संस्कृतिख़ास बात खास बात: लेखिका और कथाकार मधु कांकरिया से

खास बात: लेखिका और कथाकार मधु कांकरिया से

मधु कांकरिया की नई पुस्तक ‘मेरी ढाका डायरी’ प्रकाशित हुई है। यह एक यात्रा-वृतांत है, जिसमें लेखिका ने ढाका में बिताए चार वर्षों के अनुभवों को पिरोया है।

साहित्य में अपनी लेखनी से प्रभाव छोड़ जाने वाले लोगों की बात करें, तो कई नाम गूंजते हैं। कुछ इतनी बार दोहराए जाते हैं कि वे हमारी चेतना में स्थायी जगह पा लेते हैं। लेकिन, कुछ नाम ऐसे भी हैं जो अपनी गहरी संवेदनशीलता और विचारशीलता के बावजूद मुख्यधारा की साहित्यिक बहसों में वह स्थान नहीं पा पाते जिसके वे हकदार होते हैं।  मधु कांकरिया भी ऐसी ही एक लेखिका हैं, जिन्होंने संघर्षरत क्षेत्रों, हाशिए के समाज, विस्थापन, महिलाओं की परिस्थिति और अंतिम पायदान पर खड़े लोगों की पीड़ा को अपनी लेखनी में जगह दी। लेकिन, वे साहित्य-प्रेमियों और आलोचकों के बीच तूलनामूलक रूप से कम चर्चित रहीं।

हाल ही में राजकमल प्रकाशन से मधु कांकरिया की नई पुस्तक ‘मेरी ढाका डायरी’ प्रकाशित हुई है। यह एक यात्रा-वृतांत है, जिसमें लेखिका ने ढाका में बिताए अपने चार वर्षों के अनुभवों को शब्दों में पिरोया है। ढाका में रहने के दौरान उन्होंने जो कुछ देखा, समझा और महसूस किया उसे इस पुस्तक के माध्यम से हमारे सामने रखा है। इन मुद्दों के संदर्भ में फेमिनिज्म इन इंडिया ने मधु कांकरिया से बातचीत की, जिसमें हमने साहित्य, यात्रा-वृतांत और बांग्लादेश से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की। इस साक्षात्कार में लेखिका ने अपने अनुभवों, लेखन-प्रक्रिया और ‘मेरी ढाका डायरी’ के निर्माण को लेकर कई गंभीर बातें साझा करती हैं।

शुरूआत में कहानियां ही लिखती थी, फिर मुझे किसी ने कहा कि आपको उपन्यास लिखना चाहिए क्योंकि जबतक आप उपन्यास नहीं लिखेगीं तो लोग आपको राइटर नहीं मानेंगे। फिर मुझे लगा कि उपन्यास लिखना पड़ेगा। मजे की बात है कि पहला ही उपन्यास राजकमल से छप गया और मुझे एक ब्रेक मिल गया।

फेमिनिज़म इन इंडिया: आपने साहित्य की लगभग हर विधा में योगदान दिया है, जिनमें यात्रा-वृत्तांत, उपन्यास, कहानी, आदि शामिल हैं। हर विधा की अपनी विशेषता होती है। लेकिन हम जानना चाहेंगे कि वह कौन-सी विधा है जो आपके सबसे करीब है और क्यों?

मधु कांकरिया:  पहली बात तो मैं हिंदी से नहीं हूं। इस वजह से विधा की मुझे उस प्रकार से कोई जानकारी नहीं है। मेरा पूरा लेखन संवेदना और अनुभव पर है। मैं जब शुरूआत में लिखती थी, तो कुछ नहीं जानती थी। बस जो भाव आते उसे लिख देती। यह भी नहीं जानती थी कि ये कहानी बनेगी या क्या कुछ और। लेकिन मैं पढ़ती बहुत थी। पढ़ते-पढ़ते मैं लिखने लगी। ऐसी ही छुट-पुट लिखती और छपने के लिए भेज देती। फिर कलकत्ता में वागर्थ पत्रिका का आरंभ हुआ, तो वहां भेजना शुरू किया। ऊधर से जवाब आया कि तुम कहानियां अच्छी लिखती हो। इससे पहली बार आत्मविश्वास आया। शुरूआत में कहानियां ही लिखती थी, फिर मुझे किसी ने कहा कि आपको उपन्यास लिखना चाहिए क्योंकि जबतक आप उपन्यास नहीं लिखेगीं तो लोग आपको राइटर नहीं मानेंगे। फिर मुझे लगा कि उपन्यास लिखना पड़ेगा। मजे की बात है कि पहला ही उपन्यास राजकमल से छप गया और मुझे एक ब्रेक मिल गया।

तस्वीर साभार: श्वेता

मैंने लाइब्रेरी में तीन-चार प्रकाशकों के नाम देखें उसमें राजकमल भी था और मैंने उसको भेज दिया। ऐसे मैं उपन्यासकार बन गई। फिर एक बार मैं झारखंड गई, वहां मैंने आदिवासियों का जीवन देखा जो एकदम अलग था। मेरे दोस्त ने सुझाव दिया कि मैं संस्मरण लिखूं। तो पहला यात्रा-वृंतांत मैंने लिखा और वो तत्भव में छपा। इसका मतलब है कि मुझे सहयोग भी मिला, क्योंकि अगर पहला ही नहीं छपता तो मैं यात्रा-वृतांत ही नहीं लिखती है। इस तरह मैं तीनों विधाओं में लिखने लगी। फिर जब ढाका (बांग्लादेश की राजधानी) गई तो आत्मविश्वास था कि लिख सकूंगी। 

लेकिन शुरू में सारी चीज़ें मेरे दिमाग में दर्ज होती थी, मैं दृश्यों को आंखों में भर लेती थी। मैं सोची थी कि इतना देखूंगी कि कभी भूल न सकूं। फिर घर में आकर मुझे बैचनी सी होती थी आखिर उस लड़की ने बुर्का क्यों पहना था?

फेमिनिज़म इन इंडियाः ‘मेरी ढाका डायरी’ विशेष रूप से एक महत्वपूर्ण कृति है। इस कृति को लिखने की प्रेरणा आपको कहां से और कैसे मिली? क्या यह किसी व्यक्तिगत अनुभव से उपजी थी, या ढाका जैसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध स्थान ने आपको इसकी ओर आकर्षित किया?

मधु कांकरिया: शुरू में तो एक जिज्ञासा थी ढाका के प्रति एक लगाव था, एक आर्कषण था, एक भावुकता था। मैं वहां की महिलाओं से बात करती थी, लोगों को देखती थी। जैसे, कोई नवजात शिशु होता है, जो चारों तरफ घूम-घूम कर देखता है वैसे ही मैं घूम-घूम कर देखती थी। फिर जब काफी घूमने लगी तो लगा कि मेरे अनुभव तो काफी समृद्ध हो रहे हैं, खासकर महिलाओं को लेकर। मैंने देखा कि ढाका में कई ढाका है। फिर मैं चीज़ों को नोट करने लगी। अनुभव के साथ-साथ लिखना भी बढ़ता गया और किताब मुक्मल बन गई।

तस्वीर साभार: श्वेता

लेकिन शुरू में सारी चीज़ें मेरे दिमाग में दर्ज होती थी, मैं दृश्यों को आंखों में भर लेती थी। मैं सोची थी कि इतना देखूंगी कि कभी भूल न सकूं। फिर घर में आकर मुझे बैचनी सी होती थी आखिर उस लड़की ने बुर्का क्यों पहना था? आखिर उस छोटी सी बच्ची ने हिजाब क्यों डाल रखा था? मैंने वहां इतना छोटा घर देखा जिसमें ट्रेन की बोगी की तरह स्लैब थे, लोग ऊपर नीचे स्लैब पर सोते थे। एक महिला थी जो घर से बाहर जाते वक्त अपने बच्चे को डोर से बांधकर जाती थी। यह सब देखकर बैचनी होती थी। इससे मुक्ति पाने के लिए लिखने लगी। ऐसा नहीं था कि मैं शुरू से डायरी लेकर घूमती थी। लेकिन बाद में जब मैं किताब को लेकर गंभीर हो गई तो डायरी लेकर जाने लगी।  

हमारे यहां दो घरेलू कामगार काम करती थी। उनके जरिए मैंने काफी कुछ जाना। दोनों को उनके पतियों ने छोड़ दिया था। बिना तलाक दिए। उन दोनों में से किसी ने भी कोर्ट में जाकर मुआवजा नहीं मांगा। मेरे ऐसा क्यों पूछने पर उन्होंने कहा कि हमारे यहां तो पुरूष दो तीन विवाह तो कर ही सकते हैं।

फेमिनिज़म इन इंडियाः ढाका की यात्रा के दौरान आपको वहां की महिलाओं के सामाजिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक जीवन के कौन से पहलू सबसे अधिक प्रभावित करने वाले लगे? क्या आपको वहां भारतीय और बांग्लादेशी महिलाओं की स्थिति में कोई महत्वपूर्ण भिन्नता दिखी?

मधु कांकरिया: हमारे यहां दो घरेलू कामगार काम करती थी। उनके जरिए मैंने काफी कुछ जाना। दोनों को उनके पतियों ने छोड़ दिया था। बिना तलाक दिए। उन दोनों में से किसी ने भी कोर्ट में जाकर मुआवजा नहीं मांगा। मेरे ऐसा क्यों पूछने पर उन्होंने कहा कि हमारे यहां तो पुरूष दो तीन विवाह तो कर ही सकते हैं। दूसरी बात कि अगर मैंने मुआवजा लिया तो मेरी बेटी की शादी नहीं होगी क्योंकि इससे मेरी छवि लड़ाकू वाली बनेगी। भारत में ऐसा नहीं है। यहां की सांस्कृति अलग है। यहां तो दूसरा शादी करना मुश्किल है।

तस्वीर साभार: Amar Ujala

मैं एक बार घूमने गई तो पार्क में एक महिला मेरे बगल में बैठी थी। वह इक्कीस साल की लड़की थी। उसने हाथ में मौजे पहन रखे थे। मैंने उसे पूछा कि आपको इतनी सर्दी लग रही है? उसने कहा नहीं। सर्दी नहीं लग रही है, ये तो उच्च कोटि का इस्लाम है। मेरे पति हज किए हुए हैं और मौलवी भी हैं, इसलिए मैं अपनी आंखों के आलावा सारे अंग को ढककर रखती हूं। मुझे देखकर दूसरी महिलाएं भी सीखेंगी।

हम महिला हैं। यह उपमाएं हमारे भीतर हैं। कृष्णा सोबती की एक रचना में उपमा थी कि ‘वह आटा की लोई जैसी लचीली थी।’

हालांकि, एक तरफ महिलाएं बुर्का में घुस रही है तो दूसरी तरफ निकल भी रही हैं। महिलाएं आर्मी, पुलिस, रैपिड फोर्स ज्वाइन कर रही हैं। मुझे एक विश्वविद्यलाय की लड़की मिली जिसने साफ कहा- आई हैट बुर्का क्योंकि इस्लाम में ये कहीं नहीं है। इस्लाम के पांच सिंद्धात हैं- ईमान, नमाज, रोज़ा, जकात और हज। बुर्का तो सिर्फ हदीस में लिखा है। 

 फेमिनिज़म इन इंडियाः आपकी किताब ‘मेरी ढाका डायरी’ में उपमाएं बहुत रोचक और स्त्रियों से जुड़ी हुई हैं। जैसे आपने बांग्लादेश की आज़ादी के ठीक बाद की स्थिति का जिक्र करते हुए लिखा है- ‘गरीब माँ के स्तन के दूध की तरह नए राष्ट्र की ख़ुशहाली जल्द ही सूखने लगी।’ इस तरह की उपमाओं के पीछे की कहानी है?

मधु कांकरिया: हम महिला हैं। यह उपमाएं हमारे भीतर हैं। कृष्णा सोबती की एक रचना में उपमा थी कि ‘वह आटा की लोई जैसी लचीली थी।’

फेमिनिज़म इन इंडियाः एक महिला के रूप में यात्रा-वृत्तांत लिखते समय आप अबतक किन-किन विशिष्ट अनुभवों और चुनौतियों से गुज़री हैं?

मधु कांकरिया: झारखंड में काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। साल 1992-1993 की बात है, तब वहां बिजली नहीं थी। रात के वक्त हम बड़े-बड़े टार्च लेकर निकलते थे। मैं एक संस्था की तरफ से वहां आदिवासियों के बीच काम करने गई थी। वहीं मैं पहली बार एक माओवादी से मिली थी। मैं माओवादी से बात कर रही थी। लेकिन जो मुझे वहां तक लेकर गया था, वह डर रहा था और मुझे चुप रहने का इशारा कर रहा था।

तस्वीर साभार: Sangat

लेकिन मैंने बातचीत जारी रखी। मुझे भी डर लग रहा था लेकिन मैं रुक नहीं सकती थी। ऐसा ही मैं ढाका के अंदरूनी इलाके में चली गई थी तो डर लग रहा था कि कोई मुझे विदेशी बोलकर अटैक न कर दें। एक बार बिंदी हटाकर, चुन्नी ओढकर मस्जिद में चली गई थी। लेकिन डर भी लग रहा था कि कहीं पता न चल जाए कि मैं हिंदू हूं। मैंने मस्जिद में जाने की अनुमति नहीं ली थी। मिलती भी नहीं। इसलिए ऐसे ही घुस गई थी।

अपनी पीड़ा को कबतक रोते रहोगे। आप पीड़ा को पेशा मत बनाइए। ठीक है आप महिलाओं की बात करो लेकिन किसानों की आत्महत्या से मौत की भी तो बात करो, वहां भी तो महिलाएं हैं। आदिवासी महिलाओं की बात करो, जिन्हें हर जगह विस्थापित किया जा रहा है।

फेमिनिज़म इन इंडियाः आप एक इंटरव्यू में महिला रचनाकारों के विषय चयन पर सवाल उठाते हुए कहती हैं कि आज भी महिला लेखन अपनी पीड़ा को पेशा बनाकर प्रस्तुत कर रहा है। इससे आपका क्या तात्पर्य था? आप महिलाओं के लेखन में किन विषयों को देखना चाहती हैं?

मधु कांकरिया: मैं यह नहीं कह रही कि सब महिलाएं ऐसा कह रही हैं। बहुत महिला लेखन आ रहा है। लेकिन नए संदर्भ और दृष्टि की कमी है। वही पुरानी घिसी-पीटी बातें हैं। अब महिला लेखकों की तीसरी पीढ़ी सामने आ रही है, अब आप देश और समाज की बात उठाओ। अपनी पीड़ा को कबतक रोते रहोगे। आप पीड़ा को पेशा मत बनाइए। ठीक है आप महिलाओं की बात करो लेकिन किसानों की आत्महत्या से मौत की भी तो बात करो, वहां भी तो महिलाएं हैं। आदिवासी महिलाओं की बात करो, जिन्हें हर जगह विस्थापित किया जा रहा है। मजदूर स्त्रियां हैं, उनकी बात करो। आज आठ घंटे काम वाली बात नहीं रह गई है। मछुआरी महिलाएं कमर तक पानी में जाला लिए पूरे दिन खड़ी रहती हैं। मिलता क्या है- पचास से सौ रुपये। आप अंतिम पंक्ति में खड़ी अंतिम स्त्री की बात तो नहीं कर रहे न। मैं तो बहुत कटु हो जाती हूं कि वहीं सुहाने-सुहाने रेशमी दुख। 80 करोड़ लोगों को सरकार ने कटोरा पकड़ा दिया है। क्या आप उन परिवार की बात कर रहे हो?

फेमिनिज़म इन इंडियाः क्या बाजारवाद समाज में महिलाओं की स्थिति को गलत तरह से प्रभावित कर रहा है?

मधु कांकरिया: बाजारवाद से महिलाओं के पास पैसा तो आता है। लेकिन यह महिलाओं को वापस से कॉमोटिडी भी बना रहा है। आप विज्ञापन देखिए- हर विज्ञापन में आपको महिलाएं आमंत्रित करती मिल जाएंगी। महिलाओं की गरिमा कहां रह गई? बाजारवाद उन्हें ऑब्जेक्टिफ़ाई कर रहा है। इसके कारण महिलाएं खुद भी अपने आपको देह बनाकर प्रस्तुत कर रही हैं। मैं तो कहती हूं कि अगर कोई आपकी देह की तारीफ करता है तो उस सार्टिफिकेट को फेंक दीजिए क्योंकि आप सिर्फ देह नहीं, दिमाग भी हैं। लेकिन सबसे ज्यादा कॉसमेटिक भारत में बिक रहा है। आप खुद ही खुद को वस्तु की तरह प्रस्तुत कर रही हैं। कोई भी प्रोग्राम हो आप तीन से चार कपड़े बदल रहे हैं। अपने भीतर के तंरग को पहचानिए। घर के बाहर और भीतर, लोकतांत्रिक निगाह से देखिए।

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