इंटरसेक्शनलविकलांगता एबलिज़्म क्या है और यह हमारे समाज को कैसे प्रभावित करता है?

एबलिज़्म क्या है और यह हमारे समाज को कैसे प्रभावित करता है?

एबलिज़्म एक ऐसी सोच और व्यवहार है जिसमें शारीरिक या मानसिक रूप से  विकलांग व्यक्तियों  के साथ  समाज में भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया  जाता है।  यह मान लिया जाता है कि जो लोग पूरी तरह से चल सकते हैं, बोल सकते हैं, सुन सकते हैं या देख सकते हैं वही 'सामान्य' हैं।

मेरियम-वेबस्टर के ऑनलाइन शब्दकोश के अनुसार, एबलिज्म शब्द का उपयोग साल 1981 में हुआ था। एबलिज़्म एक ऐसी सोच और व्यवहार है जिसमें शारीरिक या मानसिक रूप से  विकलांग व्यक्तियों  के साथ  समाज में भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया  जाता है।  यह मान लिया जाता है कि जो लोग पूरी तरह से चल सकते हैं, बोल सकते हैं, सुन सकते हैं या देख सकते हैं वही ‘सामान्य’ हैं और जो लोग किसी भी शारीरिक, मानसिक या बौद्धिक समस्या या परेशानी के साथ जीते हैं, वे अलग और कमजोर हैं।  इसी सोच को एबलिज़्म कहा जाता है। इस सोच के कारण विकलांग  व्यक्ति खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं और उन्हें बराबरी के मौके नहीं मिल पाते।

एबलिज़्म के रूप क्या-क्या हो सकते हैं

हम लोग  एक ऐसे समाज का हिस्सा हैं, जिसमें हम हर चीज में परफेक्शन ढूंढते हैं। फिर चाहे वो कोई इंसान हो, जानवर या फिर कोई सामान ही क्यों न हो। अक्सर जो भी हमारी नज़र में थोड़ा भी अलग दिखता है, तो हम उसका मज़ाक बनाना शुरू कर देते हैं। हम ये नहीं सोचते कि सामने वाले व्यक्ति पर इसका क्या असर पड़ सकता है। एबलिज़्म का एक रूप भाषाई भेदभाव है। भाषाई भेदभाव जिसे लिंग्विस्टिक एबलिज़्म भी कहा जाता है, उस भाषा या शब्दों के उपयोग को दिखाता है, जो विकलांग  व्यक्तियों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण  को बढ़ावा देता है। यह भेदभाव अक्सर अनजाने में होता है, लेकिन इसके प्रभाव गहरे होते हैं। उदाहरण के लिए, जब हम किसी को अंधा या पागल कहते हैं, तो हम अनजाने में विकलांगता  को नकारात्मकता से जोड़ते हैं। ऐसे वाक्यांश समाज में उनके प्रति गलत धारणाओं को भी मजबूत करते हैं। 

संरचनात्मक एबलिज़्म

आमतौर पर सार्वजनिक स्थानों में  हर एक सुविधा एक ऐसे व्यक्ति को  को मद्देनजर रखते हुए डिजाइन  की जाती है  जो चल-फिर, देख और सुन सकता है।  सार्वजनिक स्थान, जैसे स्कूल, कॉलेज, दफ्तर, अस्पताल, या बस अड्डे, इस तरह डिज़ाइन नहीं किए जाते कि वे हर तरह की शारीरिक क्षमता वाले लोगों के लिए सुलभ हों। इसे संरचनात्मक एबलिज़्म कहा जाता  है। साल 2018 की एक रिपोर्ट में पाया गया कि भारत की केवल 3 फीसद इमारतें ही विकलांग व्यक्तियों  के लिये पूरी तरह से सुलभ हैं। वर्ष 2015 में शुरू किये गए सुगम्य भारत अभियान के बावजूद, अधिकांश सार्वजनिक स्थान, परिवहन प्रणालियां और शहरी बुनियादी ढांचा विकलांग व्यक्तियों  के लिये दुर्गम बना हुआ है। जिन स्कूलों या कॉलेजों में पहुंच की सुविधा नहीं है, वहां विकलांग बच्चे आसानी से दाखिला नहीं ले पाते या लगातार उपस्थित नहीं रह पाते, जिससे इन व्यक्तियों की शिक्षा भी बाधित हो जाती है।

तस्वीर साभार: NDTV

अपनी क्षमता के बावजूद, विकलांग व्यक्तियों  को कार्यस्थल पर भी भेदभाव, भेदभावपूर्ण कामकाजी वातावरण और सीमित व्यावसायिक प्रशिक्षण अवसर मिलते हैं जिससे रोज़गार में बहुत-सी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। एनडीटीवी की रिपोर्ट अनुसार भारत में लगभग 3 करोड़ विकलांग व्यक्ति हैं, जिनमें से लगभग 1.3 करोड़ रोज़गार योग्य हैं। लेकिन उनमें से केवल 34 लाख को ही रोज़गार मिला है। केवल 23 फीसद विकलांग महिलाएं ही कामकाज़ी हैं, जबकि 47 फीसद विकलांग पुरुष काम कर रहे हैं। इसके अलावा हाशिये के समुदायों के विकलांग व्यक्तियों  को तिहरे भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिससे उनका सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार  और भी बढ़ जाता है।

अदृश्य विकलांगताओं को नज़रअंदाज़ करना

जब भी  विकलांगता की बात की जाती है  तो ज़्यादातर लोग यह सोचते हैं कि  जो साफ़ दिखे  जैसे व्हीलचेयर, बैसाखी उपयोग करने वाले लोग या सुनने की मशीन इस्तेमाल करने वाले लोग। लेकिन, कई विकलांगताएं ऐसी होती हैं जो शारीरिक रूप से नहीं दिखाई देती। कुछ अदृश्य  विकलांगताओं में अल्जाइमर, ऑटिज़्म, बहरापन, एडीएचडी/एडीडी आदि शामिल है। ऐसी विकलांगताएं दिखाई नहीं देती जिस कारण समाज और नीतियां बनाने वाले इन्हें नज़रअंदाज़ कर देते हैं। ऐसे में विकलांग व्यक्तियों को वो अधिकार और सुविधाएं नहीं मिल पाती। यहां तक कि उन्हें नॉर्मल दिखने के बावजूद ‘अक्षम’ होने के लिए जज किया जाता है। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे हर गतिविधि में समान रूप से शामिल हों, जबकि ये उनके संभव नहीं भी हो सकता है।

एबलिज़्म का प्रभाव

एबलिज़्म केवल शारीरिक मुश्किलों तक सीमित नहीं है। इसका असर विकलांग  व्यक्ति के जीवन के हर हिस्से पर होता है। जब समाज मानता है कि सामान्य शरीर ही सही है, तो विकलांग  व्यक्ति हमेशा पीछे रह जाते हैं। उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और समाज में बराबरी का मौका नहीं मिलता। इस भेदभाव का गहरा मानसिक प्रभाव भी हो सकता है। इससे आत्मविश्वास में कमी और आत्मसंदेह हो सकता है। जब संस्थाओं में नीतियां और नियम विकलांग लोगों के मद्देनजर नहीं बनाए जाते, तो वे अपने अधिकारों से दूर हो जाते हैं। एबलिज़्म एक ऐसी बाधा बन जाती है जो समाज में असमानता को कायम रखने में कारक की तरह काम करती है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

एबलिज़्म सिर्फ किसी जगह तक पहुंच में समस्या या खराब शब्दों के चयन तक सीमित नहीं है। यह रोज़मर्रा के जीवन में विकलांग व्यक्तियों   के खिलाफ़ होने वाली हिंसा को भी बढ़ावा देने का काम करती है। यह हिंसा कई तरीके से हो सकती है। जैसे स्कूलों में विकलांग  बच्चों का मज़ाक बनाना, अस्पतालों में उनकी परेशानियों को नजरअंदाज करना, घर में उन्हें ‘बोझ’ या कमतर समझना और नीति निर्माण में उनके विषय में न सोचा जाना। जब एक व्हीलचेयर उपयोग करने वाले को बस में चढ़ने की सुविधा नहीं होती या फिर जब एक मानसिक स्वास्थ्य समस्या से जूझ रहे व्यक्ति को पागल कहा जाता है, तब वह उस व्यक्ति के लिए यह अपमान हिंसा का ही एक रूप होता है।

एबलिज़्म से कैसे बचें

स्कूल, कॉलेज और समुदाय में जागरूकता और संवेदनशीलता फैलाई जानी चाहिए ताकि समाज में रह रहे सभी व्यक्तियों को यह समझ आए कि एबलिज़्म क्या है। विकलांगता को ‘परेशानी’ या ‘दुखद घटना’ के तौर पर नहीं बल्कि एक अलग-अलग व्यक्ति की अलग-अलग जरूरतों की तरह देखा जाना चाहिए। लोगों को अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल से बचना चाहिए। विकलांग व्यक्ति के लिए समान रूप से सम्मानजनक और स्वीकृत शब्दों का ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए। ये भी जरूरी है कि हम पहले सामने वाले व्यक्ति से जान लें कि क्या वो अपनी विकलांगता के साथ संबोधित होना चाहते हैं या नहीं। सार्वजनिक स्थानों, अस्पताल, स्कूल या दफ्तर जैसे  सभी जगहों पर रैम्प, ब्रेल की व्यवस्था, साइन लैंग्वेज जानकार आदि जैसी चीजें शामिल की जानी चाहिए। यह ध्यान देना जरूरी है कि व्यक्ति चाहे विकलांग हो या नहीं, बिना किसी परेशानी के हर जगह जा सके, सुविधाओं तक पहुंच हो और सारे अधिकार मिले। देश को एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए अपनी नीतियों में ही नहीं बल्कि लोगों को अपनी मानसिकता और रवैये में भी बदलाव लाने की जरूरत है ताकि विकलांग व्यक्ति डिजिटल और भौतिक दोनों जगहों पर स्वतंत्रता के साथ पूरी तरह से भाग ले सकें।

विकलांग लोगों को ऊंचे पदों पर या नेतृत्व के प्रमुख पदों पर से सिर्फ इसलिए नहीं हटाना चाहिए कि वे विकलांग हैं। समावेशिता के महत्व को समझना जरूरी है क्योंकि एक विकलांग व्यक्ति दलित, आदिवासी, महिला या क्वीयर भी हो सकते हैं। एबलिज़्म हमारे आस-पास फैली एक ऐसी सोच है जो अक्सर अनजाने में ही विकलांग व्यक्तियों को समाज के मुख्यधारा से दूर कर देती है। जब हम किसी की क्षमता को उसके शरीर या दिमाग की स्थिति से आंकते हैं, तो हम न सिर्फ उसकी पहचान, बल्कि उसकी संभावनाओं को भी सीमित कर देते हैं। एक समावेशी और संवेदनशील समाज वही होगा जहां हर व्यक्ति को उसकी विविधता के साथ अपनाया जाए, और सभी के लिए समान अवसर सुनिश्चित किए जाएं। एबलिज़्म को दूर करना केवल विकलांग लोगों की नहीं, हम सबकी ज़िम्मेदारी है  और यह बदलाव हमारी सोच, भाषा और व्यवहार से शुरू हो सकता है।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content