उमा चक्रवर्ती एक नारीवादी इतिहासकार, शिक्षाविद, फिल्म निर्माता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनकी भारतीय नारीवादी इतिहास लेखन और अध्ययन में एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। बहुत से लोग उन्हें नारीवादी इतिहासकार और नारीवादी आंदोलनों की ‘फाउंडिंग मदर’ के तौर पर जानते हैं। सत्तर के दशक में नारीवादी आंदोलनों के अलावा भी वह बहुत से सामाजिक आंदोलनों का हिस्सा रह चुकी हैं। उन्होंने मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में सिख दंगों और गुजरात दंगों में लोगों को न्याय दिलाने के लिए भी सक्रिय होकर काम किया है। एक नारीवादी इतिहासकार के रूप में उनके शोध का मुख्य विषय धर्म, जाति, जेंडर और वर्ग रहा है। जिस पर उन्होंने लगभग आठ से ज्यादा किताबें लिखी हैं और पचास से ज्यादा शोध लेख लिखे हैं। उन्होंने प्राचीन इतिहास में बौद्ध धर्म, पितृसत्ता, और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर काम किया है। उन्होंने अपने काम को सिर्फ इतिहास में रही महिलाओं की स्थिति, संघर्ष और योगदान को बताने के लिए किताबों तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि एक फिल्म निर्माता के तौर पर काम करके इतिहास में रही महिलाओं के ऊपर लगभग सात फिल्में निर्देशित की हैं। उन्होंने महिलाओं के साथ हुए प्रशासनिक अत्याचार की कहानी को स्क्रीन पर दिखाया है।
फेमिनिज़म इन इंडिया: लोग आपको नारीवादी इतिहास लेखन और नारीवादी आंदोलनों की भारत में ‘फाउंडिंग मदर’ के तौर पर जानते हैं। आपके लिए नारीवादी इतिहास लेखन की मुख्य चुनौतियां क्या रही हैं और आपने उन्हें कैसे अपने काम से संबोधित किया है?
उमा चक्रवर्ती: शुरुआती दिनों में फ़ेमिनिस्ट ग्रुप में कुछ फ़ेमिनिस्ट स्कोलर्स थे और उनको ऐसा लगा कि विकिपिडिया में जिस तरीके से चीज़ें जा रही हैं। उनमें नारीवादी इतिहासकार मौजूद ही नहीं हैं। ऐसा किसी को पता ही नहीं था कि जेंडर लेंस से महिला इतिहासकारों ने भी इतिहास लेखन में भाग लिया और काम किया है। इन सबको ध्यान में रखते हुए फेमिनिस्ट ग्रुप में ही रहे कुछ लोगों ने नारीवादी महिला इतिहासकारों के नाम निकालने शुरू किए। जिसमें मेरा भी एक नाम था। हालांकि यह तो है कि मैं नारीवादी महिला इतिहासकारों में सबसे ओल्डेस्ट हूं और मैंने इतिहास तो लिखा ही है, तो इस तरीके से यह फाउंडिंग मदर का कांटेक्स्ट निकल कर आता है। विकिपीडिया में डालने का उनका मकसद यह दिखाना था कि इतिहास लेखन के क्षेत्र में सिर्फ पुरुष इतिहासकार ही नहीं महिला इतिहासकार भी हैं और वह भी इतिहास लिखती हैं। वैसे मेरे हिसाब से हम कई लोग थे जिन्होंने इतिहास को दोबारा जेंडर लेंस में लिखने का काम किया।
ऐसा किसी को पता ही नहीं था कि जेंडर लेंस से महिला इतिहासकारों ने भी इतिहास लेखन में भाग लिया और काम किया है। इन सबको ध्यान में रखते हुए फेमिनिस्ट ग्रुप में ही रहे कुछ लोगों ने नारीवादी महिला इतिहासकारों के नाम निकालने शुरू किए। जिसमें मेरा भी एक नाम था। हालांकि यह तो है कि मैं नारीवादी महिला इतिहासकारों में सबसे ओल्डेस्ट हूं और मैंने इतिहास तो लिखा ही है, तो इस तरीके से यह ‘फाउंडिंग मदर’ का कांटेक्स्ट निकल कर आता है।
यह विकिपीडिया से बस निकल कर आता है, तो लोगों को लगता है कि उमा चक्रवर्ती को इंट्रोड्यूस करना है तो फाउंडिंग मदर से करना एक दम सही होगा। बाकि हम इस नज़रिये से इतिहास लेखन कार्य में शुरुआती दिनों से ही कई लोग थे। नारीवादी इतिहास लेखन की मुख्य चुनौतियों की ओर देखें और बात करें तो हम देख सकते हैं कि इतिहास हमेशा पुरुषों के इर्द-गिर्द घूमता दिखाई देता है। महिलाएं उसमें कहीं दिखाई ही नहीं देती हैं। सिर्फ सत्ता और राजनीति को ध्यान में रख कर महिलाओं को देखें तो नूरजहां जैसी महिलाएं दिखती हैं। लेकिन फिर उनके सत्ता में रहने को पेटीकोट गवर्नमेंट जैसी टिप्पणी करके उनकी योग्यता और हिस्सेदारी को तुच्छ बना दिया जाता है। इस तरीके से प्रॉब्लम इतिहास में नहीं इतिहास को लिखने में है। अस्सी के दशक से ही इतिहास लेखन में परिवर्तन होना शुरू हुआ था। उस समय मैं और मेरे ही साथ और नारीवादी इतिहासकार कॉलेजों में इतिहास पढ़ाते थे। हमने इतिहास को आम लोगों को ध्यान में रखकर दोबारा लिखना शुरू किया था। आम लोगों से तात्पर्य सभी वर्ग, समुदाय, और जेंडर के लोगों से है। हमारे सामने इतिहास लेखन का दायरा बढ़ाने की भी एक दूसरी चुनौती थी कि किसका इतिहास लिखेंगे और कैसा होगा?
इसमें कुछ हमारे सवाल थे जैसे कि इतिहास में महिलाएं क्यों नहीं हैं? अगली चुनौती यह थी कि उस समय के इतिहासकार और लोग तो यह मानते थे कि इतिहास में महिलाएं तो हैं, क्योंकि नैशनलिस्ट इतिहासकार जैसे ए. स. अल्टेकर आदि ने कुछ इतिहास में रही महिलाओं के बारे में लिखा था। महिलाओं के बारे में लिखे गए इतिहास को दोबारा से लिखने की ज़रूरत थी । क्योंकि हमारा सवाल था कि महिला इतिहास में उस तरीके से क्यों मौजूद नहीं है जैसे कि पुरुष? लेकिन नैशनलिस्ट डिबेट से इतिहास में रही कुछ महिलाओं के नाम निकल कर आए थे । जैसे गार्गी, मैत्रेयी आदि फिर भी इसे नारीवादी नजरिए से दोबारा लिखने की जरूरत तो थी, जिसको हमने किया। लेकिन वहीं रजिया सुल्तान जोकि देश की पहली महिला सुल्तान थी और पूरे विश्व में पहली महिला शासिका के रूप में पहचानी जाती हैं। इस सब के बावजूद इतिहास से उनको एक दम इतिहासकारों ने हटा ही दिया है। उन्होंने एक सुल्तान की तरह काम किया लेकिन आज तक उनपर एक फुलफलेज मोनोग्राफ तक नहीं हैं। हालांकि रजिया पर कोई सीरियस इतिहास तो नहीं लिखा गया लेकिन फ़िल्म बन गई जोकि इतिहासकार के तौर पर मुझे एक दम सही नहीं लगी।
इतिहास हमेशा पुरुषों के इर्द-गिर्द घूमता दिखाई देता है। महिलाएं उसमें कहीं दिखाई ही नहीं देती हैं । सिर्फ सत्ता और राजनीति को ध्यान में रख कर महिलाओं को देखें तो नूरजहां जैसी महिलाएं दिखती हैं। लेकिन फिर उनके सत्ता में रहने को पेटीकोट गवर्नमेंट जैसी टिप्पणी करके उनकी योग्यता और हिस्सेदारी को तुच्छ बना दिया जाता है।
फेमिनिज़म इन इंडिया : क्या आपको लगता है कि मुख्यधारा का इतिहास अभी भी पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण से लिखा जाता है?
उमा चक्रवर्ती: हां, हां यह तो वाजिब है। हालांकि हमने बहुत कोशिश की इतिहास लेखन के दायरे को खोलने की, कुछ हद तक हुआ भी है। लेकिन आप देख सकते हैं कि आज तक किसी पुरुष इतिहासकार ने जेंडर के नज़रिये से अपने इतिहास लेखन के काम को नहीं किया है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के एक इतिहासकार सुनील कुमार थे वो रजिया पर किताब लिख रहे थे हालांकि वो तो गुजर गए हैं । लेकिन वो एक ऐसे पुरुष इतिहासकार थे, जिन्होंने जेंडर लेंस से इतिहास लेखन करने की कोशिश की थी।
फेमिनिज़म इन इंडिया: एक नारीवादी, इतिहासकार, शिक्षाविद, और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में आप स्त्री अध्ययन और लेखन को कैसे देखती है ? आज के समय में इसकी समझ होना क्यों जरूरी है?
उमा चक्रवर्ती: जब हमारा फ्रेमवर्क सीमित होता है। तो हमारी समझ भी उसी प्रकार बनती है। हालांकि समझ को बढ़ाने की जरूरत तो है। यहां काम को पुरुष और महिला के बीच बांट दिया गया है। जिसमें महिलाओं के दायरे तय कर दिए गए और पुरुषों को शुरू से आजादी रही बाहर जाकर काम करने की। जबकि महिलाओं को सिर्फ घर पर रह कर बच्चे पालने और घरेलू कामों तक ही सीमित रखा गया है। हालांकि महिलाएं जो थोड़ी ज्यादा उम्र की थी, वह भी शिकार का काम कर सकती थीं । वहीं इतिहास में पुरुषों जैसे अशोक को देखो उनको महान राजा माना जाता है। क्योंकि उन्होंने हिंसा को छोड़कर अहिंसा के धर्म को अपनाया और लोगों तक फैलाया। वह एक राजा थे और उनके पास सत्ता और धन था तो वह यह कर पाए। सरल शब्दों में कहा जाए तो उनके पास साधन थे तभी वह अपना इतिहास लिख पाए। वहीं अगर महिलाओं को देखें या फिर सामान्य वर्ग और समुदाय के लोगों को देखें तो उनका इतिहास गायब ही है। इतिहास में महिलाओं के पास साधन ही नहीं रहे कि वह अपने कामों को बता पातीं और उनका भी इतिहास लिखा जा सकता।
आप देख सकते हैं कि आज तक किसी पुरुष इतिहासकार ने जेंडर के नज़रिये से अपने इतिहास लेखन के काम को नहीं किया है। लेकिन दिल्ली यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के एक इतिहासकार सुनील कुमार थे वो रजिया पर किताब लिख रहे थे हालांकि वो तो गुजर गए हैं । लेकिन वो एक ऐसे पुरुष इतिहासकार थे, जिन्होंने जेंडर लेंस से इतिहास लेखन करने की कोशिश की थी।
फेमिनिज़म इन इंडिया: क्या भारतीय नारीवाद को अब एक नए दृष्टिकोण और रणनीति की ज़रूरत है?
उमा चक्रवर्ती: देखिए, दृष्टिकोण तो हमारा सही है, कोई प्रॉब्लम नहीं है। हर महिला जो कहती है कि वह नारीवादी हैं। मैं नहीं मानती हूं, क्योंकि एक ओर अत्याचार करेंगी और बोलेंगी कि यह वाजिब है तो मैं तो नहीं मानती वह नारीवादी हैं। नारीवाद एक पॉलिटिक्स भी है, और एक समझ भी है। हमें इस अंतर को समझने की बेहद जरूरत है। इस पॉलिटिक्स के तहत मुझे नहीं लगता की कोई भी नारीवादी महिला स्वीकार नहीं करेंगी। हम नारीवादी किसी भी प्रकार के अत्याचार और हिंसा को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। इस पॉलिटिक्स में अत्याचार को लेकर जरूरी नहीं कि हम सिर्फ महिलाओं की बात करें हम दलितों की भी बात करते हैं। हमारी नारीवादी समझ और राजनीति का मकसद जहां लोग सत्ता से दबे हुए हैं और इतिहास में उनके लिए जगह ही नहीं थी। इस प्रकार हमारी समझ हर दबे, कुचले तबके का मजबूती से साथ देना में हैं। वही नारीवादी समझ में अगर पितृसत्ता को लेकर बात की जाए तो यह सिर्फ महिलाओं में ही नहीं मर्दों पर भी कायम होती है। जैसे बोला जाता है कि लड़के रोते नहीं है। यहां पितृसत्ता इतनी हावी है कि एक पुरुष अपनी करुणा और दर्द को स्वीकार नहीं कर सकता है। क्योंकि पितृसत्ता के तहत अधिक और कम करुणा को भी आदमी और महिला में बांट दिया गया है।
फेमिनिज़म इन इंडिया: आपकी राय में, युवा नारीवादियों और इतिहासकारों के लिए आज सबसे महत्वपूर्ण सवाल क्या है?
उमा चक्रवर्ती: देखिए समझ बनाने के लिए जो सवाल आप पूछते हैं अपने ही इतिहास से वह ऐसे होने चाहिए कि उनका दायरा ठीक और मजबूत हो। क्योंकि अगर हम दायरा सही रखेंगे तो उसी हिसाब से हमें हमारे सवालों के जवाब मिलेंगे। अगर हमारे सवालों में स्थिरता नहीं होगी तो रिसर्च के तहत नई विचार और खोज भी मजबूत नहीं होगी। यहां पर अगर हम कहें कि सबसे महान शासक इतिहास में कौन हुआ तो अशोक का नाम आएगा। लेकिन फिर कुछ लोग इस बात पर स्थिर नहीं रह पाएंगे क्योंकि अशोक ने बाद में बौद्ध धर्म को अपना कर अहिंसा का मार्ग चुन लिया था। फिर लोगों को लगेगा की नहीं-नहीं गुप्त सम्राज्य ही सही था। क्योंकि वह हिन्दू भी थे। इस प्रकार हमें आज के संदर्भ को लेकर इतिहास के सवालों को और समझ को नहीं बदलना चाहिए। इतिहासकारों को चाहिए स्थिरता रहे। इतिहास में निष्पक्षता रखते हुए सही और गलत दोनों को ध्यान में रख कर काम हो और सवालों का दायरा मजबूत होना चाहिए।
हमारी समझ हर दबे, कुचले तबके का मजबूती से साथ देना में हैं। वही नारीवादी समझ में अगर पितृसत्ता को लेकर बात की जाए तो यह सिर्फ महिलाओं में ही नहीं मर्दों पर भी कायम होती है। जैसे बोला जाता है कि लड़के रोते नहीं है। यहां पितृसत्ता इतनी हावी है कि एक पुरुष अपनी करुणा और दर्द को स्वीकार नहीं कर सकता है।
फेमिनिज़म इन इंडिया: आपके शोध का मुख्य विषय धर्म, जाति, ,जेंडर और वर्ग रहा है, जिसमें आपके बहुत से शोध कार्यों में से सबसे ज्यादा चर्चित एक शोध कार्य ‘’ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’’ है। क्या आप बता सकती हैं कि किस प्रकार जाति और पितृसत्ता परस्पर जुड़े हुए हैं और एक-दूसरे को मजबूती प्रदान करते हैं?
उमा चक्रवर्ती: इस समझ को बनाने में एक लंबा समय लगा है। मुझे इस समझ के लिए सबसे पहले बेस और आधार अंबेडकर की कोलंबिया यूनिवर्सिटी की मास्टर्स थीसिस ऐनिहिलेशन ऑफ कास्ट से मिलता है। यह उन्होंने साल 1919 में ही लिखा था। उनका यह काम दिखाता है कि जाति एक लंबे समय से कैसे कायम रहा है। शुरुआती दौर में हमने यानी नारीवादियों ने नहीं सोचा था कि हमें जेंडर के साथ जाति पर भी काम करने की जरूरत होगी। जबकि बाद में समाज को देखते हुए यह समझ डेवलप होती है कि जाति और जेंडर के बीच एक जटिल रिश्ता है। इन दोनों के जटिल संबंध से ही समझा जा सकता है कि जाति कैसे रीप्रोड्यूस होती है और कैसे जाति और जेंडर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। एंटी मंडल एजिटेशन जब वी. पी. सिंह के मण्डल कमिशन लाने के बाद शुरू हुआ था। दिल्ली में तो सिविल सर्विस की तैयारी करने वाले बच्चों से लेकर मीडिया और लोगों में काफी गुस्सा था। क्योंकि उनको लग रहा था कि इससे उन्हें नौकरी मिलने में तो मुश्किल होगी क्योंकि मण्डल कमिशन में तो सिर्फ एससी और ओबीसी वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षण था। इसमें मजे की बात यह थी कि उस समय एंटी मंडल ऐजिटेशन में एक बड़ी संख्या में लड़कियां भी निकल कर आई और उनके पास पोस्टर था।
जिसमें लिखा था कि वी डॉन्ट वॉन्ट अनएमपलॉयमेन्ट हसबंड यानी हमें बेरोजगार पति नहीं चाहिए। वैसे मण्डल आयोजन में ऐसा कुछ नहीं था और मण्डल में शादी के बारे में कुछ नहीं था सिर्फ सिविल सर्विसेज़ के बारे में था। मण्डल ने यह कही नहीं कहां था कि आप दूसरी जाति में शादी नहीं कर सकते हैं। फिर यह कहां से आया क्योंकि जाति तभी उत्पन्न होती है। जब शादियां एक ही वर्ण और जाति के अंदर होती हैं। जाति और जेंडर का जटिल संबंध बहुत देर बाद समझ आया कि कैसे हम भी जाति को रीप्रोड्यूस करने में शामिल हैं। यह समझ मेरे लिए आधार बन गया पितृसत्ता को समझने में जब मैं दोबारा से टेक्स्ट में गई और मण्डल के बाद मैंने यह पर्चा लिखा जो साल 1993 में प्रकाशित हुआ। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि हम जेंडर कनेक्शन को अलग नहीं कर सकते हैं। किसी भी प्रकार के सामाजिक विभाजन से क्योंकि वो आपस में मिले हुए हैं और उनका एक जटिल मिश्रण है।
शुरुआती दौर में हमने यानी नारीवादियों ने नहीं सोचा था कि हमें जेंडर के साथ जाति पर भी काम करने की जरूरत होगी। जबकि बाद में समाज को देखते हुए यह समझ डेवलप होती है कि जाति और जेंडर के बीच एक जटिल रिश्ता है। इन दोनों के जटिल संबंध से ही समझा जा सकता है कि जाति कैसे रीप्रोड्यूस होती है और कैसे जाति और जेंडर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।
फेमिनिज़म इन इंडिया: दलित और बहुजन नारीवादियों ने आपके शोध ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के विरुद्ध जो वैकल्पिक व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं, उन पर आपका क्या विचार है?
उमा चक्रवर्ती: ऐसा नहीं हैं कि दलित और बहुजन नारीवादी ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को नहीं मानते हैं। उन्हें इससे कोई बेचैनी नहीं हैं। मैंने अपनी किताब में इसका उल्टा दलित पितृसत्ता कह दिया था। इसको लेकर बहुजन नारीवादियों को बेचैनी हो गई थी। इस पूरे ढांचे में साधन, जेंडर और जाति एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। कुछ जातियों की महिलाओं के लिए विधवा पुनर्विवाह एक दम बंद कर रखा है। और कुछ के लिए कायम रखा है। मेरे हिसाब से ब्राह्मणवादी पितृसत्ता वाले शोध लेख के साथ द आईडियोलॉजिकल एण्ड मिटीरियल स्ट्रक्चर ऑफ विडोहुड इन इंडिया लेख भी समझा जाना चाहिए। इस लेख से यह समझ आता है कि कौन महिला हमेशा के लिए विडो रहेंगी मतलब रीप्रोड्यूस नहीं कर सकती है और कौन ऐसी विधवा महिला हैं जिन्हें दोबारा शादी करने की अनुमति मिली हुई है। यह सब धारणाएं जाति के हिसाब से तय हुई हैं। जाटों के यहां विधवा महिला की दोबारा शादी कराई जा सकती है। इसके पीछे समझ यह है कि जाट महिलाएं खेतों में काम करती हैं। इस प्रकार लेबर हैंड्स की जरूरत पड़ती है एक समुदाय विशेष में। वहीं दूसरे समुदाय में जहां लेबर हैंड्स की जरूरत नहीं हैं बस महिलाओं से एक बच्चा चाहिए जो अंतिम संस्कार के लिए आगे काम आएगा। यह सब जाति के साथ जुड़ा हुआ है क्योंकि जो जाति और समुदाय में लेबर हैंड्स की जरूरत हैं वहां विधवाओं के पुनर्विवाह के नियम अलग हैं। शारीरिक मेहनत के काम को देख कर जाति और समुदाय विशेष को समझा जा सकता है लेकिन मुख्य ढांचा पितृसत्ता ही है।
फेमिनिज़म इन इंडिया: मंडल कमीशन के समय आपने जाति-पितृसत्ता के रिश्ते को नजदीक से देखा। आपकी किताब जेंडरिंग कास्ट: थ्रू ए फेमिनिस्ट लेंस में बताया गया है कि पितृसत्ता ने कैसे महिलाओं की शादी और यौनिकता को नियंत्रित कर जाति व्यवस्था बनाए रखी। आज अंतरजातीय प्रेम विवाह और प्रेम संबंधों के चलते महिलाओं पर बढ़ती हिंसा पर आपका क्या विचार है?
उमा चक्रवर्ती : यह तो ऐसा है कि आप देख रहे हो कि रिएक्शन कहां से आ रहा है और हिंसा का प्रयोग कौन कर रहा है। यह हिंसा कथित ऊंची जाति से शुरू होती है और कथित नीची जाति के लोग जो सिस्टम सालों से चल रहा है उसे बनाये रखने के लिए करते हैं। अब सवाल यह आता है कि हिंसा आखिर क्यों होती है? क्योंकि हम सब जब हिंसा करने वाले सिस्टम को डिफेंड करते हैं और हम में से कुछ लोग यह सोचते हैं कि यह हिंसा सही है। लेकिन हम में से कुछ ऐसे भी लोग हैं। जो एक ही जाति में शादी के सवाल पर तर्क देते हैं और सवाल करते हुए सही नहीं मानते हैं। जैसे मेरी खुद की शादी एक प्रतिलोम विवाह या अंतरजातीय विवाह है क्योंकि मेरे पिता इस एक ही वर्ण और जाति में शादी करने में विश्वास नहीं रखते थे और कोई गलत रिएक्शन नहीं आया उनकी तरफ से।
इस पूरे ढांचे में साधन, जेंडर और जाति एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। कुछ जातियों की महिलाओं के लिए विधवा पुनर्विवाह एक दम बंद कर रखा है। और कुछ के लिए कायम रखा है।
लोग अपनी लड़कियों पर कंट्रोल करते हैं। क्योंकि उनका ऐसा मानना है कि ऐसे तो जाति से जुडी पितृसत्ता खत्म हो जाएगी दक्षिण में एक कल्हण कास्ट है इसमें एक दलित लड़के और कल्हण जाति की लड़की ने शादी कर ली थी। दोनों तरफ से ही हिंसा की आशंका के चलते वह दोनों कभी वापस नहीं आए। इसमें कल्हण, जो ऊंची जाति के लोग थे उन्होंने दलित बस्तियों में जाकर दलितों को परेशान करना शुरू कर दिया था। इन सब परेशानियों के चलते दलितों ने मास कन्वर्ज़न कर लिया यानी इस्लाम धर्म को अपना लिया था। इस मास कन्वर्जन से एक बात निकल कर आई कि लोग यह रास्ता भी अपना सकते हैं, अपने आप को आम करने के लिए। इससे समाज के अंदर जो प्रक्रिया हमने कायम रखी थी उसका किस तरह से असर हो रहा है। वो भी हमे समझना बेहद जरूरी है।
इस तरह के मुद्दों पर मेरी ही सहेली प्रेम चौधरी का काम है जिसने हरियाणा में जाटों पर काम किया है, जिसमें वो भी दिखाती हैं कि यह शादियां जो होती हैं इसको लेकर बहुत विरोध इसलिए भी होता है क्योंकि अब साल 1956 के बाद हिन्दू लॉ में इतना बदलाव आ गया है कि हम अंबेडकर को मानेंगे क्योंकि वो एंटी कास्ट थे। अब जाटों में अब जाट लड़कियां अपना हिस्सा क्लैम करेंगी और उन्होंने दलित लड़कों के साथ शादी कर ली और परिवार कर लिए तो उस पीढ़ी में नहीं तो अगली पीढ़ी तक धीरे- धीरे एक समय के बाद हिस्सेदारी और संपत्ति का हिस्सा उनके हिस्से में जाएगा। इसके परिणाम क्या होते हैं ? यह सवाल भी महत्वपूर्ण है। इसको लेकर हमें यह देखने की जरूरत है हिंसा जब आप करेंगे तो फिर सबके सब लोग शामिल होंगे। इसको लेकर हमने एक फैक्ट फाइंडिंग की थी और एक रिपोर्ट हमने निकाली थी। यह अंतरजातीय शादी को लेकर जो हिंसा थी उस पर ही था। क्योंकि इसमें दलित लड़कों को भी पकड़ कर जेल में भर देते हैं और फिर लंबा कानून चलता है। कई बार तो उनको घर पर मार ही दिया जाता है।
दक्षिण में एक कल्हण कास्ट है इसमें एक दलित लड़के और कल्हण जाति की लड़की ने शादी कर ली थी। दोनों तरफ से ही हिंसा की आशंका के चलते वह दोनों कभी वापस नहीं आए। इसमें कल्हण, जो ऊंची जाति के लोग थे उन्होंने दलित बस्तियों में जाकर दलितों को परेशान करना शुरू कर दिया था। इन सब परेशानियों के चलते दलितों ने मास कन्वर्ज़न कर लिया यानी इस्लाम धर्म को अपना लिया था।
फेमिनिज़म इन इंडिया: आपके अनुभव और किताब ’दिल्ली रियोटस: थ्री डेज इन द लाइफ ऑफ़ ए नेशन’ के आधार पर, आप कैसे देखती हैं कि सांप्रदायिक दंगे सामाजिक असमानता और मानवाधिकार हनन को बढ़ावा देते हैं? ऐसे दंगों से देश के लिए कौन से सबक भविष्य की नीतियों में शामिल किए जाने चाहिए?
उमा चक्रवर्ती: नीतियां तो हमारी सही हैं। हमने जो नीतियां बनाई हैं, उनमें धर्मनिरपेक्षता (सेक्युलरिज़्म) भी शामिल है। इसमें हिंसा को तो कभी भी सही नहीं मानते हैं। लेकिन जिम्मेदारी भी लोगों और संस्थाओं की बनती है। सिक्ख दंगों में सरकार और पुलिस का निष्क्रिय रहना, या चुप्पी बनाये रखना, स्थिति को काबू करने में बाधा बना। छोटे-मोटे झगड़े अलग होते हैं, पर जब हिंसा बड़े पैमाने पर फैलती है और राजनीति और प्रशासन भी उसमें शामिल दिखते हैं तो पूरा माहौल भड़क जाता है। पंजाब के मामले में पहले से तनाव था। ऑपरेशन ब्लू स्टार जैसी घटनाओं ने एक ऐसी स्थिति बनाई जिसमें सिक्ख समुदाय पर सवाल खड़े हो गए। गुरुद्वारों पर हमले और सेना का इस्तेमाल बहुत ही गलत थे। ऐसे मामलों को हिंसा के माध्यम से नहीं, बल्कि शांतिपूर्ण और संवेदनशील तरीकों से सुलझाया जाना चाहिए था और इसके लिए अलग रास्ते चुने जा सकते थे।
फेमिनिज़म इन इंडिया: सरकार ने नई शिक्षा नीति लागू की है। क्या आपको लगता है कि नई शिक्षा नीति (एनईपी ) एक समावेशी पहल है?
उमा चक्रवर्ती: असल बात तो है कि इस नई शिक्षा नीति को, मैंने इन सबको ध्यान में रख कर बहुत निकट से नहीं देखा है। क्योंकि हम सब तो एक समय पर नहीं देख सकते हैं। लेकिन एनसीईआरटी की किताबों के साथ जो बदलाव किये गए हैं वो एक दम सही नहीं हैं। जिन इतिहास की एनसीईआरटी किताबों को हमने बहुत शोध के साथ तैयार किया था। जिसमें मैंने ग्यारहवीं की इतिहास की किताब के लिए एक पूरे शोध के साथ बहुत ही अच्छे से लिखा था। इन किताबों में इसके तहत बदलाव करना और इतिहास को हटाना और मिटाना की कोशिश करना इतिहास के लिए सही नहीं लगता है। फिर भी सत्ता पर रह कर इतिहास को कितना दबाओगे क्योंकि असल इतिहास को बताने के लिए बहुत सारे सोर्स सामने हैं जिन्हें खत्म नहीं किया जा सकता है।
इतिहास की सच्चाई को शासन पर रहकर काटना कब तक हो पाएगा। इस सामाजिक सच्चाई पर बहुत सारी ऐतिहासिक किताबें और सोर्स हैं जो इस सामाजिक भेदभाव और हिंसा की सच्चाई को दिखाती हैं। आप इस ऐतिहासिक सच को नकार नहीं सकते हैं। ज्योतिबा फूले की खुद की गुलामगिरी किताब है जो जातिगत भेदभाव की सच्चाई को साफ दिखाती है। आप चाह कर भी इतिहास की सच्चाई को नहीं दबा सकते हो।
फेमिनिज़म इन इंडिया: आपने एक फिल्मनिर्माता के तौर पर काम करते हुए लगभग आठ फिल्में निर्देशित की हैं यहाँ पर मेरा सवाल है, अभी जो फिल्में आ रही है। जो सामाजिक सच्चाई जैसे जातिगत हिंसा, भेदभाव आदि को दिखाती है। उन पर सेंसर बोर्ड की रोक, इस पर आप क्या कहना चाहेंगी? जिसमें हाल ही का फूले मूवी पर विवाद सेंसर बोर्ड की रोक को लेकर चर्चा में हैं।
उमा चक्रवर्ती : इस पर मैं तो समझती हूं कि यह सत्ता का दुरुपयोग किया जा रहा है। अपने शासन पर बैठ कर तय कर दिया कि जाति की बातें नहीं होनी चाहिए। यह तो वही हुआ कि जैसे जाति की बातें नहीं होंगी तो जाति जैसे चली ही जाएगी समाज से। जाति के मुद्दों से जुड़े विषयों और चर्चा पर रोक लगाने से जातिगत भेदभाव, हिंसा आदि समाज से खत्म नहीं होगा। क्योंकि वह तो एक लंबे समय से कायम है। इतिहास की सच्चाई को शासन पर रहकर काटना कब तक हो पाएगा। इस सामाजिक सच्चाई पर बहुत सारी ऐतिहासिक किताबें और सोर्स हैं जो इस सामाजिक भेदभाव और हिंसा की सच्चाई को दिखाती हैं। आप इस ऐतिहासिक सच को नकार की नहीं सकते हैं।
ज्योतिबा फूले की खुद की गुलामगिरी किताब है जो जातिगत भेदभाव की सच्चाई को साफ दिखाती है। आप चाह कर भी इतिहास की सच्चाई को नहीं दबा सकते हो। मुझे तो लगता है कि ज्योतिबा फूले और सावित्रीबाई जैसे महान लोगों पर हमें गर्व होना चाहिए कि उन्होंने सामाजिक सुधार के काम किये हैं। लेकिन ऐसा नहीं दिखता है। फिर भी अगर सच्चाई को दबाया जा रहा है तो आप देखिए की सोर्स जैसे मुक्ता साल्वे का काम मांग और महार की दुख भारी गाथा, इस सामाजिक अत्याचार की सच्चाई को उजागर करता है। सोचिए की इन प्रकाशित ऐतिहासिक कामों के होते हुए आप सत्ता पर रह कर इस सच्चाई को कभी नहीं मिटा सकते हैं। अगर फिर भी करते हैं तो वही बात होती है कि शासन में रह कर उसका गलत उपयोग करते हुए दशकों पुराने सामाजिक रूढ़िवादिता को अपनाना, जिसको बदलने के लिए ज्योतिबा और सावित्री फूले जैसे महान लोगों ने लंबा संघर्ष किया था।

