खुद एक बच्ची थी। मुझे अपने शरीर या जीवन के बारे में कोई समझ नहीं थी। पहली डिलीवरी में परिवार ने कुछ सपोर्ट किया पर दूसरी बेटी के समय कोई सुविधा नहीं मिली। मैं पुराने बस स्टैंड से पीजीआई तक पैदल चलकर डिलीवरी कराने गईं। डिलीवरी के बाद भी मुझे पैदल सफर करना पड़ा। दूसरी बेटी के जन्म के बाद पति ने न तो परहेज़ किया और न ही मेरा ख्याल रखा, बल्कि ज़बरदस्ती यौन संबंध बनाए और शारीरिक हिंसा भी की। कई बार तो विरोध करने पर बात यहां तक आ गई कि कमर में कांच की बोतल तक मार दी गई। मैं दूसरी बच्ची के दो महीने की होते-होते तीसरी बार गर्भवती हो गई। गर्भावस्था के दौरान भी हिंसा जारी रही।”

तस्वीर साभार: Canva

मीना आगे बताती हैं, “तीसरी बेटी के जन्म के 15 दिन बाद मुझे गंभीर इंफेक्शन हुआ और मेरा गर्भाशय बाहर आ गया, जिसका इलाज घर पर ही कराया गया। उस समय मुझे साधारण से काम में भी तेज़ दर्द होता था। चौथी बेटी का जन्म दो साल बाद हुआ, जिससे शारीरिक दिक़्कतें कुछ कम थीं, लेकिन मानसिक और घरेलू हिंसा तब भी जारी रही। लगातार गर्भधारण और उपेक्षा ने मेरी हड्डियों को बेहद कमज़ोर कर दिया, पैरों में दर्द बना रहता है और हमेशा थकान महसूस करती हूं। वह दौर मेरे लिए बेहद दर्दनाक था। खाने-पीने और स्वास्थ्य का ध्यान न मिलने की वजह से आज भी मुझे कई तरह की बीमारियों, कमजोरी और दर्द का सामना करना पड़ रहा है।”

बच्चे के जन्म के बाद दंपति को कम से कम छह से आठ सप्ताह तक यौन संबंध बनाने से बचना चाहिए। इसका कारण यह है कि प्रसव के दौरान महिला की योनि और गर्भाशय का आकार बढ़ जाता है, कई बार टांके भी आते हैं और इस समय तक शरीर पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हो पाता।

क्या महिलाओं के शरीर पर उनका अधिकार है

आज भी समाज में महिलाओं के शरीर को केवल एक साधन के रूप में देखता है। जैसे वह केवल बच्चे पैदा करने और शारीरिक ज़रूरतें पूरी करने के लिए ही है। विवाह के बाद बहू के रूप में घर लाई गई महिला पर लगातार गर्भधारण का दबाव डाला जाता है, जिसके कारण उसे शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है। प्रजनन संबंधी अधिकार, जो उसके अपने होने चाहिए, वह भी उससे छीन लिए जाते हैं। कभी समाज के दबाव में, तो कभी पति या परिवार के दबाव में। ऐसे माहौल में जब एक माँ बच्चे को जन्म देती है, तो वह पहले से ही तनाव में होती है और उस पर बच्चे की देखभाल का पूरा बोझ भी आ जाता है। नींद पूरी न होना, दर्द और लगातार थकान उसकी शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालते हैं।

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परिवार और समाज के प्रति पूरी तरह समर्पित रहने के बावजूद पितृसत्तात्मक ढांचा उसके यौन और व्यक्तिगत अधिकारों को नज़रअंदाज़ कर देता है। इस तरह उसका अस्तित्व केवल दूसरों की ज़रूरतों तक सीमित कर दिया जाता है, जबकि उसे समान सम्मान और अधिकार मिलना उसका बुनियादी हक़ है। प्रसव के बाद महिला के शरीर और मन को पूरी तरह सामान्य स्थिति में आने के लिए पर्याप्त समय और देखभाल की ज़रूरत होती है। इस दौरान पौष्टिक आहार, आराम, सकारात्मक माहौल और चिकित्सकीय सलाह का पालन करना बेहद ज़रूरी है। यदि परिवार या समाज के दबाव में महिला को पर्याप्त समय और सहयोग नहीं मिल पाता, तो यह उसके स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन पर गंभीर असर डाल सकता है। इसलिए प्रसव के बाद महिलाओं को संवेदनशीलता, सम्मान और सहयोग के साथ सही देखभाल देना पूरे परिवार और समाज की ज़िम्मेदारी है।

चौथी बेटी का जन्म दो साल बाद हुआ, जिससे शारीरिक दिक़्कतें कुछ कम थीं, लेकिन मानसिक और घरेलू हिंसा तब भी जारी रही। लगातार गर्भधारण और उपेक्षा ने मेरी हड्डियों को बेहद कमज़ोर कर दिया, पैरों में दर्द बना रहता है और हमेशा थकान महसूस करती हूं।

24 वर्षीय श्वेता शर्मा, हिसार हरियाणा की निवासी हैं। उनका विवाह 19 साल की उम्र में हुआ। श्वेता बताती हैं, “मेरी पहली बेटी 2020 में हुई थी। सी-सेक्शन डिलीवरी के बाद मुझे काफी दिक्कतें आईं। परहेज के दौरान मेरी ननद ने मुझे नहलाते समय उबलता पानी डाल दिया। वहीं डेढ़ साल बाद ही मैं दोबारा गर्भवती हो गई। गांव के डॉक्टर ने कहा कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन शहर में डॉक्टर ने डांटा कि कम से कम तीन साल रुकना चाहिए था। तब समझ नहीं आया, लेकिन अब शरीर में थकान और टांकों में दर्द रहता है। उठने-बैठने में तकलीफ होती है। अब समझ आता है कि बच्चों के बीच अंतर जरूरी है। साथ ही, दूसरी बेटी के समय भी मेरी ननद ने हिंसा की। इन सबसे मुझे बहुत मानसिक तनाव हुआ। अब मैंने पति से कह दिया है कि तीन साल तक बच्चा नहीं करेंगे। उन्होंने मेरा साथ दिया है।”

क्यों बच्चों में अंतर रखना है जरूरी

डॉ. सुचित्रा कहती हैं, “बच्चों के बीच कम से कम तीन साल का अंतर ज़रूरी है, चाहे डिलीवरी सी-सेक्शन हो या नॉर्मल। महिला को पहले बच्चे की देखभाल और उसकी ज़रूरतों—चलना, खाना-पीना, खेलना, सब संभालने का समय चाहिए। इस दौरान उसे रातों में भी जागना पड़ता है। अगर इसी बीच दूसरा बच्चा हो जाए तो महिला चिड़चिड़ी हो सकती है। परिवार और पति का साथ न मिले तो डिप्रेशन और एंग्ज़ायटी जैसी समस्याएं बढ़ सकती हैं। आजकल पोस्टमार्टम डिप्रेशन महिलाओं में बहुत गंभीर समस्या है। बच्चा होने के बाद हार्मोनल बदलाव, देखभाल का तनाव और परिवार का साथ न मिलना, इन सब कारणों से महिला अवसाद में जा सकती है।”

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महिलाओं के शरीर पर उनका सबसे ज्यादा और पूरा अधिकार होना चाहिए। गर्भावस्था और प्रसव केवल शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी गहरा असर डालते हैं। यदि महिलाओं को इस समय पर्याप्त सहयोग, सम्मान और देखभाल मिले, तो वे न केवल स्वस्थ रह सकती हैं बल्कि परिवार और समाज भी बेहतर ढंग से आगे बढ़ सकता है। बच्चों के बीच अंतर रखना, महिला को पर्याप्त आराम और पोषण देना और उसके प्रजनन संबंधी फैसलों का सम्मान करना हर परिवार और समाज की ज़िम्मेदारी है। संवेदनशीलता और समानता ही वह आधार है, जिस पर मातृत्व का अनुभव सुरक्षित और सम्मानजनक बनाया जा सकता है।

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