इंटरसेक्शनलजेंडर ग्लोबल जेंडर गैप 2025: भारत की गिरती रैंकिंग और लैंगिक समानता की चुनौतियां

ग्लोबल जेंडर गैप 2025: भारत की गिरती रैंकिंग और लैंगिक समानता की चुनौतियां

ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2025 के अनुसार, भारत की रैंकिंग 146 देशों की संख्या में से 131वें स्थान पर पहुंच गई है। यह 2024 की रैंकिंग से दो स्थान नीचे है। तब भारत 129 वें स्थान पर था।

लैंगिक समानता किसी भी लोकतांत्रिक और समावेशी समाज की बुनियादी जरूरत है। यह केवल महिलाओं और पुरुषों के बीच बराबरी की बात नहीं करती, बल्कि यह सुनिश्चित करती है कि हर व्यक्ति चाहे वह किसी भी लिंग, जाति, वर्ग, क्षेत्र या शारीरिक पहचान से जुड़ा हो अपनी पूरी क्षमता के साथ समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था में भाग ले सकता है। इस समानता के मूल्यांकन के लिए विश्व आर्थिक मंच हर साल एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट जारी करता है, जिसे ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स कहा जाता है। यह इंडेक्स चार महत्वपूर्ण क्षेत्रों में महिलाओं और पुरुषों के बीच मौजूद असमानताओं को मापता है, जिसमें आर्थिक भागीदारी और अवसर, शैक्षिक उपलब्धि, स्वास्थ्य और अस्तित्व, तथा राजनीतिक सशक्तिकरण शामिल है। 

द न्यूज मिनट में छपी रिपोर्ट ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2025 के अनुसार, भारत की रैंकिंग 146 देशों की संख्या में से 131वें स्थान पर पहुंच गई है। यह साल 2024 की रैंकिंग से दो स्थान नीचे है, जब भारत 129वें स्थान पर था। यह गिरावट केवल एक आंकड़ा नहीं है, बल्कि यह उन गहरी और स्थायी असमानताओं की ओर संकेत करती है, जो आज भी भारत में हाशिये पर रह रहे व्यक्तियों के जीवन को प्रभावित कर रही हैं। भारत की यह स्थिति तब और चिंताजनक हो जाती है, जब देश में महिला सशक्तिकरण, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ और डिजिटल शिक्षा जैसी कई योजनाएं चलाई जाती हैं लेकिन सकारात्मक बदलाव नहीं होता। सामाजिक धारणाएं, पितृसत्ता, आर्थिक असमानताएं और कमजोर राजनीतिक स्थिति भी भारत को लैंगिक समानता के लक्ष्य से दूर कर रहा है।

द न्यूज मिनट में प्रकाशित रिपोर्ट ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2025 के अनुसार, भारत की रैंकिंग 146 देशों की संख्या में से 131वें स्थान पर पहुंच गई है। यह साल 2024 की रैंकिंग से दो  स्थान नीचे है, जब भारत 129वें स्थान पर था।

शिक्षा के क्षेत्र में क्या महिलाएं आगे बढ़ रही हैं  

तस्वीर साभार : CRY

ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2025 के अनुसार, भारत ने शिक्षा के क्षेत्र में थोड़ी बेहतर स्थिति बनाई है। लड़कियों के स्कूल जाने की दर बढ़ी है और उच्च शिक्षा में भी उनकी भागीदारी बढ़ रही है। लेकिन, कई चुनौतियां अब भी बनी हुई हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भारत ने 97.1 फीसद स्कोर किया है यानी अब ज्यादा महिलाएं स्कूल और कॉलेज में पढ़ रही हैं और साक्षर भी हो रही हैं। यह एक अच्छा संकेत है कि महिलाओं की शिक्षा में सुधार हो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार जिन लोगों ने कॉलेज या यूनिवर्सिटी की पढ़ाई नहीं की है, उनमें 65 फीसदी पुरुष भी हैं। जिनके पास कॉलेज या मास्टर डिग्री है, उनमें भी 60 फीसदी पुरुष हैं। हालांकि आजकल महिलाएं पुरुषों से ज्यादा संख्या में कॉलेज से पढ़ाई पूरी कर रही हैं। लेकिन ग्रामीण शहरों में यह स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है। ग्रामीण और दूरदराज इलाकों में लड़कियों को आज भी स्कूल भेजने में कई रुकावटें जैसे घर से स्कूल की लंबी दूरी, सुरक्षा का डर और घरेलू कामों की ज़िम्मेदारी जैसे कारण शामिल हैं।  

स्कूलों में शौचालय, सैनिटेरी नैप्किन की सुविधाओं और सुरक्षित माहौल की कमी भी पढ़ाई में रुकावट बनती है। हाल ही में तमिलनाडु के कोयंबटूर में परीक्षा के दौरान कथित तौर पर पीरियड्स शुरू होने पर 8वीं क्लास की एक छात्रा को स्कूल के प्रिंसिपल ने क्लास से बाहर बैठा दिया था। आज हालांकि शहरों में कई लड़कियां स्कूल और कॉलेज तक पहुंच रही हैं। लेकिन ग्रामीण इलाकों में आज भी यह एक समस्या है। हाशिये पर रहने वाले समुदाय की महिलाओं और लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा हासिल कर पाना अभी भी इतना आसान नहीं है। कोविड महामारी के दौरान जब स्कूल बंद होने के कारण, पढ़ाई ऑनलाइन हो गई, तब बहुत सी लड़कियों के पास मोबाइल, इंटरनेट या लैपटॉप नहीं थे। ऐसे में लाखों लड़कियों की पढ़ाई छूट गई थी। यह सच्चाई यह भी बताती है कि तकनीकी सुविधाओं तक पहुंच में भी लैंगिक असमानता मौजूद है। यूएन वुमन में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, वैश्विक स्तर पर 37 फीसद  महिलाएं इंटरनेट का उपयोग नहीं करती हैं, यानी पुरुषों की तुलना में 259 मिलियन कम महिलाओं की इंटरनेट तक पहुंच है। 

रिपोर्ट के अनुसार जिन लोगों ने कॉलेज या यूनिवर्सिटी की पढ़ाई नहीं की है, उनमें 65 फीसदी पुरुष भी हैं। जिनके पास कॉलेज या मास्टर डिग्री है, उनमें भी 60 फीसदी पुरुष हैं।

महिलाओं की लिए आर्थिक भागीदारी और अवसरों तक पहुंच 

तस्वीर साभार : India Today

जेंडर गैप इंडेक्स के मुताबिक, भारत रोजगार के क्षेत्र में सबसे कम स्कोर करने वाले देशों में से एक है। देश में महिलाओं को आर्थिक क्षेत्र में पुरुषों के मुकाबले बहुत कम मौके मिलते हैं। चाहे वो नौकरी पाने की बात हो, समान वेतन मिलने की बात हो, या फिर ऑफिस में ऊंचे पदों तक पहुंचने की बात हो, महिलाएं चुनौतियों का सामना करती हैं। आर्थिक भागीदारी और अवसर के मामले में स्कोर थोड़ा बेहतर हुआ है। यह 0.9 फीसद से बढ़कर 40.7 फीसद हो गया है। लेकिन, इस छोटे सुधार के बावजूद, भारत अब भी इस क्षेत्र में दुनिया के सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले पांच देशों में शामिल है। इस सूची में भारत के साथ-साथ सूडान, पाकिस्तान, ईरान और मिस्र भी शामिल है।

भारत का स्कोर इस क्षेत्र में केवल 40.7 फीसद है, यानी भारत में महिलाओं के लिए आर्थिक मौकों की अब भी बेहद कमी है। रिपोर्ट बताती है कि जब बात बड़ी और ज़िम्मेदार पदों की आती है, तो हालत और खराब हो जाती है। जो महिलाएं पढ़ी-लिखी हैं और नौकरी कर रही हैं, उनमें से सिर्फ 29.5 फीसद ही ऊंचे पदों तक पहुंच  पाती हैं, जबकि वे कुल कामकाजी लोगों का 40.3 फीसद हिस्सा हैं। जिन महिलाओं ने स्नातक या मास्टर डिग्री की है, उनमें से भी सिर्फ करीब 30 फीसदी ही ऊंचे पदों तक पहुंच पाती हैं। इसका मतलब है कि जैसे-जैसे महिलाएं ज़्यादा पढ़ाई करती हैं, वैसे-वैसे उनके लिए लीडर बनना और भी मुश्किल हो जाता है। आसान शब्दों में कहें तो हमारा सिस्टम महिलाओं की पढ़ाई और काबिलियत के बावजूद उन्हें ऊंचे पदों या नेतृत्व के पदों तक पहुंचाने में सफल नहीं हो पा रहा है।

जो महिलाएं पढ़ी-लिखी हैं और नौकरी कर रही हैं, उनमें से सिर्फ 29.5 फीसद ही ऊंचे पदों तक पहुंच  पाती हैं, जबकि वे कुल कामकाजी लोगों का 40.3 फीसद हिस्सा हैं।

वहीं गांवों में महिलाएं खेतों और घरेलू कामों में लगी होती हैं, लेकिन उन कामों को काम की श्रेणी में नहीं माना जाता क्योंकि हम एक पुरुषप्रधान समाज का हिस्सा है। यहां महिलाओं को हमेशा यह सुनने को मिलता है कि यह काम तुम्हारा अपना है इसलिए करना ही पड़ेगा और इसके लिए वेतन भी नहीं दिया जाता। शहरों में बहुत सी महिलाएं नौकरी छोड़ देती हैं क्योंकि उन्हें बच्चों की देखभाल, घर की ज़िम्मेदारी और सुरक्षित माहौल नहीं मिल पाता। इकोनॉमिक्स टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में घर और परिवार की देखभाल का ज़्यादातर काम महिलाएं करती हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 41 फीसद महिलाएं हर दिन घर के सदस्यों की देखभाल के कामों में लगी रहती हैं। 

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जबकि ऐसा करने वाले पुरुष सिर्फ 21.4 फीसद हैं। अगर समय की बात करें, तो महिलाएं रोज़ाना औसतन 140 मिनट घर-परिवार की देखभाल के कामों में लगाती हैं,वहीं पुरुष सिर्फ 74 मिनट ही लगाते हैं। अगर कोई महिला और पुरुष एक ही काम कर रहे हों, तब भी महिला को पुरुष से काफी कम वेतन मिलता है। भारत में यह फर्क अब भी बहुत ज्यादा है। साल 2018 के अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट अनुसार दुनियाभर में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में  20 फीसद कम वेतन मिलता है। यह फर्क दिखाता है कि आज भी भारत सहित वैश्विक स्तर पर वैतनिक भेदभाव मौजूद है।

इकोनॉमिक्स टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में घर और परिवार की देखभाल का ज़्यादातर काम महिलाएं करती हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 41 फीसद महिलाएं हर दिन घर के सदस्यों की देखभाल के कामों में लगी रहती हैं। 

स्वास्थ्य के क्षेत्र में महिलाओं के लिए बुनियादी सुविधाएं

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स्वास्थ्य के क्षेत्र में जेंडर गैप इंडेक्स 2025 के अनुसार भारत लगभग सबसे निचले पायदान पर है। भारत में महिलाओं और लड़कियों को पुरुषों के बराबर स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं। भारत में महिलाओं को जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं समय पर और समान रूप से नहीं मिलतीं। यह असमानता जाति, वर्ग, धर्म और स्थान के आधार पर और भी बढ़ जाती है। द वायर में छपी रिपोर्ट के अनुसार भारत में सबसे अधिक कुपोषित लोगों की संख्या लगभग 19.5  करोड़ है और इसमें 53 फीसद महिलाएं एनीमिया की समस्या का सामना कर रही हैं। मेडिकल पत्रिका लैंसेट की रिपोर्ट के अनुसार, एशिया में सबसे अधिक सर्वाइकल कैंसर के मरीज भारत में हैं।

दुनिया भर में सर्वाइकल कैंसर से होने वाली 40 फीसद मौतों में से 23 फीसद भारत से होते हैं। साल 2020 में दुनिया भर में 3,41,831 मौतें और 6,04,127 नए मामले दर्ज किए गए थे। उनमें से 21 फीसद भारत से थे। साल 2022 ग्लोबल कैंसर ऑब्जर्वेटरी के अनुसार, रिपोर्ट किए गए सभी नए कैंसर मामलों में से 32 फीसद सर्वाइकल और ब्रेस्ट कैंसर के थे। महिलाओं का प्रजनन अधिकार एक अहम लेकिन उपेक्षित मुद्दा है। हर महिला को यह निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए कि वह कब और कैसे बच्चे करना चाहती है। यह पूरी तरह उसका व्यक्तिगत फैसला होना चाहिए। रिपोर्ट के मुताबिक, अबॉर्शन से जुड़ी परेशानियों के कारण देश में 100 फीसद में से 14 फीसद महिलाओं की मौत हो जाती है। इसके बावजूद, सुरक्षित और आसान गर्भपात सेवाएं आज भी बहुत सी महिलाओं की पहुंच से बाहर हैं। यह दिखाता है कि महिलाओं के शरीर और उनके फैसलों पर अधिकार आज भी पूरी तरह से उन्हें नहीं मिला है जो एक गंभीर समस्या है।

गर्भपात से जुड़ी परेशानियों के कारण देश में हर 100 फीसद  में से 14 फीसद  महिलाओं की मौत हो जाती है। इसके बावजूद, सुरक्षित और आसान गर्भपात सेवाएं आज भी बहुत सी महिलाओं की पहुंच से बाहर हैं।

 राजनीति में महिलाओं की भागीदारी 

 रिपोर्ट के अनुसार राजनीतिक सशक्तिकरण भारत के लिए एक कमजोर क्षेत्र बना हुआ है। दुनिया भर में महिलाएं आज भी राजनीति के बड़े-बड़े पदों पर बहुत कम दिखाई देती हैं। इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन के अनुसार, साल 2025 में दुनिया के 187 संसदों में से सिर्फ 61 संसदों की अध्यक्ष महिलाएं हैं यानी हर तीन में से सिर्फ एक संसद की स्पीकर महिला है। महिलाओं को अब भी राजनीतिक नेतृत्व में बराबरी नहीं मिल पाई है। यह आंकड़ा दिखाता है कि संसद में बड़े पदों पर महिलाओं की भागीदारी अब भी बहुत कम है। भले ही महिलाओं को वोट देने और चुनाव लड़ने का हक लगभग 100 साल पहले मिल गया था, 

लेकिन संसद में स्पीकर जैसे ऊंचे पदों तक पहुंचने में उन्हें अभी भी काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। साल 1927 में पहली बार एक महिला संसद की स्पीकर बनी थी। तब से अब तक कुछ और महिलाएं इस पद पर पहुंची हैं। लेकिन असली बदलाव हाल के कुछ वर्षों में ही देखने को मिला है, जब ज्यादा देशों ने महिलाओं को संसद का अध्यक्ष बनाया है। जेंडर गैप रिपोर्ट में शामिल 148 देशों में से 99 देशों ने कभी न कभी किसी महिला को संसद का अध्यक्ष बनाया है। इनमें से 60 महिलाएं तो सिर्फ पिछले 25 सालों में ही इस पद तक पहुंची हैं। धीरे -धीरे कुछ देशों ने महिलाओं को संसद में बड़े पद देने शुरू किए हैं, लेकिन अभी भी दुनिया भर में महिलाओं को बराबर मौका नहीं मिल रहा है। संसद के ऊंचे पदों पर उनका प्रतिनिधित्व आज भी बहुत कम है।

साल 2025 में दुनिया के 187 संसदों में से सिर्फ 61 संसदों की अध्यक्ष (स्पीकर) महिलाएं हैं यानी हर तीन में से सिर्फ एक संसद की स्पीकर महिला है। महिलाओं को अब भी राजनीतिक नेतृत्व में बराबरी नहीं मिल पाई है।

समाधान के लिए कदम 

महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए सबसे जरूरी है कि उन्हें आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक फैसलों में बराबरी मिले। इसके लिए समान वेतन, महिला-नेतृत्व वाले व्यवसायों को समर्थन, और कार्यस्थलों पर सुरक्षित माहौल मिलना बहुत जरूरी है। लड़कियों को शिक्षा और डिजिटल सुविधाएं मिलें, इसके लिए खास प्रयास होने चाहिए। पंचायत से संसद तक महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई जानी चाहिए और उनके लिए नेतृत्व प्रशिक्षण कार्यक्रम भी शुरू किये जाने चाहिए। साथ ही, स्वास्थ्य सुविधाएं, सैनिटरी उत्पादों की उपलब्धता और यौन उत्पीड़न पर सख्त कार्रवाई भी की जानी चाहिए परिवार, स्कूल और मीडिया मिलकर लैंगिक समानता के लिए जागरूकता फैलाने का काम करने में अपना योगदान दें और पुरुषों को भी इस प्रक्रिया में शामिल किया जाए। तब जाकर इस जेंडर गैप की दीवार को खत्म किया जा सकता है । 

भारत की ग्लोबल जेंडर गैप रैंकिंग में गिरावट केवल आंकड़ों की बात नहीं है, बल्कि यह समाज में गहराई तक जड़ें जमा चुकी लैंगिक असमानता की एक चेतावनी है। शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीति और अर्थव्यवस्था हर क्षेत्र में महिलाएं आज भी कई बाधाओं से जूझ रही हैं। यह स्थिति तब और खराब  हो जाती है जब हम देखते हैं कि महिलाओं के सशक्तिकरण के नाम पर कई योजनाएं चल रही हैं, लेकिन उनका ज़मीन पर असर सीमित है। समाज की संरचना में बदलाव लाए बिना केवल योजनाएं और स्कीमें काफी नहीं हैं। हमें पितृसत्ता, वर्ग, जाति और तकनीकी पहुंच जैसे सभी कारकों को ध्यान में रखकर एक समावेशी दृष्टिकोण अपनाना होगा। जब तक महिलाओं को समान अवसर, सम्मान और निर्णय लेने का अधिकार नहीं मिलेगा, तब तक कोई भी देश लोकतंत्र और विकास की ओर नहीं बढ़ सकता। 

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