समाजखेल महिला खिलाड़ियों पर सुंदरता का दबाव, समाज के आदर्श और उनकी हकीकत

महिला खिलाड़ियों पर सुंदरता का दबाव, समाज के आदर्श और उनकी हकीकत

महिला खिलाड़ियों को शरीर के विभिन्न अंगों में ज्यादा मांसपेशियां आने से उन्हें समाज, अन्य खिलाड़ी या फिर कोच असहज महसूस कराते हैं। इससे उनमें अपने प्रति हीन भावना या शरीर से असतुंष्टि जैसी मानसिक चुनौतियों उत्पन्न हो जाती है।

समाज में महिलाओं के लिए एक शारीरिक सुंदरता का ढांचा निर्धारित किया गया है। इसके आधार पर ही उन्हें उस मानक पर मापा जाता है। आज के दौर में जीरो फिगर का प्रचलन जोरों-शोरों पर है। महिलाएं किसी अभिनेत्री को रोल मॉडल मान उन जैसा बनने का प्रयास करती रहती हैं और समाज के बनाए शारीरिक सुंदरता के मानकों पर खरी उतरने की दौड़ में शामिल हो जाती हैं। अगर कोई महिला इन पर खरी नहीं उतरती है तो समाज में उसे अच्छी बहु और अच्छी बेटी होने की श्रेणी से बाहर निकाल दिया जाता है। ऐसा ही महिला खिलाड़ियों के साथ भी होता है। शरीर के विभिन्न अंगों में ज्यादा मांसपेशियां आने से उन्हें समाज, अन्य खिलाड़ी या फिर कोच असहज महसूस कराते हैं। 

इससे उनमें अपने प्रति हीन भावना या शरीर से असतुंष्टि जैसी मानसिक चुनौतियों उत्पन्न हो जाती है। किसी कोच या अन्य खिलाड़ी की कही गई एक पंक्ति ही महिला खिलाड़ी के मन पर गहरी छाप छोड़ देती है और उस कमी को दूर करने के लिए वह अपने शरीर को ही नुकसान पहुंचाने लगती हैं। वह इन मानदंड़ो को पाने के लिए अत्यधिक व्यायाम या फिर प्रतिबंधात्मक भोजन की ओर अग्रसर हो जाती हैं। पहलवान साक्षी मलिक की लिखी हुई एक किताब ‘विटनेस’ में उन्होंने ऐसी ही चुनौती के बारे में बात की है। उन्होंने लिखा कि उनमें अब तक अपनी भुजाओं या बाहों को लेकर आत्मविश्वास नहीं है और वो इन्हें छुपाने के लिए प्रयास करती रहती हैं। भारत और विदेश में भी उनकी भुजाओं को लेकर टिप्पणियां की गई हैं।

शरीर के विभिन्न अंगों में ज्यादा मांसपेशियां आने से उन्हें समाज, अन्य खिलाड़ी या फिर कोच उन्हें असहज महसूस कराते हैं । इससे उनमें अपने प्रति हीन भावना या शरीर से असतुंष्टि जैसी मानसिक चुनौतियों उत्पन्न हो जाती है।

महिला खिलाड़ियों की मैच से बाहर व्यक्तिगत लड़ाई

महिला खिलाड़ी मनचाहे कपड़े पहनने में असहज होने लगती हैं और अपने शरीर को पूरे कपड़े पहन कर छुपाने के प्रयास में लगी रहती है। हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक खबर के मुताबिक, साक्षी मलिक ने अपनी किताब विटनेस में बताया कि वे आज भी स्लीवलेस कपड़े  पहनने में असहज महसूस करती हैं। पुल-अप और रस्सी पर चड़ने के कारण पहलवानों की भुजाओं और पीठ में बहुत मजबूत मांसपेशियां विकसित हो जाती हैं। शरीर में बसा की मात्रा कम रखनी होती है जिस कारण कमर पतली और भुजाएं मांसल और सुडौल बन जाती है। इसी कारण महिला पहलवान लड़कों की तरह वी-आकार की दिखने लगती है। हिन्दुस्तान टाइम्स के मुताबिक, साक्षी ने कहा कि वह भगवान से शिकायत करती हैं कि उन्हें अच्छा शरीर दिया पर इतने बड़े हाथ क्यों दिए? ये अपने लिए हीनभावना और अन्य सुंदर, आकर्षक, अवास्तविक सुंदरता के मानकों को पाने की इच्छाएं महिलाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर डालती हैं।

इसी के साथ पूर्व टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्ज़ा को भी हमेशा उनके वजन और कपड़ों को लेकर ट्रोल किया जाता रहा है। साल 2005 में सुन्नी उलेमा बोर्ड के एक मौलवी ने सानिया मिर्ज़ा के खिलाफ फतवा जारी किया था, क्योंकि उनका मानना था कि वह कोर्ट पर ऐसे कपड़े पहनती हैं जो कल्पना के लिए कुछ नहीं छोड़ते। इंडियन एक्स्प्रेस में छपी एक खबर मुताबिक वह कहती हैं कि उन्हें लगता है ये आखिरी बार है जब वो प्रेस कॉन्फ्रेंस में कोई लिखी हुई टी-शर्ट पहन रही हैं। वो सिर्फ 18 साल की हैं और उन्हें इन सबसे ब्रेक देना चाहिए। उन्होंने कहा कि अगर उन्हें कुछ कहना होता है या कोई बात रखनी होती है, तो वो खुद बोल सकती हैं। इसके लिए टी-शर्ट पहनने की ज़रूरत नहीं है।

पूर्व टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्ज़ा को भी हमेशा उनके वजन और कपड़ों को लेकर ट्रोल किया जाता रहा है। इंडियन एक्स्प्रेस में छपी एक खबर मुताबिक वह कहती हैं कि उन्हें लगता है ये आखिरी बार है जब वो प्रेस कॉन्फ्रेंस में कोई लिखी हुई टी-शर्ट पहन रही हैं। वो सिर्फ 18 साल की हैं और उन्हें इन सबसे ब्रेक देना चाहिए।

गोल फाइव में छपे, 201 डिवीजन महिला कॉलेज एथलीटों के इएसपीएन गोपनीय सर्वेक्षण के अनुसार, पाया गया है कि 68 फीसदी महिला एथलीट्स को सुंदर दिखने का दबाव महसूस होता है, जबकि 48फीसदी प्रतिस्पर्धा के दौरान मेकअप पहनती हैं। लगभग 30फीसदी खिलाड़ी बहुत अधिक मांसल होने से डरती हैं, और 20फीसदी कोच से यह टिप्पणी सुन चुकी हैं कि वे ‘मोटी’ हैं। इसके अलावा, यह अध्ययन बताता है कि 40फीसदी से अधिक महिलाएं, जो कुश्ती या जिमनास्टिक जैसी भार वर्ग वाले खेलों में भाग लेती हैं, उनमें खाने के विकार या खाने से जुड़ी समस्याओं के लक्षण दिखाई देते हैं।

सोशल मीडिया में आदर्श शरीर की छवि  

हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, यह कहा गया है कि सोशल मीडिया उन महिला एथलीटों के बीच खान-पान संबंधी समस्याओं को बढ़ावा दे रहा है, जो मानती हैं कि उनका शरीर भी समाज की सोच के मुताबिक जो आदर्श शरीर की छवि है वैसा होना चाहिए। डॉ. कैथरीन विडलॉक और कैथरीन लिगेट, जो दोनों कॉलेज स्तर पर खिलाड़ी रह चुकी हैं और आहार विशेषज्ञ एंड्रयू डोल का कहना है कि सोशल मीडिया पर फैले फिटनेस इन्फ्लुएंसरों के गलत दावे खिलाड़ियों को गुमराह कर रहे हैं। इंस्टाग्राम पर व्यायाम से जुड़ी तस्वीरें खिलाड़ियों पर सीधा असर डाल रही हैं। इनसे खिलाड़ी अक्सर अपने शरीर को लेकर असंतुष्ट महसूस करने लगते हैं और गलत खान-पान या अत्यधिक व्यायाम जैसी आदतें अपनाने लगते हैं।अक्सर धावकों से बहुत दुबले-पतले होने की उम्मीद की जाती है, फिर भी कुछ बेहतरीन धावकों के मांसल पैर आम धारणा से कहीं ज़्यादा बड़े दिखाई देते हैं। नतीजा यह होता है कि महिलाओं को अक्सर ‘अपमानजनक टिप्पणियों’ का सामना करना पड़ता है।

इलाहाबाद के कॉलेजों में हुई एक रिसर्च में यह सामने आया है कि लगभग 26 फीसदी से ज़्यादा छात्राओं में खाने को लेकर असामान्य व्यवहार पाया गया जैसे डाइटिंग, भूखा रहना या खाने से अपराधबोध महसूस करना।

इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री के मुताबिक, मुंबई में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि भारतीय युवतियों पर मीडिया का असर अब पश्चिमी देशों जैसा ही हो गया है। इसका मतलब है कि अब भारतीय लड़कियां भी फिल्मों, विज्ञापनों और सोशल मीडिया में दिखाए गए शरीर के आदर्शों को अपनाने लगी हैं। इलाहाबाद के कॉलेजों में हुई एक रिसर्च में यह सामने आया है कि लगभग 26 फीसदी से ज़्यादा छात्राओं में खाने को लेकर असामान्य व्यवहार पाया गया जैसे डाइटिंग, भूखा रहना या खाने से अपराधबोध महसूस करना। शोध से यह भी पता चला कि भारतीय युवतियों में शरीर से असंतोष और मोटापे के डर का स्तर अब पश्चिमी देशों जैसा ही हो गया है। यह सब तथाकथित ‘सुंदर दिखने की संस्कृति’ के कारण हुआ है। यही चीज़ें खाने से जुड़ी विकृतियों को बढ़ावा दे रही हैं।

सुधार के लिए किया किया जा सकता है 

समाज को यह समझना होगा कि महिलाओं के लिए केवल शारीरिक तौर पर ही सुंदर होना जरूरी नहीं है। उनकी मेहनत, प्रतिभा और आत्मविश्वास भी उन्हें सुंदर बनाते हैं। यह संदेश पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर फैलाना बहुत जरूरी है ताकि समाज महिला को शारीरिक सुंदरता के मानदंडों में बांधने की कोशिश भी न कर पाए। साथ ही सोशल मीडिया को आदर्श शरीर गढ़ने वाली छवियों को बढ़ावा देने से रोकना बहुत ज्यादा जरूरी है। सोशल मीडिया को फिटनेस और खेल कंटेंट में सच्चाई और विविधता को दिखाना चाहिए ताकि महिला खिलाड़ी और युवा लड़कियां अपनी तुलना समाज के बनाए हुए उन आदर्शों से न करें जिनकी कोई अहमियत ही नहीं है। 

68 फीसदी महिला एथलीट्स को सुंदर दिखने का दबाव महसूस होता है, जबकि 48फीसदी प्रतिस्पर्धा के दौरान मेकअप पहनती हैं। लगभग 30फीसदी खिलाड़ी बहुत अधिक मांसल होने से डरती हैं, और 20फीसदी कोच से यह टिप्पणी सुन चुकी हैं कि वे ‘मोटी’ हैं

कोचों और खेल संस्थानों को प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि वे खिलाड़ी की शारीरिक आलोचना करने की बजाय उनकी क्षमता और खेल कौशल पर ध्यान दें। स्कूलों और खेल संस्थानों में लड़कियों के लिए पोषण, स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य पर शिक्षा दी जानी चाहिए। ताकि वह अपने शरीर को समझें और सकारात्मक तरीके से अपना पाएं। महिला खिलाड़ियों को उनकी खेलने की क्षमता के आधार पर सराहना मिलनी चाहिए न कि उनके शरीर के बनाबट के आधार पर। हर महिला खिलाड़ी या महिलाओं के शरीर का आकार अलग-अलग होता है जैसे कि हर किसी की पहचान अलग है महिलाओं का सुंदरता पर टिप्पणी करना उनकी उपलब्धियों या उनके अस्तित्व को अनदेखा करना है।

भारत में बचपन की कडीशनिंग से उभरना आसान नहीं है जहां हमें सिखाया जाता है कि महिलाओं का शरीर नाजुक और पुरुषों का सुडौल व हट्टा-कट्टा होता है। बाहरी देशों की तुलना में भारत में महिलाएं अपनी त्वचा के रंग, संरचना, आकार को लेकर अधिक चिंतित है। समाज की टिप्पणियों में बचपन से माँ अपनी बेटी को भी ऐसी ही सीख देने लग जाती है कि तुम्हारा त्वचा का रंग काला है तो तुम्हें शादी में समझौता करना पड़ेगा, दहेज ज्यादा देना पड़ेगा। इन विचारों का आगे से आगे आदान-प्रदान होता रहता है और महिलाएं इन सब चीजों के बीच फंस अपने अस्तित्व को भूल जाती है। हर रंग, हर शरीर,  हर आकार अपने आप में अलग और खास होता है। सभी की अपनी खासियत और पहचान होती है और इन विचारों से परें हट कर अपने अस्तित्व को अपने हुनर से चमकाने का प्रयास किया जाना चाहिए। 

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