फरवरी 2019 में मीडिया संस्थान स्क्रॉल पर एक लेख प्रकाशित हुआ। लेख का नाम था “व्हेयर डज़ योर शिट ट्रैवेल्स एंड हू क्लीन्स इट?” इसमें चित्रों के ज़रिए यह दिखाया गया कि किस तरह से अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए सफाई का मतलब टॉयलेट में फ्लश करना भर होता है। जबकि यह मल टॉयलेट से सेप्टिक टैंक में फिर म्यूनिसिपल के सीवर सिस्टम में जाता है, जहां कोई इंसान इसे साफ़ करता है। आगे इसमें बताया गया है कि किस तरह से दलित समुदाय के लोगों को यह काम अपनाना पड़ता है और असुरक्षित परिस्थितियों में इसे करते हुए उनमें से कइयों की मौत भी हो जाती है। इसी लेख के अन्त में आंकड़ा भी दिया गया कि भारत में साल 2014 से 2016 के बीच 1327 सफाई कर्मचारियों की मौत हुई और हर रोज़ 280 सफ़ाई कर्मियों की मौत हो जाती है।
बता दें कि मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोज़गार पर निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 के तहत इस प्रथा पर रोक लगा दी गई थी, लेकिन ज़मीनी स्तर पर यह प्रथा आज भी जारी है। आज भी सेप्टिक टैंक की सफ़ाई करते समय होने वाली मजदूरों की मौतों की खबरें आपको अखबारों में और न्यूज़ चैनलों में देखने को मिल जाएंगी। मैनुअल स्कैवेंजिंग जैसे संवेदनशील मुद्दे को साल 2017 में बनी तमिल भाषा की डॉक्यूमेंटरी कक्कूस में भी उठाया गया है, जिसका निर्देशन कार्यकर्ता दिव्या भारती ने किया है। यह एक ऐसी फिल्म है जो आपको झकझोर कर रख देगी। फ़िल्म तमिल में है तो सबटाइटल्स पढ़कर ही इसे समझा जा सकता है। यह एक ऐसी फ़िल्म है जो मैनुअल स्कैवेंजर्स के प्रति संवेदना विकसित करने और उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने में आपकी मदद कर सकती है। यह डॉक्यूमेंटरी इस मायने में खास है कि मैनुअल स्कैवेंजर्स की चुनौतियों, जिनके बारे में हमारे समाज में न के बराबर बात होती है, को आप उनसे ही सुन सकते हैं। फिल्म में बार-बार आपको मानव मल नज़र आएगा और शायद घिन भी महसूस करें। लेकिन सोचिए जो पूरा-पूरा दिन इसी मानव मानव मल की सफाई में लगे रहते हैं।
डॉक्यूमेंटरी इस मुद्दे को भी उठाती है कि मैनुअल स्कैवेंजिंग के 2013 के कानून में मैनुअल स्कैवेंजर्स की जो परिभाषा दी गई है वह समस्याजनक है क्योंकि उसमें ऐसे लोगों को ही मैनुअल स्कैवेंजर्स माना गया है जो हाथ से मानव मल की सफाई करते हों। ऐसे में वे लोग इससे बाहर रह जाते हैं जो नालियों की या कचरे की सफाई का काम करते हैं, जिसमें मेडिकल कचरे से लेकर मानव मल तक सब कुछ होता है।
डॉक्यूमेंटरी इस मुद्दे को भी उठाती है कि मैनुअल स्कैवेंजिंग के 2013 के कानून में मैनुअल स्कैवेंजर्स की जो परिभाषा दी गई है वह समस्याजनक है क्योंकि उसमें ऐसे लोगों को ही मैनुअल स्कैवेंजर्स माना गया है जो हाथ से मानव मल की सफाई करते हों। ऐसे में वे लोग इससे बाहर रह जाते हैं जो नालियों की या कचरे की सफाई का काम करते हैं, जिसमें मेडिकल कचरे से लेकर मानव मल तक सब कुछ होता है। हमारे देश में तो वे लोग जो घरों से कचरा इकट्ठा करते हैं या फिर सड़कों की सफाई करते हैं उन्हें भी मल, सैनिटरी नैपकिन जैसी चीज़ों की बिना सैफ्टी गियर के सफाई करनी पड़ती है। ऐसे में यहां सभी सफाई करने वाले लोगों को मैनुअल स्कैवेंजर माना जाना चाहिए। वही इसकी सही परिभाषा हो सकती है।
मैनुअल स्कैवेंजिंग, जातिवाद और सरकार और समाज का रवैया

डॉक्यूमेंटरी शुरू होने के एक मिनट बाद के दृश्य में पीछे से आवाज़ आती है कि किस तरह से इस समाज ने अपने एक खास वर्ग को करोड़ों लोगों का पैदा किया गया टनों अपशिष्ट साफ करने का ज़िम्मा सौंप दिया है। इस दृश्य में बड़े-बड़े कचरे के पहाड़ दिख रहे हैं। आगे इसमें यह बात है कि इस दयनीय समाज के हिस्से के तौर पर क्या हमने कभी क्षण बार भी रुककर इन मजदूरों के बारे में सोचा है जो शहर को साफ़ करने के लिए भोर में और रात्रि के पहर में सफाई करने का काम करते हैं। इस तरह यह हमें उनके बारे में सोचने के लिए मजबूर करती है, जिन्हें हम हर रोज़ देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। फिल्म तमिलनाडु के सन्दर्भ में बनी है तो यह इस मुद्दे को उठाती है कि किस तरह से तमिलनाडु सरकार के इस दावे के बावजूद कि वहां मैनुअल स्कैवेंजिंग की प्रथा पूरी तरह समाप्त हो गई है, वे किसी भी इन्सान को सेप्टिक टैंक में जाने को नहीं कहते हैं और यह सब काम मशीनों से होता है। असल में व्यवहार में यह प्रथा आज भी कायम है और यह बात केवल तमिलनाडु ही नहीं सभी राज्यों के सन्दर्भ में सही है।
भारत में साल 2014 से 2016 के बीच 1327 सफाई कर्मचारियों की मौत हुई और हर रोज़ 280 सफ़ाई कर्मियों की मौत हो जाती है। बता दें कि मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोज़गार पर निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 के तहत इस प्रथा पर रोक लगा दी गई थी, लेकिन ज़मीनी स्तर पर यह प्रथा आज भी जारी है।
यही नहीं, 2013 के मैनुअल स्कैवेंजिंग की प्रथा के उन्मूलन के कानून में यह बात भी कही गई थी कि सफाई कर्मियों को सुरक्षा के 44 उपकरण प्रदान किए जाएंगे, लेकिन धरातल पर इसके इम्प्लीमेंटशन के हालात कुछ और ही हैं। फ़िल्म में ज़्यादातर सफ़ाइकर्मी यही बताते दिखते हैं कि उन्हें कुछ भी नहीं मिला।

कुछ मामलों में साल में कभी-कभी ही दिया गया, कभी देकर वापस ले लिया गया या ऐसा भी हुआ कि बूट जैसी चीज़ें ऐसी साइज़ की दी गईं जो कार्यकर्ताओं को फिट ही नहीं आईं, बूट पहनकर सेप्टिक टैंक में जाने पर बूट में पानी भर गया और ऐसे में वे इनका इस्तेमाल ही नहीं कर सके। एक सफाईकर्मी ने यह भी बताया कि सरकार ऐसी चीज़ें बनने का ठेका किसी ठेकेदार को दे देती है और फिर वे ऐसी कम गुणवत्ता की चीज़ें बनाकर बांट देते हैं जिन्हें इस्तेमाल करते समय वे फट जाती हैं।
सफाई कर्मियों के अनुभव
फिल्म के एक दृश्य में एक महिला के स्वर में यह सवाल सुनाई देता है कि क्या सफाईकर्मी कुछ परिस्थितियों में मल छूने पर मजबूर नहीं हो जाते होंगे? इस पर सफाईकर्मी जवाब देते हैं कि कचरे में जो कुछ भी आता है, उन्हें वह साफ करना पड़ता है। यहां तक कि कभी-कभी मरे हुए जानवर तक उठाने पड़ते हैं। आगे एक सफाई कर्मी यह भी बताता है कि किस तरह से उनके अधिकारी उन्हें सेप्टिक टैंक में उतरकर उसकी सफाई करने के लिए मजबूर करते हैं और इनकार करने पर नौकरी से निकालने की धमकी देते हैं। कई सफाईकर्मी जिनमें महिलाएं और पुरुष दोनों ही शामिल हैं बताते दिख जाते हैं कि इन कामों को करने के बाद उनके हाथों में बदबू आने लगती है और वे घर में खाना तक नहीं खा पाते। एक सफ़ाइकर्मी की बात काफी झकझोरने वाली है। वे कहते हैं, “उन्हें सुरक्षित रखने के लिए, हम अपनी ज़िंदगियां दांव पर लगाकर ये काम करते हैं।” एक और सफ़ाइकर्मी कहता है, “कल को अगर मुझे कुछ हो जाता है तो मेरे परिवार का ध्यान कौन रखेगा? क्या हम लोहे के बने हैं?” हाथों से सफाई करने से उनके हाथों में लालिमा भी पड़ जाती है और कचरे में कांच जैसी चीज़ें होने पर हाथों से खून भी निकलने लगता है। फिल्म के कई दृश्यों में वे अपने हाथों पर पड़े निशान व हाथों के जख्म दिखाते दिख जाते हैं।
एक सफ़ाइकर्मी की बात काफी झकझोरने वाली है। वे कहते हैं, “उन्हें सुरक्षित रखने के लिए, हम अपनी ज़िंदगियां दांव पर लगाकर ये काम करते हैं।” एक और सफ़ाइकर्मी कहता है, “कल को अगर मुझे कुछ हो जाता है तो मेरे परिवार का ध्यान कौन रखेगा?
फिल्म यह भी दिखाती है कि किस तरह से निजीकरण इनके और भी ज़्यादा शोषण की वजह बन गया है। ठेके पर उन्हें जो नौकरियां मिलती हैं उनमें उन्हें न सिर्फ कम वेतन मिलता है, बल्कि समय पर भी नहीं मिलता और कई बार कटौती करके मिलता है। कइयों के पास तो काम करने का तो कोई सबूत ही नहीं होता। ऐसे में उनके साथ किसी भी तरह की दुर्घटना होने पर उनको किसी भी तरह का मुआवज़ा मिलना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा, वे ठेकेदारों द्वारा उन्हें कभी भी काम से निकाल दिए जाने के जोखिम का सामना भी करते हैं। इनके लिए दूसरी नौकरियां ढूंढना भी मुश्किल होता है। शैक्षिक और सामाजिक स्थिति के कारण उन्हें दूसरा कोई काम आता नहीं और हर कोई उन्हें सफाई कर्मी के तौर पर ही देखता है और उन्हें नौकरी देता भी है।
इसमें यह मुद्दा भी सामने आता है कि किस तरह से स्वच्छ भारत मिशन के तहत सरकार के टॉयलेट बनाए जाने की वजह से चारदीवारी के भीतर मल को साफ करना सफाईकर्मियों के लिए और भी बड़ी चुनौती है। वे नौकरी में तो दुश्वारियों का सामना करते ही हैं समाज के लोग भी उनके साथ जातिवादी भेदभाव करते हैं। यह फ़िल्म जातिवाद का सामना करने के उनके दर्ज़नों अनुभवों से भरी पड़ी है। स्कूलों में उनके बच्चों के साथ भी भेदभाव होता है। फिल्म इस काम के लैंगिक पक्ष को भी उजागर करती है कि किस तरह से इन कार्यकर्ताओं में 90 प्रतिशत महिलाएं होती हैं, जिन्हें शारीरिक हिंसा से लेकर यौन हिंसा तक सामना करना पड़ता है। कचरे से भरी गाड़ियाँ उठाने की वजह से उनकी बच्चेदानी अपनी जगह से खिसक जाता है। मैनुअल स्कैवेंजर्स की सुध न तो सरकार को है, न गैर सरकारी संगठनों को और न किसी और को। यहाँ तक कि दलित नेता भी उनके मुद्दों को नहीं उठाते। सरकार की लापरवाही और समाज की उदासीनता की वजह से होने वाली इनकी मौतें मीडिया के लिए महज़ ब्रेकिंग न्यूज़ बनकर रह जाती हैं। फ़िल्म ऐसे सभी ज़रूरी मुद्दों को सामने लाती है।

