समाजख़बर असम ने सांकेतिक भाषा को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल कर किया समावेशिता की पहल

असम ने सांकेतिक भाषा को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल कर किया समावेशिता की पहल

हाल ही में असम राज्य स्कूल शिक्षा बोर्ड के नेतृत्व में शिक्षा मंत्री डॉ. रनोज पेगू ने 2025 -2026 शैक्षणिक साल से ग्यारहवीं कक्षा के लिए भारतीय सांकेतिक भाषा को एक वैकल्पिक विषय के रूप में शुरू करने की घोषणा की है।

समाज में समानता और समावेशिता की बातें करना बहुत आसान है, लेकिन ग्राउंड या सतही तौर पर इनका लागू हो पाना उतना ही कठिन है। हम हमेशा बात करते हैं कि हर एक इंसान को बराबरी मिलनी चाहिए। गौरतलब है कि शिक्षा के क्षेत्र में यह बराबरी हर बार कहीं न कहीं पीछे छूट जाती है। जब भी हम शिक्षा के क्षेत्र में समावेशन की बात करते हैं, तब हमेशा क्षेत्रीय भाषा को प्राथमिकता दी जाती है। लेकिन सांकेतिक भाषा को उतना ध्यान नहीं मिलता। न कक्षाओं में और न ही रोज़मर्रा की बातचीत में। भारत में लाखों विकलांग या श्रवण-बाधित और मूक (जो बोल और सुन नहीं पाते ) समुदाय के व्यक्ति रहते हैं, जिनके लिए संवाद या बातचीत करने में सबसे बड़ी दीवार भाषा है। जब तक हम उनकी भाषा को नहीं सीखेंगे और समझेंगे, तब तक समानता और अधिकार केवल कागज़ों तक सीमित रह जाएंगे।

द लॉजिकल इंडियन में छपी एक खबर के मुताबिक, इस विषय पर हाल ही में असम राज्य स्कूल शिक्षा बोर्ड (एएसएसईबी) के नेतृत्व में शिक्षा मंत्री डॉ. रनोज पेगू ने 2025 -2026 शैक्षणिक साल से उच्चतर माध्यमिक या ग्यारहवीं कक्षा के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) और वित्तीय साक्षरता के साथ-साथ भारतीय सांकेतिक भाषा को एक वैकल्पिक विषय के रूप में शुरू करने की घोषणा की है।असम भारत का पहला राज्य है जहां आईएसएल को वैकल्पिक विषय के रूप में शुरू किया जा रहा है। इस पहल का उद्देश्य सभी विद्यार्थियों को साथ लेकर चलना है, उन्हें डिजिटल दुनिया के लिए तैयार करना और बधिर और कम सुनने वाले समुदाय के व्यक्तियों से बात करने में आने वाली मुश्किलें कम करना है। ताकि समाज में हर एक इंसान को बराबरी के मौके मिल पाएं।  

हाल ही में असम राज्य स्कूल शिक्षा बोर्ड के नेतृत्व में शिक्षा मंत्री डॉ. रनोज पेगू ने 2025 -2026 शैक्षणिक साल से ग्यारहवीं कक्षा के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और वित्तीय साक्षरता के साथ-साथ भारतीय सांकेतिक भाषा को एक वैकल्पिक विषय के रूप में शुरू करने की घोषणा की है।

भारतीय सांकेतिक भाषा (आईएसएल ) और भारत में इसकी स्थिति

भारतीय सांकेतिक भाषा अन्य मौखिक भाषाओं की तरह एक स्वाभाविक रूप से विकसित भाषा है। इसका उपयोग बधिर समुदाय के व्यक्ति दैनिक जीवन में बातचीत के लिए करते हैं। आईएसएल में संवाद करने के लिए हाथों के इशारे, चेहरे के भाव और शरीर की मुद्राओं का प्रयोग किया जाता है। यह भाषा सिर्फ शब्दों का आदान-प्रदान नहीं करती, बल्कि भावनाओं और विचारों को भी व्यक्त करती है। चेंज इन कॉन्टेंट में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में लगभग 46.6 करोड़ लोग सांकेतिक भाषा पर निर्भर हैं। भारत में, लगभग 63 लाख लोग श्रवण विकलांगता का सामना कर रहे  हैं। हालांकि, 2 फीसदी से भी कम लोग आईएसएल जानते हैं। भारत में लगभग 90 फीसदी से ज़्यादा बधिर विकलांग बच्चे सामान्य ( जो बोल और सुन सकते हैं) माता-पिता से पैदा होते हैं। इस वजह से बच्चों और माता-पिता के बीच संवाद करना मुश्किल हो जाता है। हमारी शिक्षा व्यवस्था भी इस समस्या को दूर करने के लिए बहुत कम कोशिश करती है।

 भारत में केवल 5 फीसदी श्रवण विकलांग बच्चों को ही बुनियादी स्कूली शिक्षा मिल पाती है।यह केवल स्कूल की इमारतों या तकनीक की कमी की बात नहीं है, बल्कि भाषा न समझ पाने की समस्या है। बधिर बच्चे ऐसी कक्षाओं में बैठते हैं जो सुनने वाले छात्रों के लिए डिज़ाइन की गई होती हैं। उन्हें ऐसे शिक्षक पढ़ाते हैं जो सांकेतिक भाषा नहीं जानते। इसी वजह से, कई बच्चे पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं। रिसर्च गेट में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, असम के तिनसुकिया जिले के मार्गेरिटा ब्लॉक में एक ऑनलाइन सर्वेक्षण किया, जिसमें कक्षा 1 से 8 तक के प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों के 60 विद्यार्थियों को शामिल किया गया। सर्वेक्षण से पता चला कि अधिकतर लोगों ने कहा कि श्रवण विकलांग विद्यार्थियों को अक्सर सीखने और समझने में देरी का सामना करना पड़ता है। 65 फीसदी उत्तरदाता इस बात से दृढ़ता से सहमत हैं। यह परिणाम दिखाता है कि शिक्षा प्रणाली में इस समस्या को गंभीरता से लेना जरूरी है।

भारतीय सांकेतिक भाषा अन्य मौखिक भाषाओं की तरह एक स्वाभाविक रूप से विकसित भाषा है। इसका उपयोग बधिर समुदाय के व्यक्ति दैनिक जीवन में बातचीत के लिए करते हैं। आईएसएल में संवाद करने के लिए हाथों के इशारे, चेहरे के भाव और शरीर की मुद्राओं का प्रयोग किया जाता है।

बधिर समुदाय के व्यक्तियों की चुनौतियां 

समाज और परिवार में भी इन व्यक्तियों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। स्प्रिंगर में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली में बधिर व्यक्तियों के सर्वेक्षण से पता चलता है कि 82 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें अपने परिवार के सदस्यों का व्यवहार ठीक नहीं लगता। वहीं 93 फीसदी ने कहा कि उनके दोस्तों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों के अलग व्यवहार से उन्होंने बुरा महसूस किया है। इससे बहुत से व्यक्तियों को मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है। 

मारीवाला हेल्थ इनिशिएटिव (एम्एचआई) की एक रिपोर्ट के अनुसार, मानसिक स्वास्थ्य सेवा अधिनियम साल 2017 कहता है कि हर व्यक्ति को विकलांगता के आधार पर भेदभाव किए बिना मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं मिलने का अधिकार है। लेकिन इस समुदाय के व्यक्तियों को यह सेवाएं आसानी से नहीं मिल पाती हैं। क्योंकि भारत में केवल 250 प्रमाणित सांकेतिक भाषा दुभाषी और 9000 मनोचिकित्सक हैं। इसके अलावा, परामर्शदाताओं या काउंसलर की सही संख्या भी पता नहीं है। ऐसे में परिवार ही उनके लिए एक मात्र सहारा होता है, लेकिन भाषा की समझ न होने के कारण यह व्यक्ति अपनी बातें साझा करने में कठिनाई महसूस करते हैं।

दुनिया भर में लगभग 46.6 करोड़ लोग सांकेतिक भाषा पर निर्भर हैं। भारत में, लगभग 63 लाख लोग श्रवण विकलांगता का सामना कर रहे  हैं। हालांकि, 2 फीसदी से भी कम लोग आईएसएल जानते हैं।

 द हिन्दू में छपी खबर के मुताबिक, सरकार की कुछ योजनाएं बधिर समुदाय के लोगों को रोज़गार देने के लिए बनी हैं, लेकिन फिर भी उन्हें नौकरी पाने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। बधिर समुदाय के लिए अवसर हाउसकीपिंग, वेटर और डेटा एंट्री ऑपरेटरों तक ही सीमित हैं। निजी कंपनियों में अब कैप्शनिंग और दुभाषिया सेवाओं के माध्यम से  सुगम्यता और समावेशन के लिए कुछ अच्छे कार्यक्रम चल रहे हैं। लेकिन सरकारी क्षेत्र में बहुत कम काम हुआ है। पिछले कुछ सालों में, इस समुदाय के व्यक्तियों ने कई बार राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर विरोध प्रदर्शन किए हैं। वे सुलभ शिक्षा और बेहतर रोज़गार के अवसरों की लगातार मांग कर रहे हैं, लेकिन उन्हें हमेशा लाठीचार्ज या खाली वादों के साथ जवाब दिया गया है।

शिक्षा के क्षेत्र में समावेशन की ज़रूरत क्यों है?

गवर्नमेंट रिहैबिलिटेशन इंस्टीट्यूट फॉर इंटेलेक्चुअल डिसएबिलिटीज के मुताबिक, दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम साल 2016 में साफ़ तौर पर यह कहा गया है कि श्रवण वाधित व्यक्तियों को दी जाने वाली शिक्षा सबसे उपयुक्त भाषा में होनी चाहिए। इसी के साथ यह भी कहा गया है कि सभी लोगों को शिक्षा, नौकरी और बेहतर जीवन के समान मौके मिलने चाहिए। इसके लिए ज़रूरी है कि टेलीविजन कार्यक्रमों में सांकेतिक भाषा या उपशीर्षक जोड़े जाएं, ताकि सुनने में कठिनाई वाले लोग भी उन्हें आसानी से समझ सकें। 

पूरे भारत में, बधिर और कम सुनने वाले बच्चों के लिए केवल 387 स्कूल हैं। सरकार को इन बच्चों की वास्तविक संख्या, जिसे कम करके आंका गया है, इसको पूरा करने के लिए अधिक विशेषज्ञ स्कूल खोलने की ज़रूरत है और शिक्षकों को भी प्रशिक्षण देने की ज़रूरत है ताकि विद्यार्थियों को एक सेफ स्पेस मिल सके।

हालांकि दूरदर्शन ने साल 1987 में आईएसएल में एक साप्ताहिक समाचार खंड की शुरुआत की थी, लेकिन निजी समाचार चैनलों में इसे अब भी न के बराबर ही अपनाया गया है। यही नहीं  श्रवण बाधित लोगों के लिए सुलभ शिक्षा की कमी 14 साल की उम्र तक के बच्चों की शिक्षा के अधिकार पर भी असर डालती है। अगर शिक्षा समावेशी नहीं होगी तो इससे हर एक इंसान के मौलिक अधिकारों का भी हनन होगा। आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम में यह भी कहा गया है कि 18 साल की उम्र तक के सभी विकलांग बच्चों को उपयुक्त वातावरण में मुफ़्त और उचित शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता है। 

भारत विविधताओं वाला देश है, इसलिए यहां समावेशी शिक्षा का होना बहुत ज़रूरी है। जब बच्चे अलग-अलग ज़रूरतों वाले साथियों के साथ पढ़ते हैं, तो उनमें सहनशीलता, दूसरों की भावनाएं समझने की क्षमता और मिलजुलकर काम करने की आदत विकसित होती है। अगर पढ़ाई में समावेशिता होगी तो विशेष जरूरत वाले बच्चे अपने जीवन में आज़ादी से निर्णय ले सकेंगे, समाज में आत्मविश्वास के साथ रह सकेंगे और अपने करियर और सामाजिक जीवन को सही दिशा में ले जा सकेंगे।

दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम साल 2016 में साफ़ तौर पर यह कहा गया है कि श्रवण वाधित व्यक्तियों को दी जाने वाली शिक्षा सबसे उपयुक्त भाषा में होनी चाहिए। इसी के साथ यह भी कहा गया है कि सभी लोगों को शिक्षा, नौकरी और बेहतर जीवन के समान मौके मिलने चाहिए।

आगे की राह या सुधार के लिए क्या किया जा सकता है 

असम का यह कदम एक मॉडल या पूरे भारत के लिए एक सीख बन सकता है। अन्य राज्यों को भी यह समझना होगा कि समावेशन केवल ‘आरक्षण’ या ‘विशेष स्कूल’ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भाषा और संवाद से शुरू होता है। भारत इस मामले में अन्य देशों की तुलना ने काफ़ी पीछे है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में आधुनिक और ‘विदेशी’ भाषा की शैक्षणिक डिग्री ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कई हाई स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अमेरिकी सांकेतिक भाषा (एएसएल) को स्वीकार किया जाता है। चेंजइनकंटेंट के मुताबिक, भारत में, सांकेतिक भाषा का प्रयोग अक्सर न के बराबर रहा है। कुछ स्कूलों ने अमेरिकी या ब्रिटिश सांकेतिक भाषा का प्रयोग किया गया, लेकिन यह  इस बात पर निर्भर करता था कि उन्हें किसने शुरू किया।

द हिन्दू के मुताबिक, आज की स्थिति में हमें सक्षमतावाद से आगे बढ़कर सुगमतावाद की ओर बढ़ने की ज़रूरत है। भारतीय सांकेतिक भाषा को एक आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए। साथ ही, स्कूलों और कॉलेजों में इसे इस तरह शामिल किया जाना चाहिए कि श्रवण बाधित और विकलांग विद्यार्थियों के लिए इसका उपयोग सहज और सामान्य हो सके। यही नहीं पूरे भारत में, बधिर और कम सुनने वाले बच्चों के लिए केवल 387 स्कूल हैं। सरकार को इन बच्चों की वास्तविक संख्या, जिसे कम करके आंका गया है, इसको पूरा करने के लिए अधिक विशेषज्ञ स्कूल खोलने की ज़रूरत है और शिक्षकों को भी प्रशिक्षण देने की ज़रूरत है ताकि विद्यार्थियों को एक सेफ स्पेस मिल सके।

साथ ही टेलीविजन कार्यक्रमों में क्लोज़-कैप्शन जैसी सुविधाएं ठीक से लागू की जानी चाहिए। इन व्यक्तियों के प्रति पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिए जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है ताकि भेदभाव कम हो सके और इन्हें भी बराबर अबसर मिल सकें चाहे फिर वो शिक्षा हो या रोजगार। असम का यह फैसला केवल एक शैक्षणिक सुधार नहीं है, बल्कि एक सामाजिक क्रांति की शुरुआत है। भारतीय सांकेतिक भाषा को शिक्षा का हिस्सा बनाना बधिर और मूक समुदाय के व्यक्तियों को सम्मान और बराबरी के अवसर देने की दिशा में बड़ा कदम है। यह केवल विकलांग बच्चों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए ज़रूरी है। ताकि हर एक इंसान इस भाषा को सीखकर उन इंसानों की भावनाओं और ज़रूरतों को समझ सकें जिन्हें हमेशा हाशिये पर धकेल दिया जाता रहा है।

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