आज समाज में लगभग हर क्षेत्र में लड़कियां लड़कों की तुलना में आगे बढ़ रही हैं। आज अमूमन यह कहा जाता है कि एक लड़के और लड़की में कोई फर्क नहीं है। लेकिन, जब बात जमीनी हकीकत की आती है तब तस्वीर कुछ और ही दिखाई देती है। हाल ही में भारत के महापंजीयक कार्यालय जारी नागरिक पंजीकरण प्रणाली की महत्वपूर्ण सांख्यिकी रिपोर्ट के अनुसार, बिहार ने 2022 के लिए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे कम सेक्स रेशियो यानी लिंगानुपात दर्ज किया है, जिसमें हर 1,000 लड़कों पर सिर्फ 891 लड़कियों का जन्म हुआ है। बिहार एकमात्र ऐसा राज्य भी है, जिसका जन्म के समय लिंगानुपात साल 2020 से लगातार घट रहा है। साल 2020 में, राज्य ने जन्म के समय लिंगानुपात 964 दर्ज किया, जो 2021 में गिरकर 908 हो गया, और 2022 में और गिरकर 891 हो गया।
साल 2022 में जन्म के समय कम लिंगानुपात वाले अन्य राज्य में महाराष्ट्र में 906, तेलंगाना में 907 और गुजरात में 908 दर्ज किया गया। हालांकि, सबसे ज्यादा लड़कियों के जन्म के मामले में बिहार देश में तीसरे स्थान पर है। यहां 30.7 लाख बच्चों का जन्म हुआ। इनमें 13.1 लाख लड़कियां, जबकि 14.7 लाख लड़के थे। यहां लड़के-लड़कियों की संख्या में 1.60 लाख का अंतर रहा। यह आंकड़ा केवल एक संख्या नहीं है, बल्कि हमारे पुरुष प्रधान समाज की रूढ़िवादी सोच का एक हिस्सा है जिसमें बेटियों की बजाय बेटों को प्राथमिकता दी जाती है। यह समस्या सिर्फ बिहार की नहीं है बल्कि महाराष्ट्र, तेलंगाना और गुजरात जैसे राज्य, जिन्हें देश के विकसित राज्यों में गिना जाता है, वहां भी जन्म के समय लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में कम है।
साल 2022 में जन्म के समय कम लिंगानुपात वाले अन्य राज्य में महाराष्ट्र में 906, तेलंगाना में 907 और गुजरात में 908 दर्ज किया गया। हालांकि, सबसे ज्यादा लड़कियों के जन्म के मामले में बिहार देश में तीसरे स्थान पर है।
क्यों चिंता का विषय है यह अंतर

भारत में जन्म के समय लड़कियों की संख्या में लगातार गिरावट केवल एक आंकड़ा भर नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज में मौजूद लैंगिक असमानता और बेटियों के प्रति भेदभावपूर्ण सोच का प्रमाण है। यह आंकड़ा हमें दिखाता है कि तकनीकी प्रगति के इस दौर में भी हम मानसिक रूप से आज भी पितृसत्तात्मक ढांचे से बंधे हुए हैं। आज के समय में अल्ट्रासाउंड और दूसरी तकनीकों के ज़रिए यह पता लगाया जा सकता है कि आने वाला बच्चा लड़का होगा या लड़की। हालांकि भारत में भ्रूण के लिंग की जांच करना गैरकानूनी है, फिर भी कई जगहों पर यह गुप्त रूप से किया जाता है। अगर यह लड़की पाई जाती है, तो कई बार परिवार उसे जन्म देने के बजाय जबरन अबॉर्शन करवा देते हैं, जिसे लिंग आधारित भ्रूण हत्या कहा जाता है। भारत सरकार ने गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक पीसीपीएनडीटी अधिनियम, 1994 के माध्यम से भ्रूण के लिंग जांच और लिंग के आधार पर अबॉर्शन को प्रतिबंधित कर दिया था।
इसके बावजूद भारत के कई राज्यों में भ्रूण हत्या बंद नहीं हो पाई है। यह न सिर्फ एक बच्ची की ज़िंदगी से खेलता है बल्कि समाज में महिलाओं की घटती संख्या का कारण भी बनता है। सदियों से समाज में रूढ़िवादी सोच हावी रही है, जो आज भी बेटे को वंश बढ़ाने वाला, बुढ़ापे का सहारा मानती है। वहीं बेटी को ‘पराया धन‘ समझा जाता है। बहुत से माता-पिता बेटी के जन्म से पहले ही भ्रूण जांच के ज़रिए लिंग पहचान कर जबरन अबॉर्शन जैसे कदम उठा लेते हैं। गैरकानूनी होने के बावजूद, हजारों क्लीनिकों और स्वास्थ्य केंद्रों में गैरकानूनी तरीके से लिंग परीक्षण और भ्रूण हत्या के मामले सामने आते रहते हैं।
सदियों से समाज में रूढ़िवादी सोच हावी रही है, जो आज भी बेटे को वंश बढ़ाने वाला, बुढ़ापे का सहारा मानती है। वहीं बेटी को ‘पराया धन’ समझा जाता है। बहुत से माता-पिता बेटी के जन्म से पहले ही भ्रूण जांच के ज़रिए लिंग पहचान कर जबरन अबॉर्शन जैसे कदम उठा लेते हैं।
इन गतिविधियों में अक्सर डॉक्टर और परिवार दोनों शामिल होते हैं। कई बार कानून लागू करने वाली एजेंसियां इसपर सक्रिय नहीं होतीं या फिर भ्रष्टाचार के चलते प्रभावी कार्रवाई नहीं हो पाती। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय एनएसओ के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण एनएसएस के 75वें दौर के अनुसार बिहार में महिला साक्षरता दर केवल 60.5 फीसद है और राज्य में पुरुष साक्षरता दर 79.7 फीसद है। एक समाज में जबतक महिलाएं पढ़ी-लिखी नहीं होंगी, तो वे अपने जीवन से जुड़े फैसलों में भागीदारी कम कर पाएंगी या नहीं कर पाएंगी।
समाज पर इस प्रवृत्ति का प्रभाव

डीडब्ल्यू में छपी रिपोर्ट अनुसार बिहार एकमात्र ऐसा राज्य है, जिसका जन्म के समय लिंगानुपात 2020 से लगातार घट रहा है। कई राज्यों में जहां इन राज्यों में बिहार की तरह लगातार गिरावट नहीं देखी गई है। नागालैंड में सबसे अधिक लिंगानुपात 1,068 दर्ज किया गया, इसके बाद अरुणाचल प्रदेश में 1,036, लद्दाख में 1,027, मेघालय में 972 और केरल में 971 दर्ज किया गया। जब समाज में लड़कियों की संख्या लगातार कम होती है, तो इससे सामाजिक संतुलन बिगड़ता है, जो आगे चलकर कई समस्याओं को जन्म देता है।
अनेक परिवारों में एक बहु और बेटी के रूप में भी बेटे के जन्म के बाद ज्यादा सम्मान, देखभाल और परिवार के कई फैसलों में भागीदारी दी जाती है। इसलिए, कुछ महिलाएं खुद भी बेटा चाहती हैं ताकि उन्हें समाज में वो जगह मिले जो बेटियों के जन्म से उन्हें शायद न मिली हो।
क्यों लिंग अनुपात एक जटिल मुद्दा है
जन्म नियंत्रण नीतियों और पितृसत्तात्मक मानदंडों ने भारत में पुरुषों और महिलाओं के अनुपात को अत्यधिक असंतुलित करने में योगदान दिया है। हालांकि लिंग अनुपात पर बेटे की प्राथमिकता के प्रभाव का बड़े पैमाने पर अध्ययन किया गया है, लेकिन महिलाओं की प्रजनन प्राथमिकताओं पर पुरुषों के बीच विषम लिंग अनुपात के परिणामों का अभी तक पता नहीं चल पाया है। साइंस डायरेक्ट के एक शोध अनुसार 1990 के दशक की शुरुआत में, नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने ‘लापता महिलाओं’ के चिंताजनक मुद्दे पर प्रकाश डाला था, जिसमें उन महिलाओं की संख्या का उल्लेख किया गया जो लिंग अनुपात संतुलित होने पर जनसंख्या का हिस्सा होतीं। तीन दशक बाद, संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने अनुमान लगाया था कि दुनिया में 142.6 मिलियन लापता महिलाएं हैं। यह संख्या पिछले 50 वर्षों में दोगुनी से भी अधिक हो गई है।
शोध बताता है कि भ्रूणहत्या, लिंग-चयनात्मक अबॉर्शन, लड़कियों और बुजुर्ग महिलाओं की उपेक्षा सहित कई कारक दुनिया में इन लापता महिलाओं की बढ़ती संख्या में योगदान करते हैं। आज भी भारतीय समाज में बेटों को बेटियों से ज़्यादा अहमियत दी जाती है। इसके पीछे कई कारण हैं, जिनमें आर्थिक और सांस्कृतिक सोच शामिल है। अक्सर माना जाता है कि बेटा घर का वारिस होता है और भविष्य में माता-पिता का सहारा बनेगा। वहीं, आम तौर पर बेटी की शादी में दहेज देना पड़ता है, जिससे उसे एक ‘बोझ’ की तरह देखा जाता है। शादी के बाद बेटियां अपने ससुराल चली जाती हैं और तब यह माना जाता है कि वे अपने परिवार वालों की आर्थिक मदद नहीं कर सकतीं। इस सोच की वजह से परिवारों को बेटा ज़्यादा फायदेमंद लगता है। धार्मिक परंपराएं भी बेटे को प्राथमिकता देने में बड़ी भूमिका निभाती हैं। जैसे, हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार की रस्में बेटा ही करता है।
नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने ‘लापता महिलाओं’ के चिंताजनक मुद्दे पर प्रकाश डाला था, जिसमें उन महिलाओं की संख्या का उल्लेख किया गया जो लिंग अनुपात संतुलित होने पर जनसंख्या का हिस्सा होतीं।
इसलिए, सामाजिक तौर पर कम से कम एक बेटा होना जरूरी माना जाता है। इसके अलावा, हालांकि कई परिवारों में महिलाओं की स्वतंत्रता सीमित होती है। लेकिन बेटे के साथ उन महिलाओं बाहर जाने की अनुमति मिल जाती है। इसी तरह अनेक परिवारों में एक बहु और बेटी के रूप में भी बेटे के जन्म के बाद ज्यादा सम्मान, देखभाल और परिवार के कई फैसलों में भागीदारी दी जाती है। इसलिए, कुछ महिलाएं खुद भी बेटा चाहती हैं ताकि उन्हें समाज में वो जगह मिले जो बेटियों के जन्म से उन्हें शायद न मिली हो। साथ ही, घर से बाहर निकलने की थोड़ी आज़ादी भी मिल सके। पर्दा प्रथा और सामाजिक पाबंदियों के बीच बेटा कभी-कभी महिलाओं की आवाजाही का एकमात्र ज़रिया बन जाता है।
लैंगिक असमानता की समस्या का हल
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे सरकारी अभियान तब तक पूरी तरह प्रभावी नहीं हो सकते, जब तक लैंगिक असमानता की रूढ़िवादी सोच को नहीं बदला जाएगा। जब बेटियों को भी पढ़ाई, नौकरी और फैसले लेने का बराबर मौका मिलेगा, तभी समाज में बदलाव आएगा। आज भी अनेक घरों में बेटी के जन्म पर मायूसी और उसके भविष्य को लेकर असुरक्षा का भाव देखा जाता है। यह मानसिकता केवल सामाजिक बदलाव से ही खत्म हो सकती है और इसके लिए गांव और शहर हर जगह जागरूकता फैलानी होगी। इसमें शैक्षिक संस्थान, पंचायत, मीडिया और नागरिक समाज भी अहम भूमिका निभा सकते हैं। अस्पतालों और अल्ट्रासाउंड सेंटरों पर भी और ज्यादा निगरानी ज़रूरी है। विभिन्न सरकार लैंगिक असमानता में सुधार के लिए प्रयास कर रही है। लड़कियों के जन्म को बढ़ावा देने के उद्देश्य से ही मुख्यमंत्री कन्या उत्थान जैसी योजनाएं चलाई जा रही हैं, जहां सरकार किसी लड़की को जन्म लेने से लेकर उसके ग्रेजुएट होने तक वित्तीय सहायता देती है।

मीडिया, फिल्मों और स्कूल पाठ्यक्रमों में लड़कियों की सशक्त छवि को स्थान देना होगा ताकि आने वाली पीढ़ी लैंगिक भेदभाव को चुनौती दे सके। लैंगिक समानता की दिशा में शुरुआती सीढ़ी परिवार है। जब तक लड़कियों को बराबरी का भागीदार नहीं माना जाएगा, तबतक कोई भी पहल अपने वास्तविक उद्देश्य को नहीं पा सकेगी। बिहार सहित अन्य राज्यों में लड़कियों की घटती संख्या चिंता की बात है। यह सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है, बल्कि यह दिखाता है कि आज भी हमारे समाज में बेटों को बेटियों से बेहतर माना जाता है। लिंग जांच और भ्रूण हत्या को जड़ से खत्म करने के लिए मानसिकता में बदलाव जरूरी है। इस समस्या को सिर्फ कानून से नहीं, बल्कि सोच बदलने से हल किया जा सकता है। हमें बेटियों को भी पढ़ने, आगे बढ़ने और फैसले लेने का पूरा हक देना होगा। उन्हें दोनों परिवार- मायके या ससुराल में बेदखल करने के बजाय पूरा अधिकार दिए जाने की जरूरत है। जब नागरिक समाज और सरकार मिलकर बेटियों को सम्मान और बराबरी देंगे, तभी लिंग अनुपात सुधरेगा और समाज भी बेहतर बनेगा।