इंटरसेक्शनलजेंडर विश्व भर में स्टेम स्नातकों में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 35 फीसद: यूनेस्को

विश्व भर में स्टेम स्नातकों में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 35 फीसद: यूनेस्को

यूनेस्को की ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग (जीईएम) रिपोर्ट से पता चलता है कि स्टेम एजुकेशन में जेंडर स्टीरियोटाइप यानि लैंगिक रूढ़िवादिता के कारण वैश्विक स्तर पर पिछले एक दशक यानि दस सालों से स्टेम ग्रैजूइट महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ 35 फीसद बनी हुई हैं।

हाल ही में जारी यूनेस्को की ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग (जीईएम) रिपोर्ट से पता चलता है कि स्टेम एजुकेशन में जेंडर स्टीरियोटाइप यानि लैंगिक रूढ़िवादिता के कारण वैश्विक स्तर पर पिछले एक दशक से स्टेम ग्रैजूइट महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ 35 फीसद बनी हुई है। आज अपने सतत संघर्ष से हर क्षेत्र में महिलाएं तरक्की करती नजर आती हैं। मगर यहां सवाल खड़ा होता हैं कि आखिर क्यों स्टेम एजुकेशन में वह बराबरी से शामिल क्यों नहीं है? यूनेस्को की जीईएम 2025 रिपोर्ट को ध्यान से देखें, तो सामने आता है कि वैश्विक स्तर पर साइंस, टेक्नॉलजी, इंजीनियरिंग और गणित (स्टेम) स्नातकों में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 35 फीसद है। इस असमानता के प्रमुख कारणों में महिलाओं के बीच स्टेम में आगे बढ़ने को लेकर आत्मविश्वास की कमी और सामाजिक जेंडर स्टीरियोटाइप यानि लैंगिक रूढ़ियां, लैंगिक पूर्वाग्रह आदि शामिल हैं, जो महिलाओं को इन क्षेत्रों में करियर बनाने और चुनने से रोकते हैं। इन सब वजह के तहत बीते एक दशक में महिलाओं की विज्ञान की पढ़ाई में कम साझेदारी और इसमें करियर बनाने में कम दिलचस्पी रही है।  

यूनेस्को की ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग (जीईएम) रिपोर्ट से पता चलता है कि स्टेम एजुकेशन में जेंडर स्टीरियोटाइप यानि लैंगिक रूढ़िवादिता के कारण वैश्विक स्तर पर पिछले एक दशक से स्टेम ग्रैजूइट महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ 35 फीसद बनी हुई है।

जेंडर स्टीरियोटाइप और पूर्वाग्रह 

इतिहास में जाएं, तो महिलाओं को कभी भी एक वैज्ञानिक या गणितज्ञ के रूप में नहीं देखा गया। विज्ञान की दुनिया आम तौर पर पुरुषों के वर्चस्व वाली दुनिया है। महिलाओं को इस क्षेत्र में ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर रखे जाने के कारण आज भी समाज में लड़कियों और महिलाओं को स्टेम के काबिल नहीं समझा जाता। समाज ने लड़कियों और महिलाओं को लेकर ऐसी सोच बना ली गई है कि गणित और विज्ञान जैसे कठिन विषयों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती है या वे बेहतर नहीं कर पाएंगी। इस तरह लैंगिक पूर्वाग्रहों और भेदभाव के आधार पर एक लड़की की किसी विषय में रुचि बचपन से ही तय कर दी जाती है। 

तस्वीर साभार: Canva

महिलाओं को कम आंकने और समझने का सामाजिक ढांचा इतना मजबूत रहा है कि इससे चार्ल्स डार्विन जैसे वैज्ञानिक भी अछूते न रहे। अपनी किताब ‘Descent of Man’ में वह महिलाओं को हर क्षेत्र में पुरुषों के मुकाबले पीछे बताते हैं। उनके हिसाब से महिलाओं के पीछे होनी की वजह यह है कि महिलाएं पुरुषों के मुक़ाबले जैविक रूप से ही कमजोर होती हैं। लेकिन, जेंडर स्टीरियोटाइप के मजबूत सामाजिक ढांचे के चलते डार्विन ने उन सामाजिक हालात को नज़रअंदाज़ कर दिया, जहां महिलाओं को पुरुषों के मुक़ाबले बेहद कम अवसर मिलते हैं। डार्विन के विक्टोरियन दौर में महिला वैज्ञानिक, महिला आर्किटेक्ट और महिला राजनेता न के बराबर थीं और महिलाओं के अधिकार सीमित थे। उन्होंने सामाजिक ढांचे की वजह से मौजूद असमानता को जैविक अंतर मान लिया।

बीबीसी की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार, विज्ञान के क्षेत्र में व्याप्त मर्दवादी सोच के चलते, वैश्विक स्तर पर उत्कृष्ट कार्य करने वाली महिला वैज्ञानिकों को वह पहचान और प्रसिद्धि नहीं मिल पाती जो उनके पुरुष समकक्षों को सहज रूप से मिल जाती है।

क्या वाकई जैविक कारणों से पीछे हैं महिलाएं

आज भी विभिन्न संस्थानों से जुड़े लोग डार्विन की तरह ही जेंडर स्टीरियोटाइप और पूर्वाग्रह से जूझ रहे होते हैं। साल 2017 में गूगल के एक युवा पुरुष सॉफ्टवेयर इंजीनियर जेम्स दामोर ने एक लेख में दावा किया था कि गूगल में तकनीकी और अन्य महत्वपूर्ण पदों पर स्त्रियों की संख्या कम होने की वजह महिलाओं और पुरुषों के बीच का जैविक अंतर है। हालांकि उन्होंने इस बात पर ग़ौर नहीं किया कि महिलाओं को लेकर लिंगभेद, यौन उत्पीड़न और भेदभाव से कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है। बीबीसी की साल 2017 की रिपोर्ट के हिसाब से हममें से अधिकांश के मन में बचपन से ही ऐसे जेंडर स्टीरियोटाइप भर दिए जाते हैं।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

यह विचार कि महिलाएं गणित और विज्ञान जैसे कठिन विषयों या तकनीकी क्षेत्र के योग्य नहीं हैं, आज भी दुनिया के कई समाजों में गहराई से मौजूद है। यह मानसिकता न केवल अजीबोग़रीब तर्कों पर आधारित होती है, बल्कि महिलाओं के शिक्षा और करियर के अवसरों को भी सीमित कर देती है। खासकर विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में यह पूर्वाग्रह अधिक स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले एक दशक में स्टेम (विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग और गणित) शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी के आंकड़ों में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक, इस प्रवृत्ति के पीछे मुख्य रूप से गणित जैसे विषयों को लेकर महिलाओं में आत्मविश्वास की कमी और नकारात्मक लिंग-पूर्वाग्रह ज़िम्मेदार हैं।

साल 2017 में गूगल के एक युवा पुरुष सॉफ्टवेयर इंजीनियर जेम्स दामोर ने एक लेख में दावा किया था कि गूगल में तकनीकी और अन्य महत्वपूर्ण पदों पर स्त्रियों की संख्या कम होने की वजह महिलाओं और पुरुषों के बीच का जैविक अंतर है।

यहां सवाल उठता है कि जब शकुंतला देवी जैसी विख्यात महिला गणितज्ञ और मैडम क्यूरी जैसी नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक मौजूद रही हैं, तो फिर आज भी महिलाओं में इन क्षेत्रों को लेकर आत्मविश्वास की कमी क्यों बनी हुई है? बीबीसी की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, विज्ञान के क्षेत्र में व्याप्त मर्दवादी सोच के चलते, वैश्विक स्तर पर उत्कृष्ट कार्य करने वाली महिला वैज्ञानिकों को वह पहचान और प्रसिद्धि नहीं मिल पाती जो उनके पुरुष समकक्षों को सहज रूप से मिल जाती है। यह असमानता महिलाओं को हतोत्साहित करती है और स्टेम जैसे क्षेत्रों में उनकी भागीदारी को सीमित करती है।

स्टेम शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी और चुनौतियां

टेक्नोलॉजी के बढ़ते उपयोग को देखते हुए दुनियाभर में स्टेम शिक्षा को बढ़ावा दिया जा रहा है। लेकिन इसके बावजूद, लड़कियों और महिलाओं के लिए इस क्षेत्र में कोई विशेष और समावेशी नीतियां स्पष्ट रूप से नहीं दिखाई देतीं। संस्थागत रूप से लैंगिक असमानता के कारण महिलाओं को स्टेम शिक्षा में कई प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। वर्ल्ड बैंक की 2020 की एक रिपोर्ट बताती है कि स्टेम शिक्षा में महिलाओं और लड़कियों की भागीदारी विश्व स्तर पर बहुत कम है। यह भी सामने आया कि स्नातक स्तर पर महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक है, फिर भी गणित, इंजीनियरिंग, सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT) तथा भौतिकी जैसे विषयों में उनकी भागीदारी काफी कम रहती है।

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यूनेस्को और वर्ल्ड बैंक की रिपोर्टें इस असमानता के पीछे सामाजिक पूर्वाग्रह और जेंडर स्टीरियोटाइप को जिम्मेदार ठहराती हैं। शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाई जाने वाली सामग्री में भी गहरे लैंगिक भेदभाव देखने को मिलते हैं। विज्ञान से संबंधित विषयों में अधिकतर पुरुष वैज्ञानिकों और इंजीनियरों का चित्रण किया जाता है, जबकि महिलाओं को ज़्यादातर शिक्षिका की भूमिका में दिखाया जाता है। लैटिन अमेरिका में किए गए एक सर्वे में सामने आया कि 8 प्रतिशत से लेकर 20 प्रतिशत तक गणित शिक्षक यह मानते हैं कि गणित लड़कों के लिए अधिक आसान होता है। इस तरह के पूर्वाग्रह न केवल लड़कियों की क्षमता पर सवाल उठाते हैं, बल्कि उनके आत्मविश्वास को भी प्रभावित करते हैं, जिससे वे स्टेम क्षेत्रों में करियर बनाने से कतराने लगती हैं।

वर्ल्ड बैंक की 2020 की एक रिपोर्ट बताती है कि स्टेम शिक्षा में महिलाओं और लड़कियों की भागीदारी विश्व स्तर पर बहुत कम है। यह भी सामने आया कि स्नातक स्तर पर महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक है, फिर भी गणित, इंजीनियरिंग, सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT) तथा भौतिकी जैसे विषयों में उनकी भागीदारी काफी कम रहती है।

विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी

यूनेस्को की जीईएम रिपोर्ट के अनुसार, विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग और गणित की पढ़ाई में महिलाओं की कम भागीदारी का एक प्रमुख कारण इन विषयों को लेकर आत्मविश्वास की कमी है। यह आत्मविश्वास की कमी केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामाजिक और संरचनात्मक कारणों से भी जुड़ी हुई है। विज्ञान के क्षेत्र में लंबे समय से पुरुषों का वर्चस्व रहा है, और महिला वैज्ञानिकों, गणितज्ञों की संख्या तूलनामूलक रूप में बहुत कम है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, विज्ञान के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार पाने वालों में 97 फीसद पुरुष रहे हैं। महिला वैज्ञानिकों की भूमिका और योगदान को मीडिया में भी कम स्थान मिलता है। बीबीसी की रिपोर्ट बताती है कि यदि किसी महिला वैज्ञानिक को वैश्विक स्तर पर ख्याति मिल भी जाती है, तो भी उन्हें वह पहचान नहीं मिल पाती जो किसी पुरुष वैज्ञानिक को आसानी से हासिल हो जाती है। मीडिया में महिला वैज्ञानिकों का ज़िक्र और उनकी उपलब्धियों को कम महत्व दिया जाना इस असमानता को और भी गहरा करता है।

स्टेम शिक्षा को लेकर वैश्विक प्रयास

टेक्नोलॉजी और विज्ञान के बढ़ते महत्व को देखते हुए आज वैश्विक स्तर पर 68 फीसद देशों में स्टेम शिक्षा को बढ़ावा देने वाली नीतियां मौजूद हैं। हालांकि, इन नीतियों में से केवल आधी ऐसी हैं जो विशेष रूप से लड़कियों और महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं। इसका सीधा असर महिला विद्यार्थियों की स्टेम विषयों में भागीदारी और करियर विकल्पों पर पड़ता है। वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 2018 में स्टेम विषयों से स्नातक करने वाली महिलाओं की हिस्सेदारी 42.7 फीसद थी। यह आंकड़ा अमेरिका में साल 2016 में 34 फीसद, ऑस्ट्रेलिया में साल 2017 में 32.1 फीसद और जर्मनी में साल 2017 में 27.6 फीसद से अधिक है। लेकिन, इसके बावजूद स्टेम कार्यबल में भारतीय महिलाओं की भागीदारी केवल 27 फीसद से कम है। यह हिस्सा स्टेम कार्यबल के कुल आँकड़ों का एक तिहाई भी नहीं है।

महिलाओं की स्टेम करियर में कम भागीदारी को कई देशों में ‘लीकी पाइपलाइन’ के रूप में पहचाना गया है। इसका मतलब है कि महिलाएं स्टेम विषयों में शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद करियर में प्रवेश नहीं करतीं या फिर कार्यबल से बाहर हो जाती हैं। यह स्थिति कार्यस्थल और समाज में मौजूद गहरे लैंगिक पूर्वाग्रह, रूढ़ियां और संस्थागत बाधाओं के कारण भी हो रही है। स्टेम के क्षेत्र में महिलाओं की स्थायी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी है कि लैंगिक और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों के लिए जागरूकता फैलाई जाए। शिक्षा से लेकर कार्यस्थल तक एक समावेशी दृष्टिकोण अपनाया जाए। स्टेम शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए छात्रवृत्तियां, प्रशिक्षण कार्यक्रम और मेंटरशिप के साथ-साथ, समान अवसर और सुरक्षित कार्यस्थल उपलब्ध कराना भी बेहद जरूरी है।

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