समाजकैंपस कैसे पाठ्यपुस्तकों का लैंगिक भेदभाव बच्चों को असमानता सिखा रहा है

कैसे पाठ्यपुस्तकों का लैंगिक भेदभाव बच्चों को असमानता सिखा रहा है

राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद   दिल्ली के जेंडर ऑडिट में पाया गया कि किताबों में 70 फीसद से ज्यादा प्रमुख किरदार पुरुष हैं। वहीं, महिला किरदारों में से 60 फीसद घरेलू भूमिकाओं में दिखाए गए।

हम जब बच्चों के हाथ में किताबें थमाते हैं तो सोचते हैं कि ये किताबें उन्हें दुनिया से मिलाएंगी, उनके सपनों को रास्ता देंगी और उन्हें बराबरी का समाज समझाएंगी। लेकिन सच्चाई यह है कि आज हमारी स्कूल की किताबें ही सबसे पहले बच्चों को ये सिखा देती हैं कि महिलाएं कहां हैं और कहां नहीं। गणित के सवाल में ‘रामू खेत जोतता है’, इतिहास में ‘महान राजा’ और विज्ञान में ‘ आविष्कार करने वाले पुरुष’ जैसे तथ्य भले सामान्य लग रहे हों लेकिन हैं नहीं। हमारी किताबों ने न सिर्फ महिलाओं का जिक्र कम किया है बल्कि इन्हें ज़्यादातर माँ, पत्नी, या त्याग की मूर्ति के रूप में चित्रित किया है। हमारे किताबों में महिलाएं वैज्ञानिक, नेता, खोजकर्ता या निर्णायक किरदार के रूप में कहां हैं? यह सवाल सिर्फ एक तंज़ नहीं है, बल्कि हमारे पूरे समाज की गहरी बीमारी का आईना है। 

जब कोई बच्चा पहली कक्षा से लेकर बारहवीं तक ऐसी किताबें पढ़े जिसमें महिलाएं या तो गायब हों या फिर ज्यादा कमजोर या सीमित स्थिति में दिखें और जिसमें पुरुष नायक हों, तो सोचिए उनकी धारणाओं और विचारों पर इसका कितना असर पड़ेगा। एक लड़की यह अमूमन मान लेती है कि वह कभी वैज्ञानिक या नेता नहीं बन सकती। वहीं एक लड़का यह मानता है कि उसका काम बाहर जाकर ‘बड़े-बड़े काम’ करना है, और घर-गृहस्थी महिलाओं के हिस्से का काम है। राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एससीईआरटी)  दिल्ली के जेंडर ऑडिट में पाया गया कि किताबों में 70 फीसद से ज्यादा प्रमुख किरदार पुरुष हैं। वहीं, महिला किरदारों में से 60 फीसद घरेलू भूमिकाओं में दिखाए गए। सोचिए, जिस समाज में आज महिलाएं खेत से लेकर दफ्तर तक बराबरी से काम कर रही हैं, वहां किताबों में वे अब भी मूल रूप से सिर्फ़ रसोई और बच्चों तक सीमित कर दी गई हैं।

राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एससीईआरटी)  दिल्ली के जेंडर ऑडिट में पाया गया कि किताबों में 70 फीसद से ज्यादा प्रमुख किरदार पुरुष हैं। वहीं, महिला किरदारों में से 60 फीसद घरेलू भूमिकाओं में दिखाए गए।

किताबों में लैंगिक भेदभाव से समाज पर असर

तस्वीर साभार : फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

किताबों का असर सीधा समाज पर पड़ता है। जब पीढ़ियों तक बच्चों को यही दिखाया गया कि नेता, योद्धा, वैज्ञानिक और कलाकार पुरुष ही होते हैं, तो बड़े होकर वही बच्चे महिलाओं की नेतृत्व क्षमता को सहज स्वीकार नहीं कर पाते। यही वजह है कि आज भी जब कोई महिला राजनीति या विज्ञान में ऊंचाई पर पहुंचती  है तो समाज उसे “अपवाद” या रूढ़िवादी नियमों के विरुद्ध कहकर पेश करता है। दिल्ली एससीईआरटी की जेंडर ऑडिट रिपोर्ट ऑफ टेक्स्ट बुक साफ दिखाती है कि प्राथमिक कक्षाओं की किताबों में महिला किरदार या तो बेहद कम हैं या फिर रूढ़िबद्ध भूमिकाओं तक सीमित हैं। 

उदाहरण के लिए, हिंदी की कहानियों में महिलाएं अक्सर सिर्फ़ आज्ञाकारी बेटी या माँ की तरह और घरेलू काम करती हुई दिखाई जाती हैं, जबकि पुरुष  जिज्ञासु, बहादुर और बाहर निकलकर काम करने वाले दिखाए जाते हैं। यानी बचपन से ही बच्चे देख रहे हैं कि समाज में असली काम पुरुष करते हैं और महिलाएं पृष्ठभूमि में रहती हैं। यानी घर -परिवार के इर्द गिर्द ही उनकी दुनिया सिमित कर दी जाती है। अगर ट्रांस, क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों की बात की जाए तो इन्हें अक्सर हर जगह ही नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। साल 2024 की यूनेस्को  की जेंडर रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में शिक्षा के ज़रिए लैंगिक बराबरी हासिल करने में महिलाएं अभी भी पीछे है। जब किताबों में महिलाओं की भूमिका सीमित रखी जाती है तो यह सीधे-सीधे बच्चों के आत्मविश्वास पर असर डालता है। बच्चा जब बार-बार किताबों में देखता है कि लड़कियां या महिलाएं सिर्फ सहायक भूमिकाओं में हैं, तो वह मान लेता है कि यही ‘नॉर्मल’ है या सही है ।

जब पीढ़ियों तक बच्चों को यही दिखाया गया कि नेता, योद्धा, वैज्ञानिक और कलाकार पुरुष ही होते हैं, तो बड़े होकर वही बच्चे महिलाओं की नेतृत्व क्षमता को सहज स्वीकार नहीं कर पाते। यही वजह है कि आज भी जब कोई महिला राजनीति या विज्ञान में ऊंचाई पर पहुंचती  है तो समाज उसे ‘अपवाद’ कहकर पेश करता है।

लड़कियों की शिक्षा और पाठ्यक्रम में छिपा पक्षपात

तस्वीर साभार : Canva

टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी यूनेस्को की एक रिपोर्ट बताती है कि,  प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा तक पहुंच के मामले में भारत में लड़कियों की संख्या अभी भी बहुत कम है । प्राथमिक स्तर पर प्रवेश पाने वालों में केवल 47 फीसदी लड़कियां हैं। जबकि माध्यमिक स्तर पर यह संख्या घटकर 43 फीसदी  रह जाती है। यह गिरावट सिर्फ आर्थिक कारणों से नहीं होती, बल्कि इस धारणा से भी होती है कि लड़कियों को आगे चलकर वैसे भी घर संभालना है। यही कारण है कि कई बार हम देखते हैं कि लड़कियां पढ़ाई में अव्वल होने के बावजूद आगे की पढ़ाई छोड़ देती हैं। परिवार कहता है कि लड़कियों को इतना पढ़ाने की क्या ज़रूरत है। यह सोच पाठ्यपुस्तकों और समाज, दोनों से आती है। यह सिर्फ डाटा नहीं, बच्चों के दिमाग और भविष्य का सवाल है। असल में किताबें ये तय करने में एक बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है कि बच्चे बड़े होकर अपने घर और समाज में महिलाओं को किस तरह देखेंगे।

दरअसल, किताबों में पितृसत्ता समाज का ही विस्तार है। यह वही समाज है जो महिलाओं को चूल्हे तक सीमित रखना चाहता है और उसी सोच को शिक्षा के जरिए पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ा देता है। किताबों में महिलाओं की गैरमौजूदगी महज एक भूल नहीं, बल्कि एक राजनीतिक चुप्पी है। यह चुप्पी बताती है कि किसे जगह दी जानी चाहिए और किसे नहीं। पाठ्यक्रम का पक्षपात कोई अकेला मुद्दा नहीं है। यह उसी परिघटना का हिस्सा है जिसमें हमारा समाज लगातार लड़कियों और महिलाओं  को ‘दूसरे दर्जे’ की नागरिक मानता है। छोटे कस्बों और गांवों में तो यह और भी साफ़ तौर पर दिखाई देता है। जब लड़कियों से उम्मीद की जाती है कि वे पढ़-लिख भी लें तो भी आखिरकार घर और रसोई ही संभालेंगी।

प्राथमिक स्तर पर प्रवेश पाने वालों में केवल 47 फीसदी लड़कियां हैं। जबकि माध्यमिक स्तर पर यह संख्या घटकर 43 फीसदी  रह जाती है। यह गिरावट सिर्फ आर्थिक कारणों से नहीं होती, बल्कि इस धारणा से भी होती है कि लड़कियों को आगे चलकर वैसे भी घर संभालना है।

भारत में शिक्षा और रोजगार में महिलाओं की सीमित पहुंच

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट (सीजीडी) की एक रिपोर्ट बताती है, कि भारत में महिलाओं  की शिक्षा का असर रोजगार तक पहुंचने में बहुत कमजोर है। यानी शिक्षा पाने के बाद भी उन्हें वही नौकरी या अवसर नहीं मिलते जो पुरुषों को मिलते हैं। इसका कारण सिर्फ़ आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक भी है जहां  लड़की के ‘काम करने’ को ही सवालिया नज़र से देखा जाता है या शारीरिक क्षमता के आधार पर कमतर आंका जाता है। अगर शिक्षा के क्षेत्र में नेतृत्व पदों में महिलाओं की भागीदारी की बात की जाए तो यह भी बहुत कम है। 

इंडिया टुडे में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में साल 2021 में 189 राष्ट्रीय संस्थानों में केवल 5 फीसदी  महिलाएं ही कुलपति या निदेशक जैसे पदों पर थीं। साथ ही इसके बाद 1,220 विश्वविद्यालयों के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि केवल 9 फीसदी महिला कुलपति थीं, और 11 फीसदी रजिस्ट्रार या शीर्ष प्रशासनिक पदों पर थीं। इससे यह साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि भारत में सभी प्रकार के स्कूलों में प्रधानाध्यापकों के रूप में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है।

भारत में महिलाओं  की शिक्षा का असर रोजगार तक पहुंचने में बहुत कमजोर है। यानी शिक्षा पाने के बाद भी उन्हें वही नौकरी या अवसर नहीं मिलते जो पुरुषों को मिलते हैं। इसका कारण सिर्फ़ आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक भी है जहां  लड़की के ‘काम करने’ को ही सवालिया नज़र से देखा जाता है।

साक्षरता सिर्फ अक्षर नहीं, बराबरी भी है

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

अगर हमें सच में बराबरी वाला समाज चाहिए, तो शुरुआत किताबों से करनी होगी। क्यों न गणित के सवाल में ‘सीमा खेत जोतती है’ भी हो? क्यों न इतिहास में झांसी की रानी, एनी बेसेंट या सावित्रीबाई फुले को उतनी ही जगह मिले जितनी पुरुष नायकों को मिली? क्यों न विज्ञान में कालिदास की तरह मैरी क्युरी  जैसी महिला वैज्ञानिक को भी एक साथ पढ़ा जाए।  छोटे-छोटे बदलाव बच्चों की सोच पर बड़ा असर डाल सकते हैं। जब लड़कियां किताबों में अपने जैसे किरदारों को बड़े सपने देखते हुए पाएंगी, तो उनके लिए भी वह सपना हकीकत लगेगा। और लड़के भी सीखेंगे कि बराबरी का मतलब है साथ चलना, न कि हुक्म चलाना। सवाल सिर्फ़ इतना नहीं है कि किताबों में महिलाएं कहां हैं। सवाल यह है कि हमारे समाज के भविष्य में महिलाओं  की जगह कहां होनी चाहिए।

अगर हम बच्चों को बचपन से ही यही सिखाएंगे  कि लड़कियां  सिर्फ़ सहायक पात्र हैं, तो आगे चलकर वे बराबरी के नागरिक कैसे बनेंगे? पितृसत्ता किताबों और समाज, दोनों में गहरी जगह बना चुकी है। लेकिन बदलाव मुमकिन है, बशर्ते हम सच में इसके लिए तैयार हों। शिक्षा वह पहला औजार है जिससे समाज बदला जा सकता है। हमें पाठ्य पुस्तकों को ऐसा बनाना होगा जो हर बच्चे को बराबरी का सपना दिखाएं। आज जब हम साक्षरता दिवस मनाते हैं, तो यह सोचना जरूरी है कि साक्षरता का मतलब सिर्फ़ अक्षर पढ़ना नहीं है, बल्कि बराबरी को समझना और जीना भी है। अगर किताबों में महिलाएं बराबरी से नहीं दिखेंगी, तो समाज में भी बराबरी अधूरी ही रहेगी। अब वक्त है कि हम यह सवाल जोर से पूछें ‘स्कूल की किताबों में महिलाएं कहां हैं?’ और यह यकीन दिलाएं कि अगली पीढ़ी को इसका जवाब बराबरी में ही मिलेगा। जहां महिला और पुरुष की भूमिकाएं अलग – अलग नहीं होंगी, बल्कि बराबर होंगी। 

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content