इंटरसेक्शनलविकलांगता बेनवॉलेंट एबलिज़्म: विकलांग लोगों की मदद के नाम पर नियंत्रण का माध्यम

बेनवॉलेंट एबलिज़्म: विकलांग लोगों की मदद के नाम पर नियंत्रण का माध्यम

बेनवॉलेंट एबलिज़्म, एबलिज़्म एक रूप है। एबलिज़्म यानी समर्थवाद विकलांगता के प्रति एक विचारधारा है जिसमें विकलांग लोगों को असामान्य माना जाता है, जिन्हें इलाज और ख़ास देखभाल की ज़रूरत होती है। यह एक तरह का व्यवस्थागत उत्पीड़न है जो उन लोगों पर असर डालता है जो ख़ुद को विकलांग मानते हैं साथ ही उनको भी जिन्हें दूसरे लोग विकलांग मानते हैं।

हमारे समाज में दया और परोपकार को इंसानियत के तौर पर देखा जाता है और मदद करने को हमेशा सराहा जाता है। पर क्या कभी आपने सोचा है कि यह दया और परोपकार किसी के लिए नुकसानदेह भी हो सकती है? बेनवॉलेंट एबलिज़्म परोपकार के नाम पर होने वाले पूर्वाग्रह और भेदभाव को उजागर करता है। इसमें विकलांग या अलग क्षमता वाले लोगों के प्रति मदद को सामान्य या अच्छा समझा जाता है जबकि असल में यह उनकी आज़ादी, आत्मसम्मान और खुद फ़ैसले लेने के अधिकार को कम करता है। आज जब पूरी दुनिया में समानता और समावेशिता पर ज़ोर दिया जा रहा है ऐसे में यह समझना बेहद ज़रूरी हो जाता है कि हमारी भलाई किस तरह से दूसरे लोगों के आत्मसम्मान को कम कर उनके साथ भेदभाव को बढ़ावा देती है। 

बेनवॉलेंट एबलिज़्म, एबलिज़्म एक रूप है। एबलिज़्म यानी समर्थवाद विकलांगता के प्रति एक विचारधारा है जिसमें विकलांग लोगों को असामान्य माना जाता है, जिन्हें इलाज और ख़ास देखभाल की ज़रूरत होती है। यह एक तरह का व्यवस्थागत उत्पीड़न है जो उन लोगों पर असर डालता है जो ख़ुद को विकलांग मानते हैं साथ ही उनको भी जिन्हें दूसरे लोग विकलांग मानते हैं। यानी एबलिज़्म विकलांग लोगों के प्रति भेदभाव का एक रूप है। हालांकि भेदभाव और पूर्वाग्रह को हम हमेशा नफ़रत या घृणा के रूप में देखते हैं लेकिन कभी-कभी यह परोपकार और सहानुभूति के पीछे भी छुपा होता है। एबलिज़्म, लोगों को बाइनरी में देखने का एक नज़रिया है जो सामान्य और असामान्य जैसे दो खांचों में बंटा हुआ है। यह लोगों को उनकी विकलांगता के आधार पर लेबल देता है और यह मानता है कि उन्हें सुधार की ज़रूरत है।

बेनवॉलेंट एबलिज़्म, एबलिज़्म एक रूप है। एबलिज़्म यानी समर्थवाद विकलांगता के प्रति एक विचारधारा है जिसमें विकलांग लोगों को असामान्य माना जाता है, जिन्हें इलाज और ख़ास देखभाल की ज़रूरत होती है। यह एक तरह का व्यवस्थागत उत्पीड़न है जो उन लोगों पर असर डालता है जो ख़ुद को विकलांग मानते हैं साथ ही उनको भी जिन्हें दूसरे लोग विकलांग मानते हैं।

एबलिज़्म के तीन प्रकार

मेडिकल न्यूज़ टुडे की एक रिपोर्ट में एबलिज़्म के तीन प्रकारों के बारे में बताया गया है। इसमें सबसे सामान्य है- होस्टाइल एबलिज़्म यानी विद्वेषपूर्ण समर्थवाद, इसमें विकलांग लोगों के प्रति खुलेआम नफ़रत या हिंसा होती है। इसका दूसरा प्रकार है- बेनवॉलेंट एबलिज़्म यानी परोपकारी समर्थवाद, एबलिज़्म का यह रूप विकलांग लोगों को कमज़ोर या असुरक्षित व्यक्ति के रूप में देखता है। यह संरक्षणवादी है और व्यक्ति की वैयक्तिकता और स्वायत्तता को कमज़ोर करता है। जबकि एबलिज़्म का तीसरा रूप एंबीवेलेंट एबेलिज़्म है जो पहले दो स्वरूपों का मिला-जुला रूप होता है इसमें दोनों तरह के व्यवहारों को शामिल किया जाता है। 

तस्वीर साभार: Scroll.in

बेनवॉलेंट एबलिज़्म में व्यक्ति की ‘भलाई’ के नाम पर उनसे फ़ैसले लेने का अधिकार छीन लिया जाता है। इसके पीछे क्या सोच भी होती है कि ये अपने लिए फ़ैसला नहीं ले सकते और इन्हें मदद की ज़रूरत होती है। इसमें एक वयस्क विकलांग व्यक्ति को भी वयस्क नहीं समझा जाता है और उससे एक बच्चे की तरह व्यवहार किया जाता है, जिनके लिए फ़ैसले लेते समय उनकी राय लेना भी ज़रूरी नहीं समझा जाता। इसमें व्यक्ति अपने आप को अभिभावक और दूसरे का संरक्षक समझने लगता है। इस वजह से उन्हें असमर्थ और ख़ुद को समर्थ मान लेता है। बेनवॉलेंट एबलिज़्म ऐसा व्यवहार है जो बाहर से दिखने में तो मददगार और अच्छा दिखता है लेकिन दरअसल यह विकलांग लोगों से उनकी आज़ादी छीन लेता है और उन्हें कमज़ोर साबित करता है। यह बेहद ख़तरनाक है क्योंकि इसमें हो रहा भेदभाव ‘अच्छे इरादों’ की आड़ में छिप जाता है। यह इतना बारीक होता है कि इसको पकड़ पाना मुश्किल होता है।

बेनवॉलेंट एबलिज़्म हमें आए दिन अलग-अलग क्षेत्र में देखने को मिलते रहते हैं। ऑफिस में जब किसी विकलांग व्यक्ति को फील्ड ड्यूटी करने से यह सोचकर रोका जाता है कि उसे मुश्किल होगी तो यह भी बेनवॉलेंट एबलिज़्म कहीं एक उदाहरण है। जबकि ऐसी स्थिति में उसके सामने विकल्प रखना ज़्यादा बेहतर होगा जिससे वह अपने फैसले ख़ुद ले पाए। इसी तरह अगर अस्पताल में डॉक्टर मरीज से बिना पूछे फ़ैसला ले लें यह सोचकर कि वही बेहतर जानते हैं तो यह भी बेनवॉलेंट एबलिज़्म ही है। घर-परिवार और दोस्तों में व्यक्ति की जगह उसकी पढ़ाई, कॅरियर या रोज़मर्रा के जीवन में आने वाले तमाम छोटे बड़े फ़ैसले ले लेना भी इसी श्रेणी में आएगा।

बेनवॉलेंट एबलिज़्म हमें आए दिन अलग-अलग क्षेत्र में देखने को मिलते रहते हैं। ऑफिस में जब किसी विकलांग व्यक्ति को फील्ड ड्यूटी करने से यह सोचकर रोका जाता है कि उसे मुश्किल होगी तो यह भी बेनवॉलेंट एबलिज़्म कहीं एक उदाहरण है। जबकि ऐसी स्थिति में उसके सामने विकल्प रखना ज़्यादा बेहतर होगा जिससे वह अपने फैसले ख़ुद ले पाए।

बेनवॉलेंट एबलिज़्म हॉस्टाइल एबलिज़्म से कैसे अलग है

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

बेनवॉलेंट एबलिज़्म और हॉस्टाइल एबलिज़्म दोनों ही विकलांगता के प्रति भेदभाव के रूप हैं, लेकिन इनमें बड़ा फ़र्क है। बेनवॉलेंट एबलिज़्म बाहर से देखने में एबलिज़्म या भेदभाव जैसा लगता ही नहीं बल्कि मदद या परोपकार जैसा लगता है। जैसे किसी विकलांग व्यक्ति के लिए कठिन दिखने वाला कोई काम ख़ुद कर देना या उन्हें विकलांग होने के नाते ख़ास मदद की पेशकश करना। यह एक तरह का भेदभाव है क्योंकि यह व्यवहार उस समय वहां मौजूद ग़ैर विकलांग लोगों के लिए नहीं किया जा रहा होता है। जबकि हॉस्टाइल एबलिज़्म किसी विकलांग व्यक्ति के प्रति पूरी तरह से नफ़रत और द्वेष से भरा व्यवहार होता है जो खुले तौर पर दिख जाता है। इसमें विकलांग व्यक्ति का मज़ाक उड़ाना, बुली करना, उत्पीड़न और हिंसा तक शामिल है। इस तरह से देखा जाए तो हॉस्टाइल एबलिज़्म सीधे तौर पर नुकसान पहुंचाता है जबकि बेनवॉलेंट एबलिज़्म भलाई या मदद के नाम पर भेदभाव करता है।

बेनिवॉलेंट एबलिज़्म: हीरो या बेचारा की बाइनरी 

बेनिवॉलेंट एबलिज़्म की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह व्यक्ति को उसकी सामान्य पहचान से वंचित कर देता है। यह व्यक्ति को सिर्फ़ एक विकलांग के तौर पर देखता है जो या तो असामान्य हो सकता है या फिर असाधारण। इसमें या तो वह हीरो है यानी असाधारण रूप से प्रतिभासंपन्न जो काम आम इंसान नहीं कर सकते वो कर दिखाता है। हमें आए दिन ख़बरों में यह देखने को मिलता है कि अमुक व्यक्ति ने ‘विकलांग होते हुए भी’ कोई कठिन परीक्षा पास कर ली, खेलकूद में सफलता हासिल कर ली या फिर कोई शानदार नौकरी हासिल कर ली। इसी तरह छोटे-छोटे कामों को कर लेने पर तारीफ़ करना भी इसी का एक हिस्सा है। इसके पीछे यह भावना होती है कि वह इसे करने में समर्थ नहीं है इसलिए यह प्रेरणा देने वाली बात हो गई। 

बेनवॉलेंट एबलिज़्म और हॉस्टाइल एबलिज़्म दोनों ही विकलांगता के प्रति भेदभाव के रूप हैं, लेकिन इनमें बड़ा फ़र्क है। बेनवॉलेंट एबलिज़्म बाहर से देखने में एबलिज़्म या भेदभाव जैसा लगता ही नहीं बल्कि मदद या परोपकार जैसा लगता है। जैसे किसी विकलांग व्यक्ति के लिए कठिन दिखने वाला कोई काम ख़ुद कर देना या उन्हें विकलांग होने के नाते ख़ास मदद की पेशकश करना।

इसी तरह एक नज़रिया यह भी है कि वह ‘बेचारा’ है जो कुछ नहीं कर सकता और उसे हर चीज के लिए मदद की ज़रूरत है और वह दया का पात्र है। इसमें यह माना जाता है कि वह साधारण जीवन नहीं जी सकता है। उसे अपने रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। पढ़ाई, खेलकूद, नौकरी और शादी हर जगह ‘छूट’ या ‘विशेष सुविधा’ की बात की जाती है, जैसे वह इनका हक़दार नहीं फिर भी उस पर दया की जा रही हो। इस तरह बेनिवॉलेंट एबलिज़्म में व्यक्ति को असामान्य या असाधारण समझा जाता है, जिसके अनुसार उससे भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है।

बेनवॉलेंट एबलिज़्म कैसे नुकसान पहुंचाता है?

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया

बेनिवॉलेंट एबलिज़्म व्यक्ति से उसकी आज़ादी और उससे अपने लिए भी फ़ैसले लेने का हक़ छीन लेता है। इसके पीछे यह सोच होती है कि विकलांग व्यक्ति कमज़ोर होते हैं और वह अपने लिए भी कुछ नहीं कर सकते। इससे सामने वाला सोचता है कि वह उसकी मदद कर रहा है लेकिन असल में यह मदद उसे दोयम दर्ज़े का एहसास कराती है। इससे विकलांग व्यक्ति को चुनौतियों से जूझने और संघर्ष करने का मौका नहीं मिल पाता है जिससे वे बहुत सारी चीजें सीखने से वंचित रह जाते हैं। साथ ही उनके अंदर भी यह भावना आ जाती है कि वह कमजोर हैं और इससे उनके आत्मविश्वास के साथ ही आत्मसम्मान भी कम होने लगता है।

बेनिवॉलेंट एबलिज़्म व्यक्ति से उसकी आज़ादी और उससे अपने लिए भी फ़ैसले लेने का हक़ छीन लेता है। इसके पीछे यह सोच होती है कि विकलांग व्यक्ति कमज़ोर होते हैं और वह अपने लिए भी कुछ नहीं कर सकते। इससे सामने वाला सोचता है कि वह उसकी मदद कर रहा है लेकिन असल में यह मदद उसे दोयम दर्ज़े का एहसास कराती है।

बेनिवॉलेंट एबलिज़्म न सिर्फ़ व्यक्तिगत स्तर पर नुकसान पहुंचाता है बल्कि नीतिगत स्तर पर भी यह ख़तरनाक साबित होता है। जब विकलांग व्यक्तियों के लिए कल्याणकारी योजनाएं बनाई जाती हैं तो इसमें उन्हें मुख्यधारा में बराबरी के साथ शामिल करने के बजाय ‘विशेष छूट’ या ‘रियायत’ देने का प्रावधान किया जाता है। जैसे कि विकलांग पेंशन या भत्ता देना कोई समाधान नहीं है बल्कि उनके लिए सार्वजनिक जगहों को सुलभ बनाने और रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराने की ज़रूरत है तभी समावेशी विकास मुमकिन हो सकता है। समाज में लंबे समय से विकलांगता को दुख या कमज़ोरी की तरह दिखाया गया है इसलिए बहुत सारे लोग अनजाने में ही सहानुभूति के नाम पर बेनिवॉलेंट एबलिज़्म को बढ़ावा देने का काम करते हैं।

क्या हो सकता है आगे का रास्ता

बेनिवॉलेंट एबलिज़्म समाज की जड़ों में गहराई से बैठी हुई है जिसका समाधान करने के लिए सबसे पहले इसे समझना ज़रूरी है। इसके लिए विकलांग व्यक्तियों की ज़रूरतों का खुद से अंदाज़ा लगाने के बजाय उनसे सीधे बातचीत करना बेहतर होगा। उनकी जगह फ़ैसले लेने की बजाय उन्हें चयन का विकल्प देना समावेशिता के लिए ज़्यादा कारगर है। हमें अपनी भाषा में संवेदनशीलता को शामिल करना चाहिए ‘हीरो’, ‘बेचारा’, ‘प्रेरणा’, ‘विकलांग होते हुए भी’ जैसे शब्दों से बचना चाहिए क्योंकि यह भेदभावपूर्ण है और पूर्वाग्रहों को बढ़ावा देते हैं। इसके लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता फैलाना भी ज़रूरी है जिससे विकलांग अधिकारों, इतिहास और ज़रूरतों के बारे में सभी को जानकारी हासिल हो सके। हमें व्यक्ति की क्षमताओं के लिए सही अवसर और सुविधाएं मुहैया करानी चाहिए जिससे वे अपने व्यक्तित्व का समुचित विकास कर सकें। दया या परोपकार के बजाय अधिकार पर ज़ोर देना ज़्यादा ज़रूरी है। सबके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, रोजगार और हर क्षेत्र में समान अवसर उपलब्ध कराना ही न्याय है जो स्वतंत्रता, समानता और समावेशी विकास को सुनिश्चित कर सकता है। क्योंकि समाज तभी मानवीय है जब उसमें हर तरह के लोग बराबरी से जी सकें।

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