समाजकार्यस्थल मैनुअल स्कैवेंजिंग से मुक्ति: ज़मीनी हक़ीक़त और सरकारी दावे

मैनुअल स्कैवेंजिंग से मुक्ति: ज़मीनी हक़ीक़त और सरकारी दावे

एक तरफ संसद में दिए गए जवाबों में सरकार का कहना है कि पिछले 5 सालों में देश में मैनुअल स्कैवेंजर्स का कोई मामला सामने नहीं आया है। वहीं दूसरी ओर 6 अगस्त 2024 को सांसद शशि थरूर को दिए गए एक जवाब में मंत्रालय ने बताया बताया कि सरकारी आंकड़ों में 746 जिलों में से 732 जिले ‘मैनुअल स्कैवेंजर्स से मुक्त’ घोषित किए गए हैं।

हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में पाया गया है कि भारत में सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई वाले कामगारों में लगभग 77 फीसद लोग दलित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। सामाजिक न्याय मंत्रालय द्वारा नेशनल एक्शन फॉर मैकेनाइज्ड सैनिटेशन इकोसिस्टम (नमस्ते) कार्यक्रम के अंतर्गत 38,000 कामगारों के अध्ययन में यह आंकड़ा सामने आया है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य सेवक और सेप्टिक टैंक सफाई में मैनुअल स्कैवेंजिंग को ख़त्म कर मशीनीकृत करना और मैनुअल स्कैवेंजर्स की सुरक्षा सुनिश्चित करना है। आंकड़े के उलट, सरकार के संसद में दिए गए हालिया बयानों में यह दावा किया जा रहा है कि भारत में मैनुअल स्कैवेंजिंग का काम पूरी तरह से समाप्त किया जा चुका है। इसके साथ ही सरकार का यह भी कहना है कि यह कोई ‘जाति आधारित पेशा’ नहीं है।

सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) के राष्ट्रीय संयोजक बेजवाड़ा विल्सन के अनुसार, मैनुअल स्कैवेंजिंग का काम देश में अब भी जारी है और इस पेशे से जुड़े अधिकांश व्यक्ति दलित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। इससे यह साबित हो जाता है कि यह एक जाति आधारित पेशा है जबकि सरकार के दावे इसके ठीक विपरीत है। सफाई कर्मचारी आंदोलन के अनुसार, साल 2022-23 में 339 मैनुअल स्कैवेंजर्स की सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई करने के दौरान मौत हुई थी। यह सरकार के उसे दावे को चुनौती देता है जो बताता है कि यह एक सुरक्षित पेशा है और इसमें जाति की कोई भूमिका नहीं है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार साल 2019 से 2023 के बीच 377 दर्ज मौतें सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान हुई हैं। हालांकि सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) के अनुसार 2022-23 में ही 339 मैन्युअल स्कैवेंजर्स की मौत दर्ज़ की गई थी।

क्या बताते हैं आंकड़े

24 जुलाई को संसद में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री रामदास आठवले के हवाले से सरकार ने अपने पुराने दावे को फिर से दोहराया और कहा कि पिछले 5 सालों में देश में मैनुअल स्कैवेंजिंग का कोई मामला सामने नहीं आया है। हालांकि नमस्ते कार्यक्रम के अंतर्गत आंकड़े बताते हैं कि 68.9 फीसद मैनुअल स्कवेनजर्स अनुसूचित जाति (एससी), 14.7 फीसद अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) और 8.3 फीसद अनुसूचित जनजाति (एसटी) से आते हैं। इन आंकड़ों पर ग़ौर करने पर पता चलता है कि मैनुअल स्कैवेंजर्स का एक बड़ा हिस्सा दलित समुदाय से आता है। आज भी एक संवैधानिक देश में जाति के आधार पर यह पेशा बना हुआ है। द न्यूज़ मिनट में प्रकाशित खबर इस बात की पुष्टि करती है कि इस पेशे में दलित कामगारों की भारी संख्या है। हालांकि यह रिपोर्ट अभी तक सार्वजनिक नहीं की गई है।

तस्वीर साभार: Scroll.in

सरकार का यह दावा कि मैनुअल स्कैवेंजर्स का काम अब नहीं होता, पूरी तरह से भ्रामक और सवालों के घेरे में आता है। इसके साथ ही संसद में दिए गए सरकार के बयानों में भी विरोधाभास देखा जा सकता है। एक तरफ तो राज्यसभा सांसद साकेत गोखले और राज्यसभा सांसद अनिल कुमार यादव मंडाड़ी को संसद में दिए गए जवाबों में सरकार का कहना है कि पिछले 5 सालों में देश में मैनुअल स्कैवेंजर्स का कोई मामला सामने नहीं आया है। वहीं दूसरी ओर 6 अगस्त 2024 को सांसद शशि थरूर को दिए गए एक जवाब में मंत्रालय ने बताया बताया कि सरकारी आंकड़ों में 746 जिलों में से 732 जिले ‘मैनुअल स्कैवेंजर्स से मुक्त’ घोषित किए गए हैं। सवाल उठता है कि जब 732 जिले ही ‘मैनुअल स्कैवेंजर्स से मुक्त’ हैं तो बाकी 12 जिलों की क्या स्थिति है? सरकारी दावों, बयानों और आंकड़ों की यह विसंगति कई सवाल खड़ा करती है।

राज्यसभा सांसद साकेत गोखले और राज्यसभा सांसद अनिल कुमार यादव मंडाड़ी को संसद में दिए गए जवाबों में सरकार का कहना है कि पिछले 5 सालों में देश में मैनुअल स्कैवेंजर्स का कोई मामला सामने नहीं आया है। वहीं दूसरी ओर 6 अगस्त 2024 को सांसद शशि थरूर को दिए गए एक जवाब में मंत्रालय ने बताया बताया कि सरकारी आंकड़ों में 746 जिलों में से 732 जिले ‘मैनुअल स्कैवेंजर्स से मुक्त’ घोषित किए गए हैं।

मैनुअल स्कैवेंजिंग, सफाई का काम और परिभाषागत समस्याएं  

देश में मैनुअल स्कैवेंजर्स को चिन्हित करना और उनके लिए सटीक आंकड़े इकट्ठा करना उनके पुनर्वास और सुरक्षित वैकल्पिक रोजगार के लिए बेहद ज़रूरी है। मौजूदा क़ानून 2013 के मैनुअल स्कैवेंजर्स के ‘रोजगार निषेध और पुनर्वास अधिनियम’ के अंतर्गत आता है। इस अधिनियम की धारा 2 में मैनुअल स्कैवेंजर की परिभाषा में ऐसे कामगार को शामिल किया गया है जो स्वच्छ शौचालय में मानव मल की मैनुअल सफाई या किसी भी रूप में मानव मल के निपटान का काम करता है। ग़ौरतलब है कि इसमें सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई को शामिल नहीं किया गया है। हालांकि व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई मैनुअल स्कैवेंजिंग का ही एक हिस्सा है। यह लूपहोल मैनुअल स्कैवेंजर्स की वास्तविक स्थिति की व्याख्या में भ्रम पैदा करते हैं। 

सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई है खतरनाक

तस्वीर साभार: Scroll.in

सरकारी आंकड़ों के अनुसार साल 2019 से 2023 के बीच 377 दर्ज मौतें सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान हुई हैं। हालांकि सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) के अनुसार 2022-23 में ही 339 मैन्युअल स्कैवेंजर्स की मौत दर्ज़ की गई थी। सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई को सरकार द्वारा ‘ख़तरनाक सफाई कार्य’ के रूप में परिभाषित किया जाता है न कि मैनुअल स्कैवेंजिंग के रूप में। ख़तरनाक मैनुअल स्कैवेंजिंग वह है जब सफाई बिना सुरक्षा उपकरणों के सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई के लिए भेजा जाता है। 2023 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए एक फैसले में यह कहा गया है कि ख़तरनाक सफाई कार्य तभी वैध और क़ानूनी है जब उचित सावधानियों और सुरक्षा उपकरणों के साथ करवाया जाए। मैन्युअल स्कैवेंजर ‘रोजगार निषेध और पुनर्वास अधिनियम’ के अंतर्गत सेप्टिक टैंक और सीवर की सफाई जैसे खतरनाक कार्य करने वाले कामगारों के लिए पुनर्वास की कोई व्यवस्था नहीं है जिससे उनकी स्थिति और भी बदतर होती जा रही है।

सरकार ने साल 2020 में स्वच्छता अभियान नामक मोबाइल ऐप लॉन्च किया था जिसके माध्यम से स्वच्छ शौचालय और उनके साथ जुड़े मैनुअल स्कैवेंजर्स से संबंधित आंकड़े एकत्रित किए जा सके। हैरानी की बात है कि इस ऐप पर दर्ज़ 6256 मामलों में से किसी को भी ‘विश्वसनीय’ नहीं माना गया।

सरकारी दावे और ज़मीनी हक़ीक़त

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

सरकार ने संसद में यह दावा तो कर दिया कि भारत में वर्तमान में मैन्युअल स्कैवेंजिंग का काम नहीं होता और देश इससे मुक्त हो चुका है। लेकिन 2013 और 2018 में किए गए दो सर्वेक्षणों में 58098 पूर्व मैन्युअल स्कैवेंजर की पहचान की गई है, जिनके वर्तमान रोजगार या पुनर्वास के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। ख़ासतौर पर कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु जैसे दक्षिण भारतीय राज्यों में अभी भी सैकड़ों की संख्या में पूर्व मैनुअल स्कैवेंजर्स मौजूद हैं जो कोई दूसरा रोजगार न मिलने या पुनर्वास के अभाव में मजबूरन वापस इसी काम में या दूसरे ख़तरनाक सफाई कामों में लग गए। सरकार ने साल 2020 में स्वच्छता अभियान नामक मोबाइल ऐप लॉन्च किया था जिसके माध्यम से स्वच्छ शौचालय और उनके साथ जुड़े मैनुअल स्कैवेंजर्स से संबंधित आंकड़े एकत्रित किए जा सके। हैरानी की बात है कि इस ऐप पर दर्ज़ 6256 मामलों में से किसी को भी ‘विश्वसनीय’ नहीं माना गया। इन सब से यह साफ हो जाता है कि सरकार के पास सटीक और विश्वसनीय आंकड़ों की भी कमी है जिसकी वजह से नीति निर्माण पर नकारात्मक असर पड़ रहा है।

2013 और 2018 में किए गए दो सर्वेक्षणों में 58098 पूर्व मैन्युअल स्कैवेंजर की पहचान की गई है, जिनके वर्तमान रोजगार या पुनर्वास के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।

सुधार और बदलाव की आवश्यकता 

विज्ञान और तकनीक के निरंतर प्रगति के बावजूद, अब भी एक वर्ग विशेष देश में मैनुअल स्कैवेंजिंग जैसा अमानवीय काम करने को मजबूर है, सभ्य समाज के लिए इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है! यह न सिर्फ़ राजनीतिक बल्कि सामाजिक और जातिगत मुद्दा भी है जिसे सरकार द्वारा अनदेखा किया जा रहा है। इसमें लगे अधिकांश लोग दलित समुदाय से हैं, जो सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर अब भी हाशिए पर हैं। सिर्फ मैनुअल स्कैवेंजिंग पर निषेध या बैन लगा देने से समस्या का हल संभव नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि इनके पुनर्वास और रोजगार की उचित व्यवस्था की जाए जिससे इन्हें मजबूरन वापस उसी दलदल में न जाना पड़े। इसके साथ ही इस तरह के कामों को अधिक से अधिक मशीनीकृत किए जाने की आवश्यकता है। जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिए समाज के सभी वर्गों को समान अवसर देने और मुख्यधारा में लाने के लिए ज़रूरी और ठोस कदम उठाए जाने आवश्यक है, जिससे मैनुअल स्कैवेंजिंग जैसी अमानवीय और क्रूर प्रथा पर रोक लगाई जा सके। इन सब के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ ही समाज के सभी वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है।

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